Friday, March 29, 2024

पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट  के 11 नये जजों में एक भी सिख नहीं

इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस रंगनाथ पांडेय ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर जजों की नियुक्ति करने वाली कॉलेजियम प्रणाली में भाई-भतीजावाद और जातिवाद का आरोप लगाया था। एक जुलाई 2019 को लिखे पत्र में पांडेय ने आरोप लगाया था कि इस सिस्टम में भेदभाव, अपारदर्शिता और पक्षपात होता है। संभवतया यह पहली बार था कि हाईकोर्ट के एक मौजूदा जज ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में कमियों की ओर ध्यान दिलाया था। जस्टिस पांडेय 4 जुलाई 2019 को सेवानिवृत्त हो गए। इस पत्र के पब्लिक डोमेन में आने का बाद तीन साल से अधिक का समय गुजर चुका है, लेकिन कॉलेजियम प्रणाली से चयन में कोई बदलाव नहीं हुआ है। अभी पिछले दिनों पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट में 11 जजों की नियुक्ति हो या इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकील कैडर से होने वाली नियुक्तियां हों, सभी में भाई-भतीजावाद और जातिवाद के साथ एक विचारधारा विशेष का होने के आरोप लगे हैं।

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में नियुक्त किए गए 11 अतिरिक्त न्यायाधीशों में से एक भी सिख न्यायाधीश नहीं है जबकि पंजाब में सिख लगभग 52 प्रतिशत हैं। 11 में चार बनिया वर्ग से हैं तो दो के बारे में कहा जा रहा है कि संघ पृष्ठभूमि के हैं। इसी तरह इलाहाबाद हाईकोर्ट में पहली वरीयता संघ की पृष्ठभूमि होने की चर्चा है ।

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने 25 जुलाई को 13 वकीलों के नामों की सिफारिश की थी, जिनमें से 11 नामों को सरकार ने मंजूरी दे दी है। इनमें पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) जवाहर लाल गुप्ता की बेटी निधि गुप्ता शामिल हैं। हरियाणा में कानून अधिकारी नरेश सिंह शेखावत, वरिष्ठ अतिरिक्त महाधिवक्ता और अतिरिक्त महाधिवक्ता दीपक मनचंदा भी इस सूची में शामिल हैं। इसके अलावा सूची में कराधान वकील जगमोहन बंसल, हर्ष बांगर, आलोक कुमार जैन, संजय वशिष्ठ, त्रिभुवन दहिया, नमित कुमार, हरकेश मनुजा और अमन चौधरी को भी शामिल किया गया है।

पंजाब विधानसभा के पूर्व उपाध्यक्ष बीर देविंदर सिंह ने हाल ही में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में नियुक्त किए गए 11 अतिरिक्त न्यायाधीशों में से एक भी सिख न्यायाधीश नहीं होने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार पर सवाल उठाया। सिंह ने कहा कि पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के लिए 11 अतिरिक्त न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाली केंद्र की अधिसूचना उस मानसिकता की याद दिलाती है, जो ‘बहुसंख्यक समेकन’ के सिद्धांत पर काम कर रही है, जो अल्पसंख्यक सिख समुदाय के खिलाफ एक सिद्ध सांप्रदायिक पूर्वाग्रह को दर्शाता है। यह ‘समावेशी भारत’ की बहुप्रचलित हठधर्मिता के लिए एक गंभीर झटका है। मुझे आश्चर्य है कि यह किस तरह की समावेशिता की भावना को दर्शाता है, जब एक भी सिख न्यायाधीश का नाम 11 न्यायाधीशों की सूची में नहीं है, जिन्हें नियुक्त किया गया है।

सिंह ने कहा है कि सूची में इस प्रकार नियुक्त न्यायाधीशों की योग्यता पर प्रश्न चिन्ह न लगाते हुए, मेरी मूल आपत्ति यह है कि यदि पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में सिख न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं की जाती है, तो वरिष्ठ अधिवक्ताओं में से, जो पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में वकालत कर रहे हैं, फिर न्यायाधीशों के रूप में पदोन्नति के लिए उनके नामों पर और कहाँ विचार किया जाएगा?

सिंह ने कहा है कि सिख समुदाय के लिए यह पचाना काफी घृणित और अपमानजनक है कि भारत के न्यायशास्त्र की प्रणाली ने अल्पसंख्यक सिख समुदाय के 31 वरिष्ठ अधिवक्ताओं में से एक भी व्यक्ति को उच्च न्यायालय में अतिरिक्त न्यायाधीश बनने में सक्षम नहीं माना या नहीं पाया? यह भाजपा-आरएसएस गठबंधन की वर्तमान सरकार की सांप्रदायिक मानसिकता को बयां करता है, जो भारत की न्यायपालिका में अल्पसंख्यक समुदायों की भूमिका को व्यवस्थित रूप से मिटा रहा है। दुर्भाग्य से, इस तरह की एक स्पष्ट और गैर-सैद्धांतिक अनदेखी अभेद्य असमानता के जानबूझकर इरादे के साथ सिख समुदाय पर यह आघात हुआ है, जब राष्ट्र अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है, जिसके लिए सिखों ने असंख्य बलिदान दिए हैं।

पूर्व डिप्टी स्पीकर ने भारत के मुख्य न्यायाधीश और कानून और न्याय मंत्रालय से पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के हाल ही में नियुक्त अतिरिक्त न्यायाधीशों की सूची की तत्काल समीक्षा करने का आग्रह किया ताकि संतुलित दृष्टिकोण के साथ उचित सहारा लिया जा सके और उपयुक्त संशोधन किया जा सके। संविधान और समावेशी भारत की बहुलता को देखते हुए भी।

पिछले महीने अकाली सांसद सिमरनजीत सिंह मान ने संसद में केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू से सुप्रीम कोर्ट में एक सिख जज की गैरमौजूदगी को लेकर सवाल भी किया था।

शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के प्रधान सुखबीर बादल ने हैरानी जताते हुए कहा है कि देश की आजादी में सिख कौम की कुर्बानी 80 फीसदी रही है, जबकि रविवार को जारी की गई अधिसूचना के मुताबिक हाई कोर्ट में एक भी सिख जज नहीं है।बादल ने पूछा कि स्वतंत्रता दिवस पर यह सिख कौम के लिए कैसा तोहफा है? उन्होंने केंद्र सरकार से इस मामले में हस्तक्षेप करने की मांग की है। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार को इस मामले में उचित कदम उठाना चाहिए और पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट में सिखों को भी प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए।

क्या हितों का टकराव न्यायपालिका में जजों की नियुक्तियों में कोई मायने नहीं रखता। अभी पिछले ही दिनों उच्चतम न्यायालय के कई माननीय न्यायाधीश हितों के टकराव के नाम पर या अन्य अज्ञात कारणों से सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा के मामले की सुनवाई से अलग हो गये लेकिन यह कभी देखने सुनने में नहीं आता कि कॉलेजियम में शामिल कोई माननीय हितों के टकराव के कारण कॉलेजियम की ऐसी किसी बैठक से अलग हुए हों जिसमें उनके किसी रिश्तेदार या करीबी के नाम पर जज बनने के लिए विचार हो रहा हो।

अब यह महज संयोग नहीं हो सकता कि न्यायपालिका में तीन-तीन पीढ़ी के जज हैं। भाई भतीजावाद कहें या जातिवाद कहें न्यायपालिका में नासूर की तरह पक रहे इस फोड़े का कुछ मवाद पटना हाईकोर्ट के वकील दिनेश द्वारा दाखिल याचिका से सतह पर आ गया था, जिसमें कॉलेजियम के द्वारा सिफारिश किये गये कई नामों को लेकर खुलासे हैं और उन्हें रद्द करने की मांग की गयी थी ।  पटना उच्च न्यायालय के एक वकील दिनेश सिंह द्वारा दायर याचिका में कहा गया है था कि कॉलेजियम की सिफारिशों में जातिवाद, भाई भतीजावाद किया गया है और सामाजिक न्याय की अनदेखी की गयी है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि अनुशंसित उम्मीदवारों की लागू सूची में ओबीसी, एससी और एसटी को पूरी तरह से छोड़कर मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर की अवहेलना की गयी है। सूची में दर्ज नाम उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए अयोग्य हैं क्योंकि उनके पास कानूनी काम का पर्याप्त अनुभव नहीं है ।

याचिका में नाम लेकर खुलासे किये गये थे  या आरोप लगाये गये हैं। सूची में शामिल अर्चना पालकर खोपड़े एक ऐसा नाम है, जिससे पटना उच्च न्यायालय का बार काफी हद तक अपरिचित है। इसके बावजूद कोई भी अधिवक्ता या हाईकोर्ट का न्यायाधीश इस बात की गवाही देगा कि सुश्री खोपड़े को बार में खड़े होकर बेंच को संबोधित करते देखा गया है। यह उसकी विशेषता रही है। हाईकोर्ट के कॉलेजियम की नजर में जो खास है, वह यह है कि वह बॉम्बे हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज की बेटी हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि पटना उच्च न्यायालय के गलियारों में एक ज़ोरदार और निरंतर चर्चा है कि माननीय न्यायमूर्ति एसए बोबडे, सीजेआई-इन वेटिंग, सुश्री खोपड़े के परिवार को जानते हैं।

याचिका में कहा गया था कि इसी तरह शिल्पा सिंह एक घोषित आउटसाइडर हैं, जो 17 वर्षों से दिल्ली में वकालत करती हैं और मुख्य न्यायाधीश की जाति की हैं। उन्होंने जुलाई 2016 से दिल्ली और पटना में वकालत  किया है। वर्ष 2017, 2018 और 2019 में अधिकांश कार्यदिवसों के दौरान दिल्ली में रहने के बावजूद पटना उच्च न्यायालय में एक सरकारी वकील के रूप में पैसा कमाया है, जिस पर गम्भीर सवाल हैं। सूची में अमित पवन एक और नाम है जो पटना उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश और वकील के लिए अपरिचित हैं। उनकी विशेषता यह है कि न्यायमूर्ति राकेश कुमार की बेटी, जो कॉलेजियम सदस्य हैं, पवन के कार्यालय में कार्यरत थीं। पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अमित पवन को “जज” बनाने के लिए कौन सा मानक मिला?

याचिका में कहा गया था कि कुमार मनीष सबसे विशेष सिफारिशी हैं। पटना हाईकोर्ट के बार और बेंच के बहुमत ने उन्हें शायद ही कभी बार में खड़े होकर पांच मिनट के लिए अदालत को संबोधित करते देखा हो। वह काउंटर एफिडेविट दायर करने के लिए समय की प्रार्थना के लिए जाने जाते हैं और एमओपी के अनुसार न्यायाधीश के लिए उनमें क्षमता का अभाव है। उच्च न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा इस औसत से कम क्षमता के उम्मीदवार के नाम की सिफारिश करने में पूरी तरह बेईमानी की गंध आ रही है।

संदीप कुमार का चयन किया गया है जबकि तथ्य यह है कि पिछले मुख्य न्यायाधीश (माननीय न्यायमूर्ति रेखा एम दोषी) ने 29 साल पहले उन्हें अदालत की अवमानना का दोषी पाया था। इसी तरह चीफ जस्टिस की जाति से जुड़े भूमिहार मनीष कुमार ने कुछ साल पहले उच्च न्यायालय में एक वकील श्री एसके वर्मा पर जानलेवा हमला किया था। लेकिन मुख्य न्यायाधीश के करीबी माने जाने वाले महाधिवक्ता के साथ उनकी जाति और उनके संबंध ने उन्हें न्यायाधीश बनने में मदद की है। राज कुमार पटना उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश के पुत्र हैं और वह भारत के कानून मंत्री के करीबी भी जाने जाते हैं। कितने पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस तथ्य की गवाही देंगे कि उन्होंने उनके समक्ष मामले दायर किए हैं या बहस की है?

संजय कुमार गिरि एक अन्य उम्मीदवार थे जिन्हें अदालतों के सामने बहस करते हुए शायद ही कभी देखा गया हो। माननीय न्यायमूर्ति ज्योति सरन के साथ उनके संबंध से वे चयनित हुए हैं। राशिद इज़हार एक आपराधिक मामले में अभियुक्त रहा है। अमित श्रीवास्तव 55 से ऊपर के उम्मीदवार हैं और इसलिए उनके नाम की सिफारिश करने में कॉलेजियम का औचित्य नहीं था। इसके अलावा, पांच साल पहले उसका नाम रद्द कर दिया गया था।

याचिका में आरोप लगाया गया है  कि पूरी प्रक्रिया में स्पष्ट रूप से हितों का टकराव था और बताया कि कोलेजियम ने 15 में से 9 नाम अपनी ही जाति / समुदायों, यानी भूमिहार और कायस्थ समुदायों से चयनित किये गये हैं , जबकि 50 फीसद बेंच स्ट्रेंथ सिफारिश की तारीख में इन्हीं समुदायों से थे। याचिका में कहा गया है कि 30 में से केवल 3 ओबीसी जज थे और कोई भी दलित जज नहीं था।याचिका में नोटिस जारी हुई थी पर अंत में क्या हुआ यह पता नहीं चला।

कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित कुल 15 नामों में से, कोई भी दलित, ईबीसी, ओबीसी या समाज के आदिवासी तबके से नहीं था। कॉलेजियम जाति के आधार पर इस हद तक अंधी हो गयी थी कि इसने एमओपी और उन संवैधानिक प्रावधानों की पूरी तरह अवहेलना की जो समान अवसर और सामाजिक न्याय को अनिवार्य करती है । याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की है कि हाईकोर्ट केंद्र को निर्देश दे कि इन  सिफारिशों को रद्द कर दिया जाए।

दरअसल उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम सिस्टम से होती आ रही है। यह कॉलेजियम सिस्टम वह पद्धति है जिसमें कुछ वरिष्ठ जज मिलकर खुद जजों की नियुक्ति करते हैं। इस नियुक्ति में विशुद्ध रूप से जजों के समूह की मनमर्जी चलती है। इसका परिणाम यह हुआ है कि कुछ जजों के परिवार और रिश्तेदार ही बारी-बारी से जज बनते रहते हैं। भारत में कई ऐसे परिवार हैं जिनकी अनेक पीढ़ियाँ एक के बाद एक जज बनती आ रही हैं। ये नियुक्तियाँ मनमाने ढंग से की जाती हैं। यह कॉलेजियम पद्धति संविधान की धज्जी उड़ाता है।

उच्चतम न्यायालय  न्यायालय के कुछ न्यायाधीशों, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, न्याय जगत एवं शिक्षा जगत की बड़ी-बड़ी हस्तियों, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इस कॉलेजियम प्रणाली (पाँच न्यायाधीशों द्वारा) के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति की समय-समय पर कटु आलोचना की है। नियुक्तियों में जातिवाद, भाई-भतीजावाद और पक्षपातपूर्ण कार्य किये जाने के विरुद्ध आवाजें उठते रहते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति में कोई पारदर्शिता नहीं है।

न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के संक्रमण का प्रसार तेजी से हुआ। भ्रष्टाचार ने एक नया आकार लिया।भ्रष्टाचार केवल रुपये के लेन-देन को ही नहीं कहा जाता है। बल्कि इसमें भाई-भतीजावाद, संवेदनशील मामलों को बार-बार अपने मनोनुकूल जजों को सौंपना, सुनवाई के मामलों को मनमाने तरीके से सूचीबद्ध करना, तत्काल निष्पादन के मामलों की सुनवाई में भेदभाव करना, किसी के पक्ष या विपक्ष में जान बूझकर फैसला देना, समय पर निर्णय नहीं देना, सुनवाई के बाद मामलों पर निर्णय आदेश लम्बे समय तक सुरक्षित रखना, कई मामले वर्षों तक सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं होना, कोई सामान्य मामला भी तुरंत सुन लिया जाना, किसी महत्वपूर्ण मामले को भी टालते रहना, तारीख पर तारीख देना। ये सब न केवल भ्रष्टाचार और न्यायिक भेदभाव को बढ़ावा देते हैं, बल्कि इसने सभी के लिए समान न्याय’ के सिद्धान्त की नींव को हिला कर रख दिया है।

संविधान और कानून की बजाय जातीय-धार्मिक पूर्वाग्रह अदालतों में आज तेजी से बढ़ रहा है। न्याय प्रभावशाली सामाजिक वर्ग के पक्ष में होता जा रहा है। अधिकतर यह अमीरी-गरीबी, जाति और धर्म देखकर निर्णय दिए जाते हैं। संविधान के समानता, स्वतंत्रता और न्याय का सपना ध्वस्त होता जा रहा है। न्याय-तंत्र, जाति विशेष और सत्ता की कठपुतली बनने की ओर अग्रसर है।भारतीय न्यायपालिका बड़े लोगों, अमीरों और शक्तिशाली साथियों की रक्षक बन गई है। यह गरीबों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों के लोगों के लिए नहीं रह गई है। गरीबों और कमजोर सामाजिक समूहों के लिए न्याय एक आकाश कुसुम बन गई है।

(वरिष्ठ पत्रकार जेपी सिंह की रिपोर्ट।)

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