Friday, April 19, 2024

खबर का असर: सफाई कर्मियों के आंदोलन के दबाव में कंपनी का अफसर हुआ गिरफ्तार

रायपुर। बिलासपुर में हुए सफाईकर्मियों के आंदोलन पर दी गयी जनचौक की खबर का असर हुआ है। मामले के मुख्य आरोपी शैलेंद्र सिंह को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। हालांकि उनके खिलाफ दलित उत्पीड़न की धाराओं की जगह सामान्य धाराएं लगायी गयी थीं लिहाजा उन्हें जल्द ही जमानत मिल गयी। बावजूद इसके सफाईकर्मियों और विशेषकर महिलाओं के आंदोलन के दबाव में उन्हें न केवल कंपनी छोड़नी पड़ी बल्कि अब शहर छोड़ कर कहीं और रहने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ा है। इस बीच सफाई कर्मी उनके खिलाफ दलित उत्पीड़न का मुकदमा दर्ज कराने के लिए प्रशासन पर दबाव बनाए हुए हैं।

दरअसल पिछले दिनों छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सफाई कर्मचारियों ने एक आंदोलन छेड़ा था, जो मूलतः मासिक भुगतान नहीं होने से संबंधित था। सफाई कर्मियों को दिसंबर 2021 और जनवरी 2022 का मासिक भुगतान फरवरी के आरंभ तक नहीं मिला था जिसकी वजह से यह आंदोलन हुआ। आपको बता दें कि बिलासपुर जिले में सफाई के काम के लिए दिल्ली की कंपनी लायंस सर्विसेज को ठेका मिला है। कंपनी ने इस काम के लिए स्थानीय लोगों की नियुक्ति कर रखी है। पूरे बिलासपुर जिले में लगभग 900 के आस पास महिला-पुरुष कामगार इसमें कार्यरत हैं।

सफाई कर्मचारियों को समय पर वेतन भुगतान नहीं मिलना अब एक सामान्य बात हो गयी है। इसको लेकर प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच आये दिन नोक-झोंक होती रहती है। इस बार सफाई कर्मचारी इस मामले को लेकर सड़क की लड़ाई के लिए तैयार हुए। लेकिन पूरे मामले ने तब तूल पकड़ लिया जब कंपनी के प्रबंधक शैलेंद्र सिंह ने महिला कर्मचारियों को  “नीच जाति के मेहतर लोग”  कहकर संबोधित कर दिया। इस बयान पर कर्मचारियों का गुस्सा भड़क गया। उन लोगों ने इस मामले को लेकर थाने का घेराव किया। नतीजतन शैलेंद्र सिंह के खिलाफ शिकायत दर्ज हुई। अब कर्मचारी उनकी गिरफ्तारी की मांग करने लगे।

पूरी घटना की अगर तह में जाएं तो शैलेंद्र सिंह का महिलाओं के प्रति रवैया बहुत ही आपत्तिजनक रहा है। इस बात की पुष्टि कई महिला सफाई कर्मचारियों ने की। महिला कर्मी रंजीता करोसिया बताती हैं कि इस मामले में जोर शोर से आंदोलन हुआ, जिसमेंं यह मांग की गयी थी कि जातिगत गाली-गलौज करने वाले शैलेंद्र सिंह पर एससी/एसटी एट्रोसिटी की धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज हो। हालांकि इस मामले में प्राथमिकी दर्ज हो चुकी है, पर इसमें एट्रोसिटी क़ानून की धाराएं नहीं जोड़ी गयीं।

स्थानीय दलित कार्यकर्ता संजीत बर्मन के मुताबिक संबंधित आंदोलन के दौरान एससी/एसटी एट्रोसिटी की धाराओं को जोड़ने की मांग हुई तो, उसे जांच के बहाने निरस्त कर दिया गया। बर्मन मानते हैं कि दलित अत्याचार के किसी भी मामले को निरस्त करने का सबसे आसान तरीका है उसे विवेचना के लिए दे देना। ऐसा करने से एक तरफ आरोपी को अपने बचाव और सुरक्षा के लिए समय मिल जाता है तो दूसरी ओर संगठित हो रहे लोगों को तितर-बितर करने से पूरा मामला अपने आप ठण्डे बस्ते में चला जाता है। दलित मसलों पर पुलिस-प्रशासन का यह रवैय बेहद निंदनीय है। सफाई कर्मचारियों के साथ इस तरह के मामले निरंतर होते रहते हैंं। उनके साथ अब तो जातिगत गली-गलौच का मामला सामान्य बात हो गई है। 

शैलेंद्र सिंह के असभ्य रवैये की वजह से कंपनी में काम करने वाली लगभग सभी महिलाकर्मी परेशान थींं। सिंह के जातिगत गाली-गलौज के अलावा, उनकी कई आपत्तिजनक प्रवृत्तियों और नकारात्मक रवैये की वजह से भी महिलायें उनसे दूर भागती थीं। एक अन्य महिला कर्मी के अनुसार सिंह हमेशा महिलाओं को ऑफिस में अपने कक्ष में बुलाया करता थे। उनसे अपने चहरे से मास्क हठाने को कहते थे। और फिर उन पर कई तरह अश्लील टिप्पणियां करना उनकी आदत और व्यवहार का हिस्सा था। यही वजह थी कि कोई भी महिला कर्मचारी किसी समस्या लेकर उनके पास नहीं जाती थी। उनके पास जाने का मतलब बड़ी परेशानी को न्योता देना। 

दलित महिला कार्यकर्ता राजिम तांडी कहती हैंं कि महिला सफाई कामगारों के साथ यौन मामलों से जुड़ी अभद्र टिप्पणी, सवाल, शब्दों का प्रयोग, गाने, उनके शरीर का वर्णन, कपडे़ पर कमेंट, शरीर की बनावट पर टिप्पणी, यौनिक संवाद आदि सामान्य बात मानी जाती है। यही हाल अन्य कामकाजी महिलाओं का भी है। कागजी रूप से स्त्रियों को बराबर का संवैधानिक व कानूनी अधिकार तो प्राप्त है लेकिन सामाजिक रूप में अभी भी उन्हें दोयम दर्जा का ही समझा जाता है।

पीयूसीएल छत्तीसगढ़ राज्य इकाई के अध्यक्ष डिग्री प्रसाद चौहान के अनुसार यह मामला एससी/एस.टी एट्रोसिटी का ही है। वहीं अधिवक्ता शोभाराम गिलहरे का मानना है कि इसमें आईपीसी की कई धाराएं और भी जोड़ी जा सकती हैंं। वे कहते हैं कि कई बार एफआईआर के बाद विवेचना के दौरान उसमें एट्रोसिटी कानून की धाराओं को जोड़ दिया जाता है। इस क़ानून का उद्देश्य ही ऐसी घटनाओं को रोकना है।

इस मामले में जो एफआईआर हुई उसके तहत शैलेंद्र सिंह की गिरफ्तारी हुई थी, पर मामले को थाने में ही मुचलके के आधार पर रफा-दफा कर दिया गया। बर्मन आरोप लगाते हैंं कि पुलिस-प्रशासन ने इसमें शैलेन्द्र सिंह को पूरा संरक्षण दिया और उनके ऊपर एट्रोसिटी लगने ही नहीं दिया।

इन परिस्थितियों में सफाई कामगार समुदाय के साथ ताल्लुक रखने वाले लेखक संजीव खुदशाह का कहना है कि यह मामला एट्रोसिटी का ही है। एक नसीहत के तौर पर वे कहते हैं कि अब समाज को इस गंदे काम को छोड़ देना चाहिए और कुछ सम्मानजनक काम अपनाना चाहिए। अन्यथा जीवनभर उन्हें “नीच जाति” का तमगा ही मिलता रहेगा। कुछेक उदहारण देते हुए कहते हैंं कि इससे बेहतर होगा कि लोग मजदूरी, हमाली, रिक्शा चालन, ऑटो चलाना, कैटरिंग का काम, वेल्डिंग, मोटर मैकेनिक, प्लंबिंग, कंप्यूटर, प्रिंटिंग का काम इत्यादि करे।

फिलहाल न ही पुलिस ने एट्रोसिटी का मामला दर्ज किया और न ही सफाई कामगार अपने काम को छोड़ने के लिए तैयार हैंं।  बहरहाल एक काम जरूर हुआ है जिसके चलते अब महिला कामगार राहत की सांस ले रही हैं। वह है शैलेंद्र सिंह का कंपनी से निष्कासन। रंजीता करोसिया कहती हैं कि “भले ही शैलेंद्र सिंह पर एट्रोसिटी नहीं लगा हो, पर उसकी गिरफ्तारी तो हुई। गिरफ्तारी से वह थोड़ा डर गया है। अब वो इस कंपनी को छोड़कर चला गया। सुनने में आया कि वह बिलासपुर और छत्तीसगढ़ भी छोड़ चुका है और आजकल कहीं अनूपपुर में छुपा हुआ है।”

निश्चित तौर पर शैलेंद्र सिंह का कंपनी और शहर छोड़ना इन महिलाओं के लिए राहत का कारण है, पर क्या उस पर एट्रोसिटी का मामला दर्ज नहीं करना भारत के दलितों के साथ धोखाधड़ी नहीं है?

(रायपुर से डॉ. गोल्डी एम जॉर्ज की रिपोर्ट।)

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