बिहार:गौरव से हास्य तक! आखिर हमारी ज़िम्मेदारी क्या है?

बिहार भारत का वह राज्य है, जिसने चाणक्य की राजनीति, बुद्ध की करुणा, अशोक का विस्तार और नालंदा की विद्या परंपरा को जन्म दिया। जिस बिहार की धरती पर दशरथ मांझी जैसा दृढ़ संकल्प और परिश्रमी व्यक्ति का जन्म हुआ। जिस धरती ने गांधी को महात्मा बना दिया। जहां जयप्रकाश नारायण जैसे महान व्यक्ति जन्म लिए। वही बिहार आज ‘मीम’ और ‘मजाक’ का विषय बनता जा रहा है। यह केवल बाहरी नजरिए का असर नहीं है, बल्कि हमारी सामूहिक चेतना की एक चूक भी है। यह लेख बिहार की ऐतिहासिक पहचान, वर्तमान सामाजिक स्थिति और हमारी सोच में आए बदलाव की पड़ताल करता है।

यह प्रयास एक गंभीर प्रश्न उठाता है – “इतिहास में जिसकी पहचान विश्वगुरु रही, क्या वह राज्य आज खुद अपनी पहचान खो रहा है?” बिहार के युवाओं, उसकी शिक्षा व्यवस्था, मीडिया छवि और राजनीतिक संस्कृति को लेकर यह एक बौद्धिक विमर्श है, जो न केवल आलोचना करता है बल्कि आत्ममंथन और समाधान की दिशा भी सुझाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह पहचान की उस लड़ाई की तरफ इशारा करता है, जो आज का हर संवेदनशील बिहारी युवा अपने भीतर लड़ रहा है।

बात शुरू होती है दो पत्रकारिता छात्रों – अभय और हर्ष – की बातचीत से, जो महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के केंद्रीय पुस्तकालय में बैठकर चर्चा करते हैं। अभय सवाल उठाता है कि बिहार जैसा ऐतिहासिक राज्य, जहां से चाणक्य, बुद्ध और अशोक जैसे नाम निकले, आज लोगों के लिए मज़ाक का विषय कैसे बन गया?

हर्ष इस पर सहमति जताते हुए कहता है कि यह स्थिति केवल बाहरी लोगों की बनाई हुई नहीं है, बल्कि हम खुद भी इसके ज़िम्मेदार हैं। बिहार का अतीत जितना भव्य था, उतना ही हमारा वर्तमान अव्यवस्थित हो गया। हमने उस अतीत को केवल ‘शान’ समझा, ‘दिशा’ नहीं। उसे सहेजने की बजाय केवल गौरवगाथा में गाया गया, पर वर्तमान में उतारने की कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई।

हर्ष उदाहरण के तौर पर नालंदा विश्वविद्यालय की चर्चा करता है, जो कभी दुनिया का सबसे बड़ा शिक्षा केंद्र था। आज भी लाखों छात्र बिहार से बाहर पढ़ने जाते हैं, क्योंकि राज्य में शिक्षा की वह गुणवत्ता नहीं है। जो प्रयास – जैसे नालंदा विश्वविद्यालय का पुनर्निर्माण – हुए भी, वे प्रतीकात्मक रह गए हैं। जमीनी स्तर पर उनका असर लगभग न के बराबर है।

इतिहास को जीवित रखने के लिए शिक्षा और लोक चेतना सबसे प्रभावशाली माध्यम हैं, पर बिहार के स्कूलों और पाठ्यक्रमों में अपने इतिहास की गहराई गायब है। अशोक की तुलना में ब्रिटिश इतिहास ज्यादा पढ़ाया जाता है। यही कारण है कि युवा अपने अतीत से कटता जा रहा है। जब वह दिल्ली या मुंबई जाकर ‘बिहारी’ कहे जाने पर मजाक का पात्र बनता है, तो वह खुद भी उस पहचान से कतराने लगता है।

मीडिया और सिनेमा ने इस छवि को और गहरा किया है। बिहारी किरदारों को या तो मजाकिया दिखाया जाता है या आपराधिक। गानों और फिल्मों में बिहारी पहचान को उपहास का विषय बना दिया गया है। राजनीति भी इस हास्य को संस्थागत करती दिखती है – नेता खुद को हास्य पात्र की तरह प्रस्तुत करते हैं। न बोलने का ढंग है , न विचार और बातचीत करने का लहज़ा तो दबंगई है।  जनता भी उन्हें ‘मनोरंजन’ के रूप में स्वीकार कर चुकी है। यह मानसिकता खतरनाक है।

चिंता की बात यह भी है कि खुद बिहार के लोग अपने राज्य का मज़ाक उड़ाने लगे हैं। यह आत्म-हास्य धीरे-धीरे आत्म-हीनता में बदलता जा रहा है। आत्म-हास्य तब तक ठीक है जब तक उसमें आत्म-गौरव छिपा हो, लेकिन जब वही मजाक खुद को नीचा दिखाने लगे, तब वह पहचान की लड़ाई हारने जैसा होता है।

बिहारी बोली, गँवई अंदाज़ और भोजपुरी लहज़ा अब हास्य का पर्याय बना दिए गए हैं। मीडिया इसमें अहम भूमिका निभा रहा है। टेलीविजन शोज़ और फिल्मों में बिहारी किरदार या तो कॉमिक रिलीफ होते हैं या अपराधी। अच्छे उदाहरण – जैसे IAS अधिकारी, वैज्ञानिक, लेखक – किसी सशक्त प्रतिनिधित्व से वंचित हैं।

असल में, बिहार की सफलता की कहानियाँ मौजूद हैं, पर उन्हें बिहारी पहचान से जोड़ा नहीं गया है। भोजपुरी फिल्म उद्योग ने भी शायद ही कभी बिहार के महान व्यक्तित्वों या रोचक कहानियों पर फिल्म बनाई हो। फिल्मों में दबंगई और गुंडागर्दी की छवि ने असल पहचान को धूमिल कर दिया है।

ऐसे में सवाल उठता है – “हम बिहारियों को खुद को कैसे देखना चाहिए?” इसका उत्तर है – अपनी पहचान को फिर से परिभाषित करना।

पहला कदम होगा – स्थानीय नायकों को सामने लाना।

दूसरा – स्कूल पाठ्यक्रमों में बिहार के वास्तविक इतिहास और संस्कृति को जोड़ना।

तीसरा – मीडिया में सकारात्मक छवि को प्रोत्साहित करना।

और चौथा – युवाओं को  यह समझना होगा कि बिहार में फिल्मों और गानों से उनका परिचय देश दुनिया किस तरह से किया जा रहा है। 

आज जरूरत है “करियर कोचिंग” के साथ-साथ “कल्चर कोचिंग” की। ताकि अगली बार जब कोई पूछे – “बिहारी हो क्या?” – तो जवाब हो – “हाँ, और गर्व से!”

यह सिर्फ एक वाक्य नहीं, बल्कि नई चेतना का घोष है। बिहार की धरती तप, त्याग, बलिदान और आंदोलनों की रही है। आज उसी धरती के लोग अपने ही इतिहास को भूलते जा रहे हैं। समय आ गया है जब बिहार को फिर से उसका आत्मगौरव लौटाया जाए – मज़ाक से गर्व तक की यह यात्रा हर युवा बिहारी को खुद तय करनी होगी।

2025 का अंत आते-आते बिहार एक बार फिर चुनावी रंग में रंगने वाला  है। पर इस बार राजनीति के रंग कुछ अजीब हैं – यह लोकतंत्र का उत्सव कम और एक मनोरंजन कार्यक्रम ज़्यादा लग रहा है। जहाँ एक ओर जनता महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी समस्याओं से जूझ रही है, वहीं दूसरी ओर हमारे नेता मंचों पर ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जैसे वे जनता के प्रतिनिधि नहीं, किसी हास्य नाटक के पात्र हों। कभी कोई नेता अफसर के सिर पर पौधे का गमला रख देता है तो कभी मंच पर भांगड़ा हो रहा है। कहीं किसी नेता के साथ फिल्मी नाच-गाना चल रहा है तो कहीं भाषण में शब्दों की मर्यादा तार-तार हो रही है। यह सब देख कर मन में एक ही प्रश्न उठता है- क्या यही है बिहार की छवि? जिसे हम स्वीकार कर गर्व कर सकते हैं।

(प्रियांशु कुमार वर्धा स्थित महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के छात्र हैं।)

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