‘‘हरे-भरे हैं खेत
मगर खलिहान नहीं;
बहुत महतो का मान
मगर दो मुट्ठी धान नहीं।
भरा है दिल पर नीयत नहीं;
हरी है कोख-तबीयत नहीं।
भरी हैं आंखें पेट नहीं;
भरे हैं बनिए के कागज
टेंट नहीं।
हरा-भरा है देश
रूंधा मिट्टी में ताप
पोसता है विष-वट का मूल
फलेंगे जिसमें...
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