‘वोटबंदी’ अर्थात लोकतंत्र कुछ लोगों के लिए! क्या जनता को मताधिकार से वंचित करने का एक नया माॅडल बिहार में गढ़ा जा रहा है?

स्वाधीन भारत, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार [Universal Adult Franchise] के रास्ते पर चलेगा। बीसवीं सदी की पांचवीं दहाई का उत्तरार्द्ध था, जब हमारे नवस्वाधीन मुल्क ने – जिसकी दस फीसदी से कम आबादी साक्षर थी – एक अनोखे प्रयोग को अंजाम दिया, ऐसा प्रयोग जिसके बारे में पहले सुना नहीं गया था।

आज़ादी के अगुवाओं ने पश्चिमी जगत से आ रही तमाम सलाहों को सिरे से खारिज किया जिसमें कहा जा रहा था कि ‘ .. भारत में जनतंत्र का कोई भविष्य नहीं है’ / चर्चिल/, या ‘एशियाई मुल्कों के लिए राजशाही की व्यवस्था बिल्कुल मौजूं होगी’ / ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमंट एटली नेहरू के साथ बातचीत में, 1949/ । जनाब माधव खोसला, जिन्होंने स्वाधीन भारत की नींव पड़ने के उस दौरान, संविधान निर्माण की प्रक्रिया का विश्लेषण करते हुए किताब लिखी है बताते हैं कि किस तरह इन अग्रणियों ने अपने निर्णायक कदम से  ‘ ..साम्राज्यवादी दलीलों का सीधे प्रतिवाद किया क्योंकि उन्हें इस संभावना पर पूरा यकीन था कि वह जनतांत्रिक राजनीति के जरिए जनतांत्रिक नागरिकों का निर्माण कर सकते हैं। ’ / देखें India’s Founding Moment : The Constitution of a Most Surprising Democracy -Madhav Khosla  /

चाहे नेहरू हों, वल्लभभाई पटेल हों, मौलाना आज़ाद हों या डॉ. अम्बेडकर, इस बात पर जोर देना जरूरी है कि अपने समय के यह सभी अग्रणी नेता – जिन्होंने भारत के लिए एक बेहद समावेशी, भविष्योन्मुखी किस्म का संविधान प्रस्तुत किया – वह सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को लेकर पूरी तरह सहमत थे। आज़ादी के आंदोलन के एक अहम दस्तावेज नेहरू रिपोर्ट में या इस दौरान संविधान के इर्दगिर्द चली चर्चाओं में इसकी झलक मिलती है। संविधान की मसविदा कमेटी के चेयरमैन डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि ‘मताधिकार को सीमित करने का मतलब है जनतंत्र के अर्थ को गलत समझना…..’।

इनमें से कोई भी इस वजह से अपने संकल्प से विचलित नहीं था कि अभी भी कुछ पश्चिमी मुल्क सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार से दूर खड़े थे। मिसाल के तौर पर स्विट्जरलैंड जैसे देश ने वर्ष 1971 में महिलाओं को मताधिकार प्रदान किया।
आज की तारीख़ में उस दौर को याद करना सपना भी लग सकता है क्योंकि संविधान के लागू होने के 75 साल बाद आज हम ऐसी चुनौती से रूबरू हैं जो पहली दफा अविश्वसनीय लगती है क्योंकि ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मौजूदा हुक्मरानों ने बिल्कुल उल्टी दिशा में अपनी यात्रा तेज की है।

आज़ादी के यह कर्णधार बिल्कुल आखिरी व्यक्ति को – जो समाज के बिल्कुल हाशिये पर या कहीं उसके बाहर खड़ा कर दिया गया है – उसे भी देश निर्माण के इस महान काम में, जनतंत्र को स्थापित करने की इस व्यापक मुहिम में भागीदार बनाने को लेकर प्रतिबद्ध थे, जाहिर है उन्होंने जनता के शिक्षा का स्तर देखते हुए भी, उनकी वंचनाओं को करीब से महसूस करने के बावजूद उन्हें इसमें शामिल किया था, सभी वयस्कों के लिए मताधिकार की गारंटी की थी।

इनके बरअक्स मौजूदा कर्णधारों की कोशिश बिल्कुल बहिर्गमन की है, ऐसे तरीकों को ढूंढने की है, ताकि लोगों को अपने मताधिकार से दूर रखा जाए – जिन लोगों ने दशकों से चुनावों में मताधिकार का प्रयोग किया है, उन्हें अपनी पहचान साबित करने के लिए कागज़ के उस टुकड़े को दिखाने को मजबूर करने की है, जो अधिकतर के पास नहीं है।

कितने लोगों के पास दसवीं पास का प्रमाणपत्र होगा, जो कभी स्कूल का मुंह भी नहीं देख पाए या कुछ कक्षा जाने के बाद वहां से छूट गए, कितने लोगों के पास अपने माता-पिता का जन्म प्रमाणपत्र होगा….अब अपने आप को भारत का नागरिक साबित करने की महती जिम्मेदारी राज्य ने खुद नागरिकों के मत्थे डाल दी है और अगर वह ऐसा कोई कागज़ जमा नहीं कर पाए या कागज़ में कोई कमी रह गयी तो उन सभी की नागरिकता को ही खतरे में डाल दिया जाएगा ताकि वह दशकों दशक इसी कवायद में गुजार दें यह साबित करने में कि वह भारत के ही नागरिक रहे हैं, यहीं पैदा हुए है, या उनकी कई-कई पीढ़ियां यहीं जनमी हैं।
आप किसी भी कोण से देखिए भारत के चुनाव आयोग द्वारा बिहार के विधानसभा चुनावों के चंद माह पहले जिस स्पेशल इन्टेंसिव रिवीजन Special Intensive Revision (SIR) का ऐलान किया गया है उसका यही मतलब निकलता है। यह ऐसी कवायद है जो चुनाव आयोग के इतिहास में कभी भी संपन्न नहीं हुई।

याद रहे चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची की सालाना समीक्षा की गयी थी, और जनवरी 2015 में संशोधित मतदाता सूची को जारी किया गया था। अब आयोग द्वारा किए गए इस नए फरमान के चलते यही आकलन किया जा रहा है कि ‘बिहार के कम से कम दो से तीन करोड़ नागरिक’ मताधिकार से वंचित हो सकते हैं।   

https://www.nationalheraldindia.com/politics/tughlaqi-farman-eci-set-on-deleting-20-percent-of-bihars-voters-alleges-congress ; Bihar Electoral Revision Could Disenfranchise Three Crore Voters: ADR Moves Supreme Court, https://www.outlookindia.com/national/bihar-electoral-revision-could-disenfranchise-three-crore-voters-adr-moves-supreme-court ]

दरअसल जिस तरीके से यह समूची योजना लोगों के सामने उजागर हुई तभी से यह स्पष्ट था कि यह बिल्कुल मनमाना निर्णय है, जिसमें पारदर्शिता और व्यावहारिकता को पूर्ण अभाव है, जिसने विपक्षी दलों से भी इस मसले पर सलाह मशविरा करने की जरूरत नहीं समझती है, जो चुनाव की प्रक्रिया का एक अहम हिस्सा हैं।

यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जनवरी, 2025 में जबकि संशोधित मतदाता सूची जारी हुई थी और आने वाले चुनावों की पूरी तैयारी हो गयी थी तो आनन-फानन में जून माह में इसकी सघन समीक्षा करने का निर्णय किसने लिया?

और यह किसके दिमाग की उपज है कि अलग-अलग ग्यारह दस्तावेजों में से एक कागज लोगों को जमा करना होगा, ताकि उनकी नागरिकता की भी समीक्षा हो!

आखिर चुनाव आयोग जिसकी भूमिका जनता के वोट के अधिकार को सुगम करने की है – उसे किस आधार पर नागरिकता की जांच करने की अधिकार सौंपा गया, जो काम ग्रह मंत्रालय का है। निश्चित ही विपक्ष के इन आरोपों में दम है कि दरअसल इस कवायद के जरिए पिछले दरवाजे नेशनल रजिस्टर आफ सिटिजन्स को अमल में लाया जा रहा है।

एक ऐसा राज्य जहां पर सरकारी कर्मचारियों के चार लाख से अधिक पद सालों से खाली पड़े हैं, जहां लगभग बीते बीस साल से कोई नयी भरती नहीं हुई, [https://www.nationalheraldindia.com/politics/tughlaqi-farman-eci-set-on-deleting-20-percent-of-bihars-voters-alleges-congress ;], जहां सरकारी कर्मचारी काम के बोझ से पहले से ही दबे हुए हैं, वह एक माह के अंदर इस पूरी कवायद को कैसे पूरा कर सकेंगे, इसके बारे में भी चुनाव आयोग के महानुभावों ने सोचना जरूरी नहीं समझा।

जैसे कि आंकड़े बताते हैं कि बिहार के मतदाताओं की संख्या आठ करोड़ के करीब है जिन्हें अपने नए फोटोग्राफ के साथ यह फार्म जमा करने होंगे तथा ग्यारह दस्तावेजों में से एक जमा करना होगा ताकि वह साबित कर सकें कि वह इस मुल्क के वास्तविक नागरिक हैं, जाहिर है कि बिहार जैसे राज्य में बहुत कम लोगों के पास ऐसे दस्तावेज होने की बात कही जा रही है, बाकी लोग फिर क्या करेंगे, यह मामला चुनाव आयोग ही तय करेगा।

आयोग के इस मनमाने फैसले की एक बानगी यह भी देखी जा सकती है कि उसने ऐलान किया है कि लोग अपनी पहचान साबित करने के लिए आधार कार्ड नहीं जमा कर सकते है – जो अधिकतर लोगों के पास होता है और न ही राशन कार्ड या लेबर कार्ड दिखा सकते हैं ताकि वह अपनी पहचान साबित कर सकें। (पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय में जब चुनाव आयोग को इस मामले में पहुंचना पड़ा, जब इस विवादास्पद जांच को लेकर कई याचिकाएं डाली गयी थीं, उसके बाद आला अदालत ने कहा यही है कि उसे इस मनमाने तरीके पर पुनर्विचार करना चाहिए और आधार कार्ड तथा राशन कार्ड को भी पहचान साबित करने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए, https://www.deccanherald.com/india/bihar/sc-asks-ec-to-consider-aadhaar-as-valid-document-in-electoral-roll-revision-in-bihar-3624243 हालांकि यह अभी भी साफ नहीं है कि चुनाव आयोग इसको पूरी ईमानदारी से लागू करेगा। 

इस फैसले के बेहद जातिवादी और संभ्रांतवादी स्वरूप को कई आधारों पर जांचा जा सकता है:

            – एक, कहा जा रहा है कि अगर आप नया फॉर्म भर रहे हों तो आप अपना पासपोर्ट भी पहचान के लिए दिखा सकते हैं निस्सन्देह बिहार की बेहद मामूली आबादी के पास / 2.4 फीसदी/ पासपोर्ट है और इनका बहुलांश उंची जातियों का है।
            – दो, यही वह मौसम है जब बिहार का आधा हिस्सा बाढ़ से प्रभावित होता है और यातायात भी प्रभावित होती है। आखिर ब्लॉक स्तरीय अधिकारी किस तरह मतदाताओं की आठ करोड़ आबादी के घर में दो बार जा सकेगा?
           – तीन, सभी अध्ययन यही बताते हैं कि रोजगार के लिए बिहार से बड़ी संख्या में लोग बाहर जाते हैं, [https://timesofindia.indiatimes.com/city/patna/half-of-households-in-bihar-exposed-to-migration-study/articleshow/74141815.cms] वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक बिहार के प्रवासी मजदूरों की यह संख्या करीब अस्सी लाख के करीब पड़ती है, क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि वह महज इस मतदाता सूची में अपने नाम को नए सिरे से डलवाने के लिए बिहार लौट सकेंगे? निश्चित ही यह असंभव है, इसका मतलब यही है कि प्रवासी मजदूरों का अच्छा खासा हिस्सा आधिकारिक तौर पर मतदाता सूची से बाहर हो जाएगा!

जानकार बताते हैं कि इसके पहले मतदाता सूची का व्यापक सर्वेक्षण, 2003 में पूरा हुआ था और उसे अंजाम देने में तथा अंतिम रिपोर्ट जारी करने में दो साल लग गए थे।
 
चुनाव आयोग द्वारा आनन-फानन में उठाया गया यह कदम जिसे ‘नोटबंदी’ की तरह ‘वोटबंदी’ कहा जा रहा है, उसने न केवल तमाम विपक्षी दलों में तथा सिविल सोसायटी संगठनों में बल्कि आम लोगों के बड़े हिस्से में भी व्यापक चिन्ताओं को जन्म दिया है और उन्होंने संकल्प लिया है कि इस ‘तुगलकी फरमान’ के खिलाफ वह एक शांतिपूर्ण जनान्दोलन चलाएंगे।

9 जुलाई को पटना तथा बिहार के कई हिस्सों में आयोजित बंद तथा चक्का जाम के माध्यम से इस मुहिम का आगाज़ भी हो चुका है।

इस बात को मद्देनज़र रखते हुए कि बिहार एक बेहद गरीब राज्य है जहां अभावग्रस्त, वंचित आबादी का बड़ा हिस्सा – जिनका बड़ा भाग सामाजिक और धार्मिक तौर पर हाशिये पर पड़े समुदायों से सम्बधित है, जो किसी तरह अपना गुजारा करता है, वहां मतदाता सूची के गहन पुनरीक्षण की सबसे बड़ी चोट उन्हीं लोगों पर पड़ेगी, जो ऐसा कोई दस्तावेज जमा करने में बिल्कुल असमर्थ होंगे।

जैसा कि उल्लेख किया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय में विपक्षी पार्टियों, सामाजिक संगठनों द्वारा डाली गयी याचिकाओं की सुनवाई के दौरान जिसमें कहा गया था कि इस सिलसिले से लाखों लोग मताधिकार से वंचित कर दिए जाएंगे। [https://www.outlookindia.com/national/bihar-electoral-revision-could-disenfranchise-three-crore-voters-adr-moves-supreme-court ; https://www.thehindu.com/news/national/tmc-mp-mahua-moitra-moves-supreme-court-against-ecs-revision-of-electoral-rolls-in-bihar/article69779604.ece]

चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची की सघन जांच के नाम पर हाथ में लिए गए इस विवादास्पद अभियान के बाद इस मामले में रिपोर्टर्स कलेक्टिव द्वारा जो जांच पड़ताल की गयी है और रिपोर्ट जारी कर दी गयी है वह अधिक विचलित करने वाली है।   [https://www.reporters-collective.in/trc/bihar-electoral-roll-investigation]

 
रिपोर्ट का शीर्षक है ‘ बिहार के 7,80,22933’ विवादास्पद मतदाता’‘ The Disputed 7,80,22,933* Voters of Bihar’ ( * from  the electoral roll finalised in 2025) ‘ इसके मुताबिक
‘ जनवरी 2025 तक बिहार राज्य के चुनावी मतदाता सूची का विस्तृत पुनरीक्षण कर उनको नवीनतम बना दिया गया था। इस सूची को दुरुस्त पाया गया था। .. अचानक चुनाव आयोग ने इस सूची को त्रुटिपूर्ण बताया और खारिज कर दिया और एक ऐसी अभूतपूर्व कवायद का आगाज़ किया ताकि मतदाताओं की शुरू से पूरी समीक्षा की जाए। नतीजा सामने है कि अव्यवस्था / अराजकता का आलम है।

यह रिपोर्ट शुरू होती है पूर्वी चंपारण जिले के मेघुआ गांव के तबरेज आलम से, जिसने चुनाव आयोग के बूथ स्तरीय अधिकारी को आवेदन दिया है कि वह हुसैन शेख का नाम मतदाता सूची से हटा दे क्योंकि जून 2024 में उनकी मृत्यु हो चुकी है। नवम्बर 2024 तक चुनाव आयोग ने तबरेज के आवेदन की जांच पूरी की है और जनवरी 2025 को जारी की गयी नयी सूची में से हुसैन का नाम हटा दिया है।

और अब ‘पांच महीने बाद, 37 साल के तबरेज आलम को चुनाव आयोग के इस ताजे़ फरमान ने मजबूर कर दिया है कि वह साबित करे कि वह अस्तित्व में है, वह भारत का नागरिक है और गांव में ही रहता है तथा बिहार विधानसभा के आगामी चुनावों में वह वोट देने का अधिकारी है।[https://www.reporters-collective.in/trc/bihar-electoral-roll-investigation] 

कोई भी देख सकता है कि चुनाव आयोग के इस ‘तुगलकी फरमान’ [https://www.nationalheraldindia.com/politics/tughlaqi-farman-eci-set-on-deleting-20-percent-of-bihars-voters-alleges-congress] के चलते तबरेज जैसे लाखों लोग जिन्होंने विगत तमाम आम चुनावों में या विधानसभा चुनावों में वोट दिया है उन्हें अब जल्द से जल्द दस्तावेजी प्रमाणपत्रों  के साथ साबित करना पड़ेगा कि उनके पास मताधिकार है। और अगर वह ऐसा नहीं कर सकेंगे तो उन्हें ‘संदिग्ध नागरिकों’ की सूची में डाल दिया जाएगा।   

इस पूरी कवायद पर सत्ताधारी पार्टियों की चुप्पी अकारण नहीं है, जो विपक्षी पार्टियों के इन आरोपों को बल प्रदान करती है कि चुनाव आयोग अब अपनी निष्पक्षता को त्यागता दिख रहा है।

विगत एक दशक से अधिक समय से विपक्षी पार्टियों की तरफ से यह आरोप लगते रहे हैं कि किस तरह जनतंत्र का सुरक्षा कवच समझी जाने वाली संस्थाओं सीबीआई, ईडी / एन्फोर्समेण्ट डायरेक्टोरेट / आदि की स्वायत्तता नष्ट की जा रही है और उनके माध्यम से विपक्ष को ही निशाना बनाया जा रहा है। [https://www.allindiansmatter.in/the-weaponisation-of-central-agencies/, https://www.amnesty.org/en/latest/news/2022/09/india-authorities-must-stop-weaponizing-central-agencies-to-clamp-down-on-civil-society/, https://www.deccanherald.com/opinion/weaponising, और किस तरह कंट्रोलर एण्ड ऑडिटर जनरल जैसी जनतंत्र की प्रहरी संस्थाओं को भी निष्प्रभावी किया जा रहा है।  [https://thewire.in/politics/looking-for-a-lapata-vinod-rai; https://thewire.in/government/bjp-opposition-congress-opposition-institutions ; https://timesofindia.indiatimes.com/india/cag-deliberately-delaying-report-on-rafale-deal-demonetisation-former-bureaucrats/articleshow/66604210.cms] या किस तरह प्रेस और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी हमले तेज हो रहे हैं, [https://www.thehindu.com/news/national/judiciary-and-press-are-the-two-pillars-of-democracy-justice-madan-b-lokur/article69469089.ece] लेकिन हाल के वर्षों में चुनावी प्रक्रियाओं को भी किस तरह पक्षपाती बनाया जा रहा है, यह बात भी होने लगी है।  [https://thewire.in/government/bjp-opposition-congress-opposition-institutions ;]

याद रहे संसदीय चुनावों के ऐन पहले विवादास्पद चुनावी बॉन्ड का मसला सुर्खियों में था, / जिसके जरिए सत्ताधारी पार्टी के खजाने में अकूत दौलत एकत्रित करने का सिलसिला शुरू हुआ था,/ जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने बाद में गैरकानूनी घोषित कर दिया था। याद रहे चुनाव आयोग की निष्पक्षता का मसला उन दिनों भी सुर्खियां बना था, जब पार्टियों के आंतरिक विवादों में आयोग ने पक्षपाती भूमिका निभाने के आरोप लगे थे।

 
विगत साल महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के सम्पन्न होने के बाद फिर एक बार उसकी निष्पक्षता पर नए सवाल खड़े हुए थे। ध्यान रहे मई-जून 2024 में महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव – देश के अन्य राज्यों के साथ सम्पन्न हुए थे, जिसमें भाजपा गठबंधन को काफी कम सीटें मिली थीं और कांग्रेस -शिवसेना उद्धव और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, शरद पवार के गठबंधन को बढ़त मिली थी और यही कयास लगाए जा रहे थे कि यही सिलसिला विधानसभा चुनावों में दोहराया जाएगा, लेकिन हुआ बिल्कुल उल्टा था, अचानक भाजपा की अगुआई वाले गठबंधन को भारी बहुमत मिला और उसने सरकार भी बना ली।


बाद में नतीजों की जांच करने पर कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दलों ने यह पाया कि मई-जून के लोकसभा चुनावों और बमुश्किल छह माह के अंतराल में सम्पन्न विधानसभा चुनवों में कई मतदाता संघों में अचानक वोटों की बढ़ोत्तरी देखी गयी थी। इसे लेकर विपक्ष ने मुंबई में प्रेस कांफ्रेंस भी की, चुनाव आयोग की तरफ से ‘मैच फिक्सिंग’ के आरोप लगे थे, https://indianexpress.com/article/opinion/columns/rahul-gandhi-writes-match-fixing-maharashtra-10052638/  लेकिन इन्हें लेकर अभी तक कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं दिया गया है। राहुल गांधी ने इस मसले पर देश के तमाम अग्रणी अख़बारों में लेख लिख कर उजागर किया था कि किस तरह केन्द्रीय चुनाव आयोग अपनी निष्पक्षता को त्याग रहा है।https://www.nationalheraldindia.com/politics/rahul-gandhi-alleges-election-commission-of-india-deleting-evidence-instead-of-giving-answers]

यह बताने के लिए किसी बड़े विद्वान की आवश्यकता नहीं है कि यह कदम महज बिहार तक सीमित नहीं रहेगा, इसे शेष भारत में भी रफता-रफता फैलाया जाएगा। ख़बरों के मुताबिक बिहार के बाद बंगाल में भी यह सिलसिला शुरू होने वाला है। /https://www.telegraphindia.com/india/ecs-voter-roll-overhaul-set-to-hit-bengal-after-bihar-as-officials-briefed-report-claims/cid/2112260#goog_rewarded/ गौरतलब है कि ऊपरी तौर पर पढ़े लिखे तबके को भी यह कवायद वाजिब लगेगी कि मतदाता सूची की जांच की जा रही है, अवैध नागरिकों को हटाया जा रहा है, मगर हक़ीकत में यह ऐसा तरीका होगा जो महज किसी कागज़ की अनुपस्थिति में नागरिकों के अच्छे खासे हिस्से की नागरिकता को ही संदेह के घेरे में डाल सकता है और ऐसे अनागरिक घोषित किए गए लोग सालों साल यही साबित करने में गुजार देंगे कि वह वैध नागरिक हैं। फौरी तौर पर सत्तासीनों को यह फायदा भी होगा कि नागरिक के तौर उन्हें मिलने वाली तमाम सुविधाओं से – मान लें सस्ता राशन या अन्य सहायता -वंचित किया जाए।

बिहार जिसे ‘दुनिया के पहले जनतंत्रा की भूमि’ के तौर पर इन दिनों नवाज़ा जाता है [https://www.aninews.in/news/national/politics/proud-of-bihar-being-land-of-worlds-first-democracy-says-president-kovind20211022055302/] वह अब आने वाले दिनों में एक ऐसे सूबे के तौर पर जाना जाएगा कि किस तरह लोगों को अपने मताधिकार से वंचित किया जा सकता है, किस तरह चंद लोगों के जनतंत्र को, अभिजातों के अपने लोकतंत्र को आकार दिया जा सकता है।

 
निस्सन्देह, व्यापक आबादी और संविधान की रक्षा करने के लिए खड़े तमाम विपक्षी दलों के साझा प्रयास ऐसे तमाम प्रयासों को नाकाम करने में सक्षम हैं।

बिहार की आम जनता अपने इस नए संघर्ष से पूरे मुल्क को दिखा देगी कि आज़ादी के कर्णधारों ने जनतंत्र की नींव डालने के लिए जिन बातों को अनिवार्य माना था, उस विरासत को वह बचा लेगी और फिर एक बार साबित करेगी कि संघ-भाजपा जैसी जमातें – जिनके पुरखे आज़ादी के आंदोलन से दूर रहे और स्वतंत्रता सेनानियों का साथ देने के बजाय उनके खिलाफ मुखबिरी करते रहे, व्यापक जनता को धर्म के नाम पर बांटते रहे, वह आज़ादी के संघर्ष के वारिस नहीं हैं, बल्कि असली वारिस व्यापक जनता है।
छपते-छपते

विडंबना यही है कि इस कवायद से व्यापक पैमाने पर लोग मताधिकार से वंचित हो जाएंगे’ फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर स्टे आर्डर नहीं दिया। 

ताज़ा ख़बर यह भी आ रही है कि मतदाता की पहचान प्रमाणित करने की इस कवायद में जमीनी स्तर पर चुनाव आयोग के अधिकारी मनमानी करते भी देखे गए हैं। पटना में जहां उसने आधार कार्ड को मतदाता की पहचान माना और उनके फार्म जमा करवाए, वहीं ग्रामीण इलाकों में या सीमांचल जैसे मुस्लिम बहुल जिलों में वह इसे स्वीकारने से इंकार कर रहा है और हजारों लोगों के फार्म खारिज कर दिए गए हैं। www.moneycontrol.com/news/india/bihar-sir-roll-revision-process-shows-rural-urban-divide-aadhaar-accepted-in-patna-not-in-seemanchal-13256370.html ; https://timesofindia.indiatimes.com/india/bihar-sir-aadhaar-accepted-in-patna-not-in-seemanchal/articleshow/122350645.cms 

इस कवायद से मतदाता पुनरीक्षण के असली एजेंडे पर पर्दा हटता दिखता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि इस तरह वह उन मतदाताओं के नाम छांट देगा, जो किसी भी सूरत में भाजपा को वोट नहीं देंगे। लेकिन इस मसले पर चर्चा फिर कभी। 

(सुभाष गाताडे लेखक, अनुवादक, न्यू सोशलिस्ट इनिशिएटिव (एनएसआई) से संबद्ध वामपंथी कार्यकर्ता हैं)

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