25 जून 1975 के दिन देश में तत्कालीन इंदिरा गांधी के शासन में आपातकाल लागू किया, जिसका पूरे देश ने पुरजोर विरोध किया। यहां तक कि 1977 में जब आम चुनाव कराए गये तो पहली बार देश से कांग्रेस साफ़ हो गई, और दक्षिण भारत को छोड़ दें तो उत्तर भारत में उसका नामलेवा नहीं बचा था।
लेकिन इसी आपातकाल के दौरान भारत के संविधान में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द को भी मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में जोड़कर इंदिरा गांधी ने समतामूलक देश बनाये जाने की मंशा भी दिखाई थी। लेकिन नई दिल्ली में आपातकाल की 50वीं वर्षगाँठ के अवसर पर संघ के स्तंभकार राम बहादुर राय की पुस्तक ‘इमरजेंसी के 50 साल’ के विमोचन के अवसर पर संघ महासचिव दत्तात्रेय होसबेले अपने दर्द को बयां करने से रोक नहीं पाए।
देश में इमरजेंसी थोपने से ज्यादा उन्हें दर्द इस बात का साल रहा है कि भारत को समाजवादी और सेक्युलर बताने का क्या मतलब है? उन्होंने श्रोताओं से पूछा भी, गोया सभी इस बात से सहमत थे कि भारत हर्गिज खुद को समाजवादी और सेक्युलर देश नहीं मानता।
फिर क्या मानता है भारत खुद को? होसबोले ने अपनी आपत्ति को संविधान निर्माता, बाबासाहेब अंबेडकर को ढाल बनाते हुए कहा कि संविधान बनाते समय अंबेडकर जी ने भी इन दो शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में स्थान नहीं दिया था। इससे उनका अर्थ यह था कि अंबेडकर समाजवाद और सेकुलरिज्म में विश्वास नहीं रखते थे।
होसबोले के शब्दों में, “क्या सोशलिज्म और सेकुलरिज्म के विचार विचारधारा के नाते शाश्वत हैं भारत के लिए? बाद के दौर में इन दोनों शब्दों को लेकर पक्ष-विपक्ष में चर्चा हुई, लेकिन निकाला नहीं गया. तो क्या ये दो शब्द रहने चाहिए प्रस्तावना में, इस पर विचार होना चाहिए।”
इसके बाद होसबोले यह तर्क देते हैं कि इन दो शब्दों को संविधान की प्रस्तावना में उस समय जोड़ा गया था, जब देश में आपातकाल लागू था, न्यायालय पंगु बन चुका था।
आज जब देश की 80% से अधिक आबादी 1975 के बाद की है, तो उनमें से अधिकांश को तो अभी तक यही लगता था कि भारतीय संविधान के नीति निर्धारक तत्वों में समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष भारत की परिकल्पना देश के गणतन्त्र बनने के साथ ही उल्लिखित की गई होगी। आखिर, भारत दुनिया का सबसे विशाल आबादी वाला देश है, जिसमें दुनिया के लगभग सभी धर्मों और मतों को मानने वाले लोग रहते हैं। क्या संघ को लगता है कि भारतीय गणराज्य की स्थापना पाकिस्तान की तरह किसी धार्मिक राष्ट्र के रूप में की गई थी? यदि नहीं, तो इमरजेंसी में ही सही, एक काम जो अच्छा किया गया, उसका उससे इतना वैमनस्य क्यों?
आरएसएस और इमरजेंसी: संघ प्रमुख बाला साहब देवरस ने लिखा था माफीनामा
असल बात तो यह है कि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) ने तो इमरजेंसी का समर्थन किया था। 3 अगस्त, 2018 को द फ्रंटलाइन में प्रकाशित, एजी नूरानी के लेख “आरएसएस और इमरजेंसी” में साफ़ बताया गया है कि आरएसएस के तत्कालीन संघ प्रमुख बालाजी देवरस ने माफीनामा लिखकर अपनी और संघ कार्यकर्ताओं की रिहाई का मार्ग प्रशस्त किया था।
नूरानी लिखते हैं, “आरएसएस के लोगों ने जेल जाने का विकल्प नहीं चुना था। उन्हें जेल में ठूंस दिया गया था। 25 जून, 1975 को आपातकाल घोषित किया गया। 30 जून को देवरस को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। 4 जुलाई को 23 अन्य संगठनों के साथ आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। आरएसएस की शुरुआती प्रतिक्रिया प्रतीक्षा करने और देखने की थी। दो विद्वत्तापूर्ण कार्यों में उस नीति का वर्णन किया गया है।”
देवरस द्वारा इंदिरा गांधी को लिखा गया पत्र
नूरानी लिखते हैं, यही वह संदर्भ है जिसमें देवरस ने इंदिरा गांधी, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एस.बी. चव्हाण और उस “सरकारी संत” विनोबा भावे को पत्र लिखना शुरू किया। इन पत्रों को, अन्य लोगों के पत्रों के साथ, चव्हाण द्वारा महाराष्ट्र विधानसभा के पटल पर रखा गया था।
देवरस द्वारा इंदिरा गांधी को 22 अगस्त, 1975 को लिखे गए पहले पत्र का पहला पैरा इस प्रकार है: “मैंने 15 अगस्त, 1975 को लाल किले, दिल्ली से आल इंडिया रेडियो पर दिए गये आपके भाषण को सुना है। यह भाषण संतुलित और समयानुकूल था और इसने मुझे आपको यह पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया है।” नूरानी अपनी टिप्पणी जोड़ते हुए लिखते हैं, “हमेशा की तरह, यह चापलूसी और झूठा था.”
पत्र में आगे लिखा था, “आरएसएस का उद्देश्य हिंदू समाज को एकजुट और संगठित करना है….. ऐसे लोग हैं जो आरोप लगाते हैं कि आरएसएस एक सांप्रदायिक संगठन है। यह भी एक निराधार आरोप है। हालाँकि वर्तमान में संघ की गतिविधियाँ हिंदू समाज तक ही सीमित हैं, लेकिन संघ कभी भी किसी गैर-हिंदू के खिलाफ कुछ नहीं कहता है। यह बिल्कुल गलत है कि संघ मुस्लिम विरोधी है। हम इस्लाम, मोहम्मद, कुरान, ईसाई धर्म, ईसा मसीह या बाइबिल के बारे में एक भी अनुचित शब्द का उपयोग नहीं करते हैं।”
देवरस के पत्र का अंतिम पैराग्राफ इस प्रकार है: “मैं आपसे अनुरोध करता हूं कि कृपया बिना किसी पूर्वाग्रह के संघ के मामले पर पुनर्विचार करें। संगठित होने की स्वतंत्रता के लोकतांत्रिक अधिकार के प्रकाश में, मैं आपसे आरएसएस पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाने की विनती करता हूं।”
नूरानी अपनी टिप्पणी में लिखते हैं, आपातकाल हटाने या अन्य लोगों को जेलों से रिहा करने के बारे में इस पत्र में एक शब्द भी नहीं लिखा गया था।
इस पत्र के अलावा भी संघ की ओर से कई बार पत्र लिखकर रिहाई का अनुरोध किया गया था। नूरानी के अनुसार, वास्तव में यह सारा पत्राचार, लोक संघर्ष समिति के सदस्यों को अँधेरे में रखकर किया गया था, जिनके साथ आरएसएस और उसके सूत्रधार नानाजी देशमुख ने जुड़े होने का दावा किया (दिखावा किया?)। उन सभी को आरएसएस के कायरतापूर्ण विश्वासघात ने पीठ में छुरा घोंपा। इंदिरा गांधी ने उन्हें और उनके पत्रों को नजरअंदाज कर दिया। देवरस द्वारा 15 जुलाई, 1975 को एसबी चव्हाण को लिखे गए पहले पत्र में कहा गया था: “संघ ने सरकार या समाज के खिलाफ दूर-दूर तक कुछ नहीं किया है। संघ के कार्यक्रम में ऐसी चीजों के लिए कोई स्थान नहीं है। संघ केवल सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में लिप्त रहता है।”
इसके अलावा भी कई तथ्यात्मक जानकारियाँ इस लेख में मिल जायेंगी। लेकिन आज बीजेपी और संघ न सिर्फ आपातकाल को देश का सबसे बड़ा पाप बताते नहीं थकतीं, बल्कि 50 वर्ष बाद भी इसे याद दिलाकर आज के कांग्रेस को दोषी ठहराने से नहीं चूकती। लेकिन यह भी तो सच है कि देश में आपातकाल थोपने वाली इंदिरा गांधी ने ही ढाई वर्ष बाद इसे हटाया और देश में आम चुनाव कराकर खुद को और अपनी पार्टी को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया। यह अलग बात है कि पूर्ण बहुमत वाली जनता पार्टी सरकार अपना कार्यकाल भी पूरा न कर सकी, और एक बार फिर से देश की जनता ने कांग्रेस के हाथों में देश की बागडोर सौंप दी।
देवरस के पत्रों से तो यही जाहिर होता है कि संघ को इमरजेंसी से कोई खास दिक्कत नहीं थी। यहां पर यह भी जानना जरुरी है कि आपातकाल की व्यवस्था देश के संविधान में पहले से मौजूद थी, और आज भी है. हाँ, इसे लागू अभी तक सिर्फ तीन बार किया गया है। दो बार युद्ध के दौरान और एक बार 1975 में देश के भीतर अस्थिरता और अशांति के नाम पर इंदिरा गांधी ने विपक्ष को देश की जेलों में ठूंस दिया था।
लेकिन भारत में कई लोग मानते हैं कि देश में अघोषित इमरजेंसी तो 2016 से लागू है. बीजेपी घोषित आपातकाल क्यों नहीं लगाती? क्या इसलिए, कि उसे डर है कि ऐसा करने से वह हमेशा के लिए इतिहास के कूड़ेदान में फेंक दी जाएगी?
क्या 2024 आम चुनाव में 400 लोकसभा सीट के दावे के पीछे संविधान बदलने की मंशा नहीं थी? दत्तात्रेय होसबोले तो उसके बगैर ही अल्पसंख्यक मोदी सरकार से भारत के संविधान से समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द को हटाने की मुहिम चला रहे हैं। सोचिये, यदि भाजपा सहित एनडीए 400 सीट पा जाती तो संघ को एक वर्ष भी इंतजार करना पड़ता?
अंबेडकर का संविधान बताने वाले दत्तात्रेय साहब यह बताना भूल जाते हैं कि देश में जब संविधान लागू किया जा रहा था, तब देश में एकमात्र संघ ने ही इसका विरोध क्यों किया था? इसका उल्लेख तो हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष, मल्लिकार्जुन खड़गे राज्यसभा में भारतीय संविधान की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर कर चुके हैं। राज्यसभा में बोलते हुए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा था, “जो लोग राष्ट्रीय ध्वज और संविधान का अपमान करते हैं, वो हमें संविधान का पाठ पढ़ा रहे हैं।”
खड़गे ने अपने संबोधन में कहा था, “1949 में आरएसएस नेताओं ने भारत के संविधान का विरोध किया था, क्योंकि यह मनुस्मृति पर आधारित नहीं था। न तो उन्होंने संविधान को स्वीकार किया और न ही तिरंगे को स्वीकार किया। 26 जनवरी 2002 को पहली बार मजबूरी में आरएसएस मुख्यालय पर तिरंगा फहराया गया था क्योंकि यह अदालत का आदेश था।”
उन्होंने यहां तक कहा कि जो लोग राष्ट्रीय ध्वज का अपमान करते हैं, संविधान का अपमान करते हैं, जिस दिन देश का संविधान लागू हुआ उस दिन इन्हीं लोगों ने महात्मा गांधी और भीमराव अंबेडकर का पुतला जलाया था, अब वही लोग हमें संविधान का पाठ पढ़ा रहे हैं। जो देश के लिए लड़े नहीं, वो आजादी और संविधान का महत्व क्या समझेंगे। संविधान सभा की बहसों से यह स्पष्ट है कि आरएसएस के तत्कालीन नेता संविधान के खिलाफ थे। जो लोग झंडे, अशोक चक्र और संविधान से नफरत करते थे, वे आज हमें संविधान का पाठ पढ़ा रहे हैं। ऐसे लोग अब देश के लिए जान देने वालों के खिलाफ बोलते हैं।”
गौरतलब है कि वर्ष 2025 आरएसएस का शताब्दी वर्ष भी है। मनुस्मृति को अपना संविधान मानने वालों की सोशल मीडिया में आज बहुतायत है। संघ का विधान देश के विभिन्न हिस्सों में दबंग समुदाय जबरन लागू करा रहे हैं, लेकिन मनुस्मृति अभी तक भारत का संविधान नहीं बन सकी है। क्या आपातकाल को याद करते हुए संघ ने अपने राजनीतिक संगठन के प्रमुख को अपनी पुरानी ख्वाहिश बताने की कोशिश नहीं की है कि 11 वर्ष और तीसरी बार लगातार सत्ता में आने के बावजूद भारत के संविधान में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द प्रस्तावना में क्या कर रहे हैं?
(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)