इसका कुल परिणाम अमेरिकी सामानों के लिए भारत के सीमा शुल्क में कटौती होगा, जिसका नतीजा होगा खाद्यान्न MSP में कमी और बेहद सब्सिडी वाले अमेरिकी अनाज का भारत में प्रवेश।
अर्थशास्त्र की प्राथमिक पुस्तकें एक मिथकीय अवधारणा से शुरू होती हैं, पूर्ण प्रतियोगिता। जो मुक्त प्रतियोगिता से भिन्न है जिसका classical अर्थशास्त्रियों और मार्क्स ने प्रयोग किया था।
मुक्त प्रतियोगिताएं समान काम के लिए(समान योग्यता) समान वेतन और सभी सेक्टरों में समान लाभ की व्यवस्था थी। इसके लिए जिस एकमात्र चीज की जरूरत थी, वह थी पूंजी और श्रम के मुक्त विचरण की आजादी जो एकाधिकार के पहले के दौर में कोई असंभव कल्पना नहीं थी। पूर्ण प्रतियोगिता का अर्थ इसके साथ साथ है शून्य लाभ।
यह केवल एक स्थिति में हो सकता है। जैसे ही किसी सेक्टर में लाभ हो सारे पूंजीपति उसी सेक्टर में कूद पड़ें कि लाभ खत्म हो जाय। यह न सिर्फ तमाम सेक्टरों में पूंजी के मुक्त विचरण बल्कि पूंजीपतियों के बीच भी मुक्त विचरण की व्यवस्था है अर्थात मजदूर भी पूंजीपति हो सकते हैं जब पॉजिटिव लाभ हो रहा हो।
पूर्ण प्रतियोगिता का आधार है पूर्ण सामाजिक गतिशीलता अर्थात एक वर्ग विहीन समाज जो कि एक पूंजीवादी समाज के लिए बेतुकी बात है और इसलिए मौजूदा संदर्भ में एक पूरी तरह मिथकीय बात है। फिर भी नए व्यापार के नियमों को तय करते समय, WTO ने मान लिया कि यह पूरी तरह मिथकीय अवस्था आज समाज में है, इसलिए वर्तमान मूल्य से अलग किसी भी विचलन से बचा जाना चाहिए। इसलिए इसके अनुसार उत्पादकों को किसी सेक्टर में मूल्य समर्थन द्वारा दी जाने वाली कोई सब्सिडी व्यापार को विकृत करने वाली है जबकि उन्हीं उत्पादकों को आय ट्रांसफर के रूप में दी जाने वाली सब्सिडी पूरी तरह मान्य थी।
इस सोच की पूरी एब्सर्डिटी साफ हो जाती है कि एकाधिकारियों के लाभ में किसी कटौती द्वारा उनके लाभ को नियंत्रित करने का प्रयास कीमत और व्यापार को विकृत करने वाला बताकर खारिज कर दिया जाएगा। सचमुच, यह आश्चर्यजनक है कि ऐसी बेतुकी शर्त कि आज की दुनिया में कीमतों में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता यह WTO द्वारा दक्षिण के देशों से मनवा लिया गया। इन देशों को अच्छी तरह यह मालूम होना चाहिए था। लेकिन उन्हें धमका कर यह किया गया और उसका सीधा असर उन देशों के किसानों पर पड़ा।
यह सब लोग जानते हैं कि विकसित देश अपने किसानों को भारी सब्सिडी देते हैं लेकिन ये सब्सिडी उनको सीधे आय ट्रांसफर के रूप में दी जाती है,वे जो समान बेचते हैं उसकी कीमत के रूप में नहीं।
अमेरिका और यूरोपियन यूनियन में यह सब्सिडी का पैसा उत्पाद की कीमत के लगभग आधे के बराबर होता है।
जापान में लगभग उत्पाद की कुल कीमत के बराबर होती है।इतनी विराट धनराशि के बावजूद,WTO को उन पर कोई आपत्ति नहीं होती क्योंकि उनको यह कीमतों को विकृत करने वाला नहीं मानता। बल्कि उसको वह अच्छाई मानता है क्योंकि दुनिया को परफेक्ट कंपटीशन के आधार पर संचालित मान लिया गया है। यह भी सैद्धांतिक रूप से गलत समझ है।
लेकिन भारत जैसे एक देश में जहां सरकार किसानों को समर्थन मूल्य देती है अर्थात उन्हें समर्थन देकर मूल्य में हस्तक्षेप करती है। ऐसे समर्थन पर विकसित पूंजीवादी देश और WTO आपत्ति करते हैं। वे कहते हैं कि यह उनके कीमत को और इसलिए व्यापार को विकृत कर रहे हैं, इसीलिए उसे गलत मानते हैं।
उनका कीमत विकृत न करने वाली सब्सिडी पर जोर सिद्धांततः भी गलत है और अव्यावहारिक भी है। अमेरिका में यह आय समर्थन सरकार दे सकती है क्योंकि वहां इनकी संख्या हजारों में है। लेकिन भारत जैसे देश में जहां दस करोड़ से ऊपर किसान परिवार हैं, हर किसान को व्यक्तिगत रूप से आय का समर्थन एक असंभव प्रस्ताव है।
एक मात्र तरीका जिससे इतने किसानों को समर्थन दिया जा सकता है वह अनाज की कीमत के रूप में ही संभव है। वह उचित समर्थन मूल्य द्वारा ही संभव है। इस बात पर जोर देना कि समर्थन मूल्य के आधार पर नहीं बल्कि आय transfer के रूप में ही सब्सिडी दिया जाय , एक तरह से यह कहना है कि भारत जैसे देशों में सब्सिडी दी ही न जाए। दरअसल भारत में कैश क्रॉप उत्पादकों के साथ यही हुआ है। उनको अब उस तरह का समर्थन मूल्य नहीं मिलता जैसा पहले मिलता था।
नव उदारवादी शासन के पहले, जब विश्व बाजार में मूल्य गिरते थे, तमाम सरकारें टी बोर्ड , काफी बोर्ड, आदि के माध्यम से हस्तक्षेप करती थीं और बढ़ी हुई कीमत के आधार पर इनसे खरीद लेती थीं तथा इसके साथ उचित सीमा शुल्क लगा देती थीं ताकि किसानों को नुकसान न हो। पर यह अब नहीं होता है।
W T O के निर्देशानुसार कैस क्रॉप्स का समर्थन मूल्य न मिलने से पिछले कई दशकों में तमाम किसानों ने आत्महत्या की है। यह एक ऐसी चीज है जो आजाद भारत में उदारीकरण के पहले नहीं देखी गई थी। सरकार तीन काले कानूनों मध्यम से खाद्यान्न समर्थन मूल्य को भी वापस लेना चाहती थी, जिसकी पहले वह हिम्मत नहीं कर सकी थी।
लेकिन साल भर चले किसान आंदोलन ने तात्कालिक रूप से इसे कदम वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। हालांकि इसे वापस लेने के प्रोजेक्ट को इसने अभी नहीं छोड़ा है। ट्रंप की टैरिफ नीति ने एक बार फिर इसको फौरी एजेंडा पर ला दिया है। अगर भारत ने भी बदले में टैरिफ लगा दिया होता और मामले को वहीं छोड़ दिया होता तो भारत के किसानों को कोई नुकसान नहीं होता।
लेकिन चूंकि भारत ट्रंप प्रशासन से बातचीत के लिए तैयार हो गया है इसका मतलब है वह अमेरिकी सामानों के लिए टैरिफ कम करने को तैयार हो गया है, इसके बदले में कि अमेरिका भारतीय सामानों पर टैरिफ नहीं बढ़ाएगा। साफ है कि भारत के खाद्यान्न उत्पादकों को जो मूल्य समर्थन मिल रहा था, वह अब नहीं मिलेगा। इस बातचीत का कुल परिणाम यह होगा कि अमेरिकी सामानों पर भारत का सीमा शुल्क कम हो जायेगा जिसका मतलब होगा MSP कम हो जाएगी, अगर वह जारी रहती है तो। और भारत के बाजार अत्यधिक सब्सिडी वाले खाद्यान्न से पट जाएंगे।
अमेरिका का भारत को अनाज निर्यात करने का बहुप्रतीक्षित स्वप्न जो हरित क्रांति के दौर से अधूरा था अब पूरा हो जाएगा। भारत के लिए यह विनाशकारी होगा। न सिर्फ यह किसानों की तबाही बढ़ाएगा और उनकी आत्महत्याएं बढ़ जाएंगी जो अनाज उत्पादकों के मामले में अब तक कम गंभीर थी। बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा भी खतरे में पड़ जाएगी।
देश न सिर्फ खाद्यान्न के लिए अमेरिका पर निर्भर हो जाएगा और भारतीय नीति निर्माण के ऊपर अमेरिका को भारी लाभ होगा लेकिन देश में अकाल की घटनाएं भी बढ़ जाएंगी। जैसे किसान खाद्यान्न उत्पादन से दूसरी फसलों की ओर बढ़ेंगे जो उस समय लाभकारी हो सकती हैं।
जब ऐसी फसलों की कीमत में भारी गिरावट आती है, जैसा कि उनके साथ अपरिहार्य ढंग से विश्व बाजार में होता है। तो विदेशों से खाद्यान्न खरीदने के लिए देश में विदेशी मुद्रा की कमी हो जाएगी। इससे अधिक यह कि अगर ऐसा नहीं भी होता या अमेरिका से खाद्य सहायता आ भी जाय ( जिसकी कीमत वह किसी न किसी रूप में वसूल करेगा), तो किसानों के पास आयातित खाद्यान्न को खरीदने की क्रय शक्ति नहीं होगी। दोनों ही हालात में देश अकाल की ओर बढ़ेगा। ठीक यही अफ्रीका में घटित हुआ है। कई अफ्रीकी देशों को प्रेरित किया गया कि वे खाद्यान्न उत्पादन बंद कर दें और उसके आयातक बन जाय।
लेकिन वे भीषण अकाल के शिकार हो रहे हैं जब जब उनके निर्यात की कीमतें तेजी से गिर रही है। अर्थशास्त्री अमिया बागची ने इन अकालों को भूमंडलीकरण अकाल कहा है। क्योंकि ये खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता को त्याग देने का परिणाम हैं, जो भूमंडलीकरण द्वारा प्रेरित है। अब तक अफ्रीका इन अकालों का शिकार था। अब भारत भी इसका शिकार बनेगा। विडंबना यह है कि इसका कारण ट्रंप का भूमंडलीकरण से दूर हटने की धमकी है।
सरकार बेशक दावा करेगी कि अमेरिका के साथ व्यापार वार्ताओं में किसानों के हितों की बलि नहीं दी जाएगी। लेकिन अमेरिकन सामानों के सीमा शुल्क में कोई कमी भारत के किसानों को नुकसान पहुंचाएगी। यह तथ्य कि भारत अमेरिका के साथ व्यापार समझौता करने जा रहा है, किसानों के हितों के खिलाफ है।
भारत के टैरिफ घटाने केबदले में ट्रंप का टैरिफ न बढ़ाना हमारे खाद्यान्न उत्पादकों के लिए कोई लाभ का सौदा नहीं होगा क्योंकि वे अमेरिका को बड़े पैमाने पर निर्यात नहीं करते। इससे मैनुफैक्चरिंग करने वाले एकाधिकारी पूंजीपतियों को कुछ लाभ हो सकता है। लेकिन इससे भारत के किसानों के दुर्भाग्य पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
( Newsclick से साभार, अनुवाद लाल बहादुर सिंह)