Saturday, April 27, 2024

साझे सपनों का दस्तावेज़ भारतीय संविधान

‘भारतीय संविधान सिर्फ एक कागज का दस्तावेज़ नहीं है यह एक नागरिक दस्तावेज़ है इसकी हिफाजत करना हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है।’

इधर कुछ वर्षों से कतिपय नागरिकों के बीच में संविधान के रचनाकारों की और इस नागरिक दस्तावेज़ की आलोचना करना एक सामान्य नजरिया सा बनता जा रहा है यह नागरिक दस्तावेज़ हमारी तमाम साझा कुर्बानियों का नतीजा है जिसने आजाद भारत के पुर्निर्माण की बुनियाद रखी। संविधान की आलोचना करने वाले इस तरह के लोगों को लगता है कि 1950 के बाद देश में जिस तरह की घटनाएं घट रही हैं उन्हें देखते हुए इस संविधान को बदल दिया जाना चाहिए। इन लोगों का कहना है कि यह संविधान विफल हो गया है।

इस तरह की बातें देश की दो प्रमुख विचाधाराओं के कुछ तबको में बहस का विषय है इसमें कुछ वाम के घटक हैं और दक्षिणपंथ का तो नजरिया सभी को पता ही है। इस बहुलतावादी देश में मुझे इस तरह की सोच बहुत डरावनी लगती है। मुझे लगता है कि इस तरह के सभी विचार भ्रामक सोच वाले हैं क्योंकि अपने बल पर संविधान कभी सफल नहीं होते। कोई भी संविधान स्वयं में निष्क्रिय ही होता है उसे सफल बनाने के लिए नागरिकों तथा निर्वाचित नेताओं को श्रम करना पड़ता है। इस घटनाक्रम में दिल्ली में कुछ तथाकथित संगठनों ने संविधान की प्रतियां जलाने का काम किया। यह घटनाएं हर वर्ष समय-समय पर दोहराई जाती हैं।

इस सन्दर्भ में ग्रेनविल ऑस्टिन की पुस्तक ‘भारतीय संविधान राष्ट्र की आधारशिला’ बहुत महत्वपूर्ण है जिसको पढ़ा जाना चाहिए। इस पुस्तक का प्रकाशन हिंदी में राष्ट्रीय अनुवाद मिशन के साथ मिलकर हिंदी के प्रमुख प्रकाशक वाणी प्रकाशन ने किया हैं। अंग्रेजी में यह पुस्तक The Indian  Constitution: Cornerstone of a Nation के नाम से ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित है। इस तरह ग्रेनविल ऑस्टिन की इस रचना में ‘भारतीय संविधान राष्ट्र की आधारशिला’ ने भारत में संवैधानिक अध्ययन की धारा को एक नया परिप्रेक्ष्य प्रदान किया है।

वर्तमान बहुसंख्यकवाद के खतरे और बहुलतावाद का रक्षक संविधान

देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और पहले कानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर। (फाइल फोटो)

इस संदर्भ में इतिहास का रूख करते हुये यदि संविधान निर्माण की पूरी प्रक्रिया को देखें तो दरअसल देश के बदलते हालात हर ऐसे व्यक्ति की चिंता का मसला बने हैं जो आज भी बहुलता जनतंत्र समानता पर यकीन करता है और धर्म तथा राजनीति के बीच स्पष्ट सीमा रेखा खींचने की बात करता है। व्यक्ति के अधिकार की हिमायत में खड़ा है जो बात कानून की किताबों में भी दर्ज है। जो एक खुले समाज में कानून के राज की बात जीवन के हर क्षेत्र में करता है तथा जो सभी लोगों के मानवाधिकार नागरिक आजादी नागरिक अधिकार और राजनीतिक आजादी के लिए प्रतिबद्ध है।

जिस तरीके से आज लोगों को असहमति रखने के चलते प्रताड़ित किया जा रहा है। अपने पसंद का भोजन खाने अपना जीवनसाथी चुनने या अपनी आस्था के हिसाब से उत्सव मनाने के रास्ते में जिस तरह बाधाएं खड़ी की जा रही हैं वह अभूतपूर्व है। स्थितियां ऐसी बनती दिख रही हैं कि अगर आप किसी विशेष समुदाय या अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित हों या किसी ऐसी गतिविधि में शामिल हैं। जिसको बहुसंखयक समाज द्वारा या यो कहें की भीड़ द्वारा अवैध घोषित किया जाए तो सार्वजनिक तौर पर आप हिंसक घटनाओं का भी शिकार हो सकते हैं और कानून व्यवस्था के रखवाले मूकदर्शक बने रह सकते हैं।

इस तरह से देखने पर तो यह लग सकता है कि संविधान के बुनियादी ढांचे पर कोई सीधी चोट नहीं की जा रही है और उसका औपचारिक ढांचा बरकरार है। कानूनी तौर पर तकनीकी रूप से देखें तो भारत आज भी जनतांत्रिक गणतंत्र बना हुआ है। मगर हकीकत यही दिख रही है कि जनतंत्र बहुसंख्यक तंत्र में तब्दील हो रहा है। इस तरह से एक गणतंत्र की बुनियादी शर्त कि उसके नागरिक सर्वोपरि हैं संविधान और संविधानवाद की इस बात को तेजी से कमजोर करने का प्रयास तेजी से किया जा रहा है। इस तरह से इस बहुलतावादी संविधान और संविधानवाद के कमजोर होने का मतलब है तार्किक नागरिक समाज का कमजोर होना।

संविधान सभा की बैठक। (फाइल फोटो)

इस तरह से एक देश की अधिकतम जनसंख्या को आप अतार्किक भीड़ में तब्दील होते हुये देख सकते हैं। इस तरह से देखा जा सकता है कि भारतीय समाज और राजनीति के केंद्र में हिंदुत्ववादी ताकतों के उभार के साथ इस प्रक्रिया में जबरदस्त तेजी आ रही है। भारतीय संविधान के निर्माता इस बहुसंख्यकवाद के उभार और उसके प्रभुत्ववादी विचार को ठीक से बखूबी समझते थे। इस तरह से भारत की राजनीतिक आजादी और सामाजिक मुक्ति के अग्रणी जननेता, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ एक व्यापक जन आंदोलन को विकसित किया था। बहुसंख्यकवाद के खतरे की इस बात को जवाहर लाल नेहरू की इस बात से इस तरह से समझ सकते हैं कि खतरा कितना व्यापक था।

टूवर्ड्स फ्रीडम द ऑटो बायोग्राफी ऑफ जवाहरलाल नेहरू में वो लिखते हैं कि भारत और अन्य स्थानों पर जिसे धर्म कहा जाता है कम से कम जिसे संगठित धर्म कहा जाता है उसके तमाशे ने मुझे हमेशा आतंकित किया है और मैंने उसकी बार-बार भर्त्सना की है और उससे मुक्ति की बात की है। लगभग हमेशा ही उसने वहम और प्रतिक्रिया, हठधर्मिता और कट्टरता, अंधश्रद्धा, शोषण और निहित स्वार्थी हितों को बचाए रखने की हिमायत की है। (टूवर्ड्स फ्रीडम द ऑटो बायोग्राफी ऑफ जवाहरलाल नेहरू। 1936 पेज 240-41)। इस तरह से इस आने वाले खतरे से आजादी के आंदोलन के नेता सचेत थे और उन्होंने लोगों से आगाह किया था कि किस तरह का अंधकारमय भविष्य उनके सामने खड़ा है, अगर वह सचेत नहीं रहे।

इस बहुसंख्यकवाद का खतरा कितना व्यापक हो सकता है इस बात के संदर्भ में राजमोहन गांधी लिखते हैं कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और पटेल ने यह तय किया था कि भारत हिंदू राष्ट्र नहीं बनेगा बल्कि ऐसा देश बनेगा जहां सभी धर्मों और समुदायों के लिए समान अधिकार हासिल होंगे। आज वर्तमान में जिस तरह से उत्तर पूर्व के प्रदेशों में एनआरसी लागू करने के बाद पूरे देश में इसे लागू करने की बात की जा रही है यह वही खतरा है जिसको लेकर महतमा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्ल्भभाई पटेल और डॉ. अंबेडकर की चिंताए थीं।

इस संदर्भ में एक बहुत ही महत्व की बात यह भी है जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि महात्मा गांधी के देहांत के बाद और सरदार वल्ल्भभाई पटेल की मृत्यु तक पटेल और नेहरू के बीच भले ही कई मसलों पर मतभेद उभरे हों, लेकिन देश की एकता, अखंडता और देश की सबसे बड़ी ताकत धर्मनिरपेक्षता जैसे बुनियादी विचारों पर उनकी एकता बनी रही। इस तरह से संविधान निर्माण के समय कई अन्य नेताओं जिनमें डॉ. भीमराव अंबेडकर, मौलाना आजाद, राजेंद्र प्रसाद, राजाजी आदि शामिल थे इन सबकी सहायता से संविधान में धर्मनिरपेक्षता और समानता के विचार और दर्शन को स्थापित करने में सफलता मिल सकी।

आजाद भारत के संविधान पर दस्तखत करते राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद। (फाइल फोटो)

इस तरह से भारत का यह संविधान कई साझा सपनों का विचार है जो कई प्रकार की साझा कुर्बानियों के बाद अस्तित्व में आया है। यह भारत की साझा विरासत का एक दस्तावेज़ है जो भारत की आत्मा है। इस तरह से इस साझा सपने और इन सभी के मौजूदा सामूहिक चिंतन की झलक उस ‘ऑब्जेक्टिव रेजोल्यूशन” में मिलती है जिसको संविधान सभा के सामने 13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने पेश किया था तथा 22 जनवरी 1947 को जिसे संविधान सभा ने सर्वसम्मति से स्वीकारा था। इस तरह से इसमें इस बात पर बल दिया गया था की भारत को स्वाधीन, संप्रभु गणतंत्र बनाया जाएगा। 

इस तरह से भारत के संविधान का यह संकल्प भारत के लोगों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, अवसरों और ओहदे की समानता और कानून के समक्ष बराबरी और बुनियादी आजादी, अभिव्यक्ति की आस्था की, पूजा की, व्यवसाय, संगठन की और कार्रवाई की बातों को सुनिश्चित करने की बात थी, कानून के दायरे के अंतर्गत हो।

सार्वजनिक नैतिकता के मापदंडों के अनुकूल हो और इसके अतिरिक्त यह भी सुनिश्चित किया जाना था कि अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और आदिवासी अंचलों के लिए और वंचित तथा अन्य पिछड़े वर्गों के लिए उचित सुरक्षा प्रावधान बनाए जाएंगे इस तरह से ऑब्जेक्टिव रेजोल्यूशन जिसे उन दिनों संविधान के लक्ष्य और उद्देश्यों को लेकर प्रस्ताव में कहा गया था की अहमियत को इस तथ्य से जाना जा सकता है कि स्वयं संविधान की मसविदा कमेटी के मुताबिक वह संविधान के प्राक्कथन/प्रियम्बल का आधार है। इस संदर्भ में याद करने वाली बात है कि तमाम मत मतांतरों के बाद मसविदा कमेटी के चेयरमैन डॉ. भीमराव अंबेडकर थे जिन्हें महात्मा गांधी के सुझाव पर यह पद सौंपा गया था।

इस तरह से संविधान सभा पहली बार दिल्ली में नौ दिसंबर 1946 को कांस्टीट्यूशनल हाल में बैठी जिसे अब संसद का सेंट्रल हॉल कहा जाता है। संविधान सभा को संविधान का मसौदा तैयार करने में लगभग तीन साल लगे इस अंतराल में उसने 11 सत्र आयोजित किए जिसमें 165 दिन लगे। 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा ने डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में एक मसौदा कमेटी बनाई 26 नवंबर 1949 को संविधान के मसविदे को अपनाया गया और इस पर 284 सदस्यों ने दस्तखत किए।

भारतीय संविधान के निर्माता की छवि और डॉ. अंबेडकर

क्या अंबेडकर ने खुद को कभी भारतीय संविधान का निर्माता बताया? इस सन्दर्भ में इस पर भी बात करना आज के दौर में जरूरी हो गया है, क्योंकि अंबेडकर को इसके लिए अक्सर ही आलोचना का पात्र बनना पड़ता हैं सिर्फ आलोचना ही नहीं गाली तक दी जाती है, क्योंकि अंबेडकर ने जो सपना समावेशी भारत का देखा था, जिसमें समाज के कमजोर वर्गों को न्याय जिसमें दलित, महिलाएं, अल्पसंख्यक, और सभी समुदायों के वंचित और उत्पीड़ितजन शामिल किये जा सकते हैं साथ ही अंबेडकर के साथ उन लोगों की भूमिका को भी याद करना जरूरी है, जिन्होंने अंबेडकर को इतना महत्वपूर्ण कार्य और जिम्मेदारी सौंपी थी। जिसमें अंबेडकर के साथ ही गांधी,  नेहरू  को भी उतनी ही गाली और आलोचना मिलती है।

आलोचना की इस दौड़ में कभी–कभी दलित समूह भी दिख जाते हैं जिनको इस संविधान ने एक सपना दिया। यह सपना है एक नागरिक होने का। क्या ये लोग एक दूसरे के बिना संविधान निर्माण का कार्य कर सकते थे। इस सन्दर्भ में इतिहास के कुछ पन्नों पर भी एक संक्षिप्त नजर डाली जा सकती है।

डॉ. अंबेडकर ने खुद को भारतीय संविधान का जनक या निर्माता कभी नहीं बताया। इसके उलट उन्होंने शायद कभी यह भी कहा था कि उनका वश चलता तो ऐसा संविधान वे बनने ही न देते।  इसके साथ ही भारतीय लोकतंत्र के विषय में डॉ. अंबेडकर के वे शब्द याद आते हैं, जो उन्होंने भारत का संविधान प्रस्तुत करते हुए संसद में कहे थे, ‘जनवरी की 26 तारीख को हम अंतर्विरोधों के युग में प्रवेश करेंगे। राजनीति में समता और सामाजिक-आर्थिक जीवन में विषमता होगी।

राजनीति में हम एक व्यक्ति की कीमत एक वोट के आधार पर आंकेगे, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जगत में विषमतामूलक संरचनाओं के कारण हम एक व्यक्ति-एक मूल्य के उसूल को नकारना जारी रखेंगे। अंतर्विरोधों की इस गिरफ्त में हम कब तक फंसे रहेंगे? सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में हम समता को कब तक ठुकराते रहेंगे? अगर हमने लंबे अरसे तक समता को अस्वीकार करना जारी रखा तो इसका नतीजा हमारे राजनीतिक लेकतंत्र के संकटग्रस्त होने में ही निकलेगा।’ (कांस्टीटुएंट एसेंबली डिबेट खण्ड दस)।

इस प्रकार डॉ. अंबेडकर सामाजिक एवं आर्थिक अन्याय से मुक्त समाज की स्थापना करना चाहते थे, जिसका जरिया उनके अनुसार, सांस्कृतिक क्रांति ही थी। उन्होंने क्रांतिकारी परिवर्तनों की राह पर चल कर स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व के आदर्शों की प्राप्ति करनी चाही। उन्होंने बहिष्कृत जनों को शिक्षित एवं संगठित हो कर आंदोलन की राह पर चलने का आह्नान किया। डॉ. अंबेडकर ने दलितों की मुक्ति का जो सपना देखा था वह बावजूद तमाम सारे सामाजिक, राजनीतिक, दलित आंदोलन के अभी भी अधूरा है। तब क्या यह जान लेना प्रासंगिक न होगा कि इस मामले में उनकी असल भूमिका क्या थी?

संविधान निर्माण के लिए जो सभा निर्वाचित की गई थी उसमें तीन-चौथाई का प्रचंड बहुमत देकर लोगों ने कांग्रेस पार्टी को संविधान बनाने का एकाधिकार सौंप दिया था। यद्यपि संविधान सभा में अन्य दलों के कुछेक सदस्य अवश्य थे, किन्तु अंबेडकर के ‘डिप्रेस्ड क्लास फेडरेशन’ का एक भी उम्मीदवार चुनाव नहीं जीत पाया था। अंबेडकर खुद भी कभी कांग्रेस से जुड़े न थे। फिर भी 15 अगस्त 1947 को भारत जब आज़ाद हुआ तो गांधी जी की सलाह पर नेहरू और पटेल उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल करने पर राजी हो गए।

डॉ. अंबेडकर आजाद भारत के पहले कानून मंत्री बने। और जब उन्हें कानून विभाग सौंपा गया, तब यह भी लाजिमी बन गया कि उन्हें संविधान प्रारूप समिति (कांस्टीट्यूशन ड्राफ्टिंग कमेटी) का पदेन अध्यक्ष (एक्सऑफ़िशियो चेयरमैन) भी बनाया जाए, क्योंकि किसी सरकारी विधेयक को सदन में पेश करने तथा बहस के दौरान सुचारू रूप से उसका संचालन करने का दायित्व विभागीय मंत्री का ही होता है।

इस स्थल पर जिन दो महत्त्वपूर्ण तथ्यों का ध्यान रखना आवश्यक है, वे यह हैं कि संविधान सभा की स्थापना ब्रिटिश सरकार द्वारा आज़ादी के लगभग नौ महीने पहले नौ दिसम्बर 1946 को ही कर दी गई थी, जबकि ड्राफ्टिंग कमेटी, जिसके अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर थे, उसका गठन आज़ादी के लगभग एक पखवाड़े बाद 29 अगस्त 1947 के दिन हुआ था। दूसरी बात यह कि कांग्रेस पार्टी के नेता भावी संविधान का उद्देश्य-प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा के प्रारंभिक सत्र में दिनांक 20 जनवरी 1947 को ही साफ़ तौर पर वह चौहद्दी खींच दी थी, जिसके अंदर सारे संवैधानिक प्रावधानों का समावेश होना था।

उस दिन अपने अभिभाषण में जवाहर लाल नेहरू ने जिन आधारभूत बातों का उल्लेख किया था, उन्हीं की स्पष्ट अनुगूंज आप अपने संविधान के प्रीएम्बुल (प्रस्तावना) में सुनेंगे। लोकतांत्रिक गणराज्य, व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता, अवसर की समानता, सामाजिक न्याय, उपेक्षित वर्ग तथा अल्पसंख्यक हितों की रक्षा, नागरिकों के मौलिक अधिकार आदि। जवाहरलाल नेहरू का वह उत्त्प्रेरक संबोधन सचमुच सुनने लायक था। कांग्रेस अपने-आप में विविध विचारधाराओं का एक साझा राष्ट्रीय मंच था, जिसमें सब तरह के लोग समाए थे। घोर परंपरावादी, व्याकुल वामपंथी, संयत मध्यमार्गी।

गंभीर बहस-मुबाहिसे के बाद ही 26 जनवरी 1947 को, हलके-फुल्के संशोधनों के साथ, नेहरू का उद्देश्य-प्रस्ताव पारित हो पाया, जिसके सार-तत्त्व कालांतर में विभिन्न संवैधानिक धाराओं के सुविचारित प्रावधान बन गए। याद रहे, संविधान सभा में जब उदेश्य-प्रस्ताव पेश और पारित हुआ था, तब जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्त्व में अंतरिम सरकार कार्यरत थी, जिसमें अंबेडकर शामिल नहीं थे। यह आज़ादी से महीनों पहले की बात है।

अपने कार्यकाल के प्रारंभिक दिनों में संविधान सभा ने जो कार्यविधि अपनाई थी, उसके अनुसार भिन्न-भिन्न विषयों जैसे न्यायपालिका, विधायिका तथा कार्यपालिका के स्वरूप और अधिकार, केंद्र और राज्य सरकारों के पारस्परिक संबंध तथा उनके अधिकार-क्षेत्र, दलित एवं अल्पसंख्यक समुदाय के हितों की रक्षा, नागरिकों के मौलिक अधिकार आदि उन सब पर सम्यक विचार तथा अनुशंसा के लिए पृथक-पृथक समितियां गठित कर दी गई थीं।

उन समितियों में किसी के अध्यक्ष राजेंद्र बाबू, किसी के नेहरू तो किसी के पटेल अथवा कृपलानी जैसे विशिष्ट लोग थे। कालांतर में जब ड्राफ्टिंग कमेटी बनी तो उन समितियों के प्रतिवेदन (रिपोर्ट) एक-एक कर उसके पास पहुंचते गए। वे सारे संकलित प्रस्ताव विधेयक के रूप में कानून मंत्री द्वारा क्रमानुसार सदन के पटल पर विचारार्थ रखे जाते।

ज्ञातव्य है कि ड्राफ्टिंग कमेटी में कानून मंत्री डॉ. अंबेडकर के अलावा दो और विख्यात विधिवेत्ता शामिल थे, एक थे अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर तथा दूसरे  कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी। तथापि, क्रियात्मक आउट तकनीकी रूप से ड्राफ्ट तैयार करने का असल भार सरकार के जिन दो वरिष्ठ पदाधिकारियों को सौंपा गया था, उनके नाम थे बेनेगल नरसिंह राव तथा एसएन मुखर्जी।

उन दोनों की कैफियत यह थी कि राव साहब वाइसराय लार्ड वावेल तथा लार्ड माउंटबेटन के संवैधानिक सलाहकार रह चुके थे और उन्हें रूस, अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड आदि संसार के प्रमुख देशों के संविधान तथा संसदीय प्रणाली का गहरा ज्ञान था, जबकि मुख़र्जी महाशय भारत सरकार के लॉ-डिपार्टमेंट में चीफ ड्राफ्ट्समैन थे। उनका कमाल यह था कि जटिल से जटिल प्रस्ताव को ऐसी कसी हुई कानूनी शब्दावली में पिरो देते कि उसका अर्थ निर्माता-सभासदों की मंशा से छिटक कर दूर न भाग सके।

दरअसल, ड्राफ्टिंग कमेटी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काम था भी वही। इस तरह से संविधान सभा केवल हाथ उठाने वाले या बैठ कर सोने वालों या शोर मचाने वाले लोगों का समूह नहीं था, बल्कि अपने समय के एक से एक काबिल लोग शामिल थे, जिनमें मुख्य  रूप से चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, शरत चन्द्र बोस, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, राजर्षि टंडन, पट्टाभि सीतारम्मैया, गोविन्द बल्लभ पंत, शेख अब्दुल्लाह, आसफ अली, फ़िरोज़ गांधी, मीनू मसानी, कैलाशनाथ काटजू, केटी साह, के संथानम, एचवी कामथ।

वैसे में स्वाभाविक था कि समितियों या सदन में मुद्दों पर प्रबुद्ध और प्राणवान बहस हुआ करे। तभी तो बहस के दौरान हजारों संशोधन पेश हुए थे, जिनमें सैकड़ों आंशिक अथवा पूर्णरूप स्वीकार भी किए गए। संविधान सभा के अध्यक्ष के नाते डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सदन के प्रारंभिक सत्रों में ही कार्य संचालन की सर्वांगीण नियमावली अपनी देख-रेख में बनवा दी थी। लगभग तीन साल के अपने कार्यकाल में संविधान सभा ने उन नियमों का कभी उल्लंघन नहीं किया। सब कुछ विधिवत चलता रहा। इसके लिए संविधान सभा की बहसों को देखा और अध्ययन किया जा सकता है।

संविधान, संविधानवाद, और संवैधानिक नैतिकता का प्रश्न

संविधान के निर्माण की प्रक्रिया अपने आप में जटिल थी, जिसमें तरह-तरह के विचारों वाले हित वाले दबाव समहों को मद्देनजर रखना था। इस तरह से संविधान के रूप में जो दस्तावेज हमारे सामने आया वह एक तरह से विभिन्न शक्तियों एवं विचारों की आपसी टकराव के बीच उभरे समझौता दस्तावेज के तौर पर देखा जा सकता है।

संविधान को देश को सौंपते वक्त एक व्यक्ति और एक वोट वाले संसदीय लोकतंत्र वाली व्यवस्था के साथ भारत में राजनीतिक जनतंत्र की शुरुआत की बात और एक व्यक्ति और एक मूल्य वाले सामाजिक जनतंत्र की दिशा में उन्मुख होने के बीच अंतराल को लेकर डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा की गई भविष्यवाणी के माध्यम से एक तरह से इसी तथ्य को रेखांकित किया गया था कि अभी भी यह संघर्ष पूरा नहीं हुआ है।

भारत जैसे पिछड़े समाज में संविधान निर्माण की कोशिशों की सीमाओं के बारे में डॉ. अंबेडकर सचेत थे। डॉ. अंबेडकर के अनुसार भारतीय लोग आज इन दो किस्म की विचारधाराओं से संचालित होते दिखते हैं। उनका राजनीति का आदर्श संविधान के प्राक्कथन से निर्धारित होता है जो स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की जीवन की हिमायत करता है। जबकि उनका सामाजिक आदर्श धर्म के साथ नत्थी है, जो उन्हें उससे इनकार करता है। इस तरह से संविधान सभा में बहसों और चर्चाओं के दौरान डॉ. अंबेडकर ने संवैधानिक नैतिकता पर जोर दिया था।

संविधान का मसौदा पेश करते हुए चार नवंबर 1948 को डॉ. अंबेडकर ने ग्रीस के विद्वान ग्रोट को उद्वत करते हुए कहा, ‘संवैधानिक नैतिकता न केवल समुदाय विशेष के बहुमत में बल्कि पूरे लोगों में वह, स्वाधीन और शांतिपूर्ण सरकार चलाने की अनिवार्य शर्त है, क्योंकि कोई भी सशक्त और अड़ियल बहुमत जो खुद भले ही वरीयता हासिल न कर सके, किसी स्वाधीन संस्था के संचालन को अव्यावहारिक बना सकता है।’

डॉ. अंबेडकर ने ग्रोट के हवाले से इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘जबकि हर कोई जनतांत्रिक संविधान के शांतिपूर्ण संचालन के लिए संवैधानिक नैतिकता के प्रचार/फैलाव की जरूरत स्वीकारता है। इसके साथ जुड़ी तो ऐसी चीजें हैं, जिन्हें दुर्भाग्य से आमतौर पर स्वीकार नहीं किया जाता। एक है प्रशासन का रूप भी संविधान के अनुकूल हो और दूसरे, यह बिल्कुल मुमकिन है कि उसके रूप के साथ छेड़छाड़ किए बिना महज प्रशासन का रूप बदलकर संविधान को तोड़ा-मरोड़ा जाए और उसे संविधान की भावना से असंगत और प्रतिकूल बनाया जाए।’

भारत की वर्तमान राजनीतिक गतिविधियों और सरकारों की कार्यप्रालियों में इस बात को देखा जि सकता है जब सरकारे संविधान की आड़ लेकर जन विरोधी कार्यों में लगी हैं।

आगे डॉ. अंबेडकर ने भारत के संवैधानिक नैतिकता की भावना को विकसित करने की संभावना पर भी गौर किया। उनका कहना था कि क्या हम अनुमान लगा सकते हैं कि ऐसी संवैधानिक नैतिकता का प्रसार/फैलाव हो सकेगा। संवैधानिक नैतिकता कोई स्वाभाविक भावना नहीं होती। उसे विकसित पल्लवित करना पड़ता है। हमें इसका एहसास करना पड़ेगा कि हमारे लोगों को उसे अभी भी सीखना है। भारत में जनतंत्र सार के रूप में गैर-जनतांत्रिक भारतीय जमीन का ऊपरी आवरणमात्र है।

डॉ. अंबेडकर को इस बात का अनुमान था कि संवैधानिक नैतिकता के अभाव में यहां जनतंत्र चरमरा सकता है, धराशायी हो सकता है। ऐसे लोग ऐसी ताकतें हुकूमत की बागडोर संभाल सकती हैं, जो संविधान के मूल्यों एवं सिद्धांतों के खिलाफ खड़ी हों।

इस तरह से डॉ. अंबेडकर संविधान निर्माण की मसविदा समिति के चेयरमैन थे और उनके द्वारा समय-समय पर किए गए हस्तक्षेप, जिनके लिए नेहरू तथा संविधान सभा के अन्य प्रगतिशील सदस्यों का समर्थन हासिल था। इन सबने ही तमाम जनपक्षीय की और वंचितोन्मुखी प्रावधानों को संविधान में शामिल होना सुगम बनाया, लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि अंततः उनकी भविष्य दृष्टि विजन या उनका नजरिया ही हावी हुआ तथा वह संविधान में अंतिम रूप से अंकित हुआ।

संविधान के रूप में जो दस्तावेज हमारे सामने आया जो इस मामले में रेडिकल था कि उसने सदियों से कायम असमानता के विचारों को कम करने में एक बड़ी भूमिका के तौर पर काम आया। इस तरह से यह दस्तावेज़ एक तरह से संविधान सभा के अंदर जारी अलग-अलग धाराओं के आपसी संघर्ष के नतीजे के तौर पर सामने आया, इसलिए भारतीय संविधान सिर्फ एक कागज का दस्तावेज़ नहीं है, यह एक नागरिक दस्तावेज़ है इसकी हिफाजत करना हम सभी भारतीयों का कर्तव्य है।

अजय कुमार

(युवा समाजशास्त्री डॉ. अजय कुमार भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में फेलो हैं। वे दलित समाजशास्त्र और इतिहास के आपसी संबंध पर शोध कर रहे हैं।)

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