Tuesday, April 16, 2024

अधिकारों और न्याय के संघर्ष में परिवर्तित होता किसान आंदोलन

नीतियों के प्रति असंतोष संघर्ष के लिए प्रेरित करता है, ये तारीख इतिहास में दर्ज है। नीतियों के मूल में कारक और उद्देश्य जब सामूहिक उत्थान कल्याण के विपरीत महत्वकांक्षाओं व दोहन पर आधारित हों तो संघर्ष ही परिणाम होता है। प्राकृतिक रूप से  उपलब्ध संसाधनों व श्रम के आधार पर ही जिंदगी ही जीवन निर्वाह की नींव है। सामूहिकता के बोध व सहयोग की आवश्यकता से समाज का निर्माण हुआ। निरंतर जिज्ञासा ने ज्ञान व आविष्कारों को स्थापित किया। भारत की भूमि प्राकृतिक रूप से संसाधनों से भरपूर है। इसीलिए मानव सभ्यताओं के विकास में अहम भी रही।

भारत में समाज का निर्माण कृषि पर आधारित हुआ। अनुकूल जलवायु, उपजाऊ भूमि, जल की उपलब्धता के साथ श्रम की नियति ने  कृषि को जीवन का आधार बनाया जो वर्तमान तक निरंतर यथावत है। भारत की समृद्धि ने विभिन्न कालों में लुटेरों, आक्राताओं, शोषणकर्ताओं को लुभाया और बार-बार लूट, शोषण, आक्रमण के दंश को भुगता भी।

भारत में सामाजिक व्यवस्था ग्रामीण परिवेष आधारित व अर्थव्यवस्था मूलतः कृषि केन्द्रित रही है। धर्म और राजनीति के विस्तार ने व्यवस्थाओं पर नियंत्रण को मुख्य ध्येय बनाया। समय के साथ-साथ  महत्वाकांक्षाओं के कारण राजनीति का वर्चस्व अधिक मजबूत होता गया। राजनीतिक महत्वकांक्षाओं ने व्यवस्थाओं को नियंत्रित कर अपने उदेश्यों के अनुकूल ढालने की प्रवृत्ति को सशक्त किया। राजनीति ने सत्ता के अधिकार के नये  मार्ग गढ़े। नैतिकता व मौलिकता के दुर्बल होने के काल का प्रारम्भ भी वहीं से हुआ। वर्तमान किसान आंदोलन के मूल में सत्ता की नीतियों के प्रति असंतोष मुख्य कारक है।

नीति निर्धारकों ने कभी ग्रामीण सामाजिक आर्थिकता व आधुनिकीकरण को सशक्त करने की नीतियों का निर्माण न करके, धर्म, संप्रदाय, वर्ग के विभाजन को मंत्र के रूप में  प्रयोग किया।

स्वतंत्रता संग्राम के मूल में यही असंतोष मुख्य तत्व रहा, जब सत्ता की नीतियों द्वारा भारत के कृषक समाज का शोषण, उत्पीड़न और प्रताड़ना ही प्रशासन पद्धति व प्रणाली बन गया था। अलग-अलग कानूनी प्रावधानों को पूंजीपतियों द्वारा संसाधनों के दोहन के लिए स्थापित किया गया, जहां आमजन के अधिकारों को नियंत्रित करने के पीछे शोषण और दोहन ही उद्देश्य था। न्याय व अधिकारों के लिए उठने वाली मांगों की आवाज को निरंकुशता से दमन की प्रवृत्ति प्राथमिकता से व्याप्त थी। समाज के विभिन्न वर्गों को विभाजित कर तिरस्कृत करना शासन का मूल मंत्र था।

असंतोष धीरे-धीरे समाज के अन्य शोषित वर्गों में भी उभरने लगा। प्रजातांत्रिक विचारधाराओं ने व्यापक असंतोष को केन्द्रित कर आक्रोश को आंदोलन में परिवर्तित कर दिया।

बदलती वैश्विक नीतियों के आधुनिकीकरण के प्रभाव ने भारत को अपने उद्देश्यों की पूर्ति के स्रोत के रूप में प्रयोग किया। पूंजीवादी सिद्धांतों ने भारत को औपिनिवेशिक परिप्रेक्ष्य में विस्तृत किया। लुटेरों, आक्राताओं से लेकर ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेजों तक शोषण, दमन, उत्पीड़न के विरुद्ध भारतीय समाज के सभी वर्गों के संघर्ष की लम्बी दास्तानें इतिहास में दर्ज हैं।

पारंपरिक तौर से कृषि भारतीय समाज की सांस्कृतिक पहचान भी है। कृषि ही जीवन पद्धति की धुरी है। कृषि के साथ पशु पलान मौलिक अंग है। अन्य सहायक जीव जन्तुओं के प्रति सौहार्द रहा है। पर्व, उत्सव, मेले फसलों व अनाज के महत्व पर आधारित हैं।

भूमि, गगन, वायु, अग्नि और नीर, प्रकृति  को भगवान मानने वाले पाखण्ड और आडंबर से दूर निरंकार में देवशक्ति व आलौकिकता  में भरोसा रखने वाले किसान, अन्नदाता को छलने के लिए कई तरह के प्रपंचों में उलझाया गया। धर्म, जाति, वर्ग की छद्म संकीर्णता में धकेला भी गया। 21वीं सदी में पनपे पूंजीवादी उपभोक्तावाद के विकारों की चुनौतियों ने आम जनजीवन को प्रतिस्पर्धा की दौड़ के दबाव में पहुंचा दिया। वर्तमान किसान अंदोलन संपूर्ण समाज की अपनी संस्कृति को बचाने के सवाल से भी जुड़ा हुआ है।

हाकिम और हुकूमतों की नीतियों के चलते उपेक्षा के कारण जर्जर होती कृषि, जिसमें कृषि से जुड़ी मूल समस्याओं जैसे सिंचाई, बीज, खाद, उपकरण, भंडारण और उत्पाद का समय पर उचित मूल्य की उपल्बधता का कोई स्थायी समाधान नहीं होने के कारण कर्ज के दुश्चक्र में किसान का फंसना और असहाय स्थिति में आत्महत्या ने पूरे देश में खेती-किसानी के जीवन को एक ऐसे संकट में ला खड़ा किया, जिससे निकलने के तमाम रास्ते सत्ता की चौखट पर गिरवी पड़े हैं। अब सत्ता की नीतियां, समस्याओं के समाधान से इतर एक ऐसी व्यवस्था की ओर अग्रसर हैं, जिससे किसानों व उससे  जुड़े अन्य वर्गों में अपने अस्तित्व व संस्कृति को लेकर खतरा पैदा हो गया है।

कृषि क्षेत्र में अग्रणी भूमिका निभाने वाले पंजाब ने कृषि में शोषण के विरुद्ध लंबे समय से संघर्ष किया। सुधारों के लिए पहल की। कृषि के विस्तार के लिए देश के अन्य राज्यों में भूमि को कृषि योग्य बनाने में अपना योगदान कर समग्र समाज को सशक्त करने की अवधारणा को स्थापित किया। वर्तमान सत्ता की नीतियों में छुपे कृषि क्षेत्र के निजीकरण के ध्येय को गहनता से समझते हुए देश के समूचे कृषक वर्ग को बचाने के लिए इन नीतियों के विरोध में आंदोलन करने की पहल को अब लगभग 100 दिन पार कर चुका है। दुनिया के अन्य विकसित देशों से भी इस अन्दोलन की मांगों, अधिकारों और न्याय के लिये समर्थन निरंतर मिल रहा है। भारत के अन्य राज्यों में महापंचायतों के विस्तार से जो जागरूकता समाज के विभिन्न वर्गों में उभर रही है वो न्याय व अधिकारों के संघर्ष के स्पष्ट संकेत हैं।

(जगदीप सिंह सिंधु वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

जनचौक से जुड़े

0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest
0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Latest Updates

Latest

Related Articles