नागरिक या सत्ता के ख़िलाफ़ युद्ध?: वैश्विक लोकतांत्रिक देशों के लिए ज़िम्मेदारी तय करने का समय

आज के परस्पर जुड़े विश्व में मौत चाहे भूख, ग़रीबी, गोलियों या बमों से हो — उसे किसी एक धर्म, क्षेत्र या राजनीतिक विचारधारा से जोड़ना मानवता का अपमान है। ग़ाज़ा में भूख से मरते बच्चे; ईरान में तानाशाही की ताकत तले कुचले जा रहे प्रदर्शनकारी, या तेहरान, तेल अवीव और रफ़ा में मिसाइलों से मारे जा रहे निर्दोष नागरिक — ये सभी एक ही आवाज़ में चीखते हैं और यह पुकार है- लोकतांत्रिक देशों को अब अपनी नैतिक और राजनीतिक ज़िम्मेदारियों को निभाना होगा। अब समय आ गया है कि विश्व की बड़ी लोकतांत्रिक ताकतें अपनी सुविधाजनक चुप्पी और पक्षपाती आक्रोश से ऊपर उठें और ईमानदारी, निरंतरता और मानवता के साथ सामने आएं।

चुनिंदा लोकतंत्र की ढोंगपूर्ण नीति

लोकतंत्र की बुनियादी सोच है — हर मनुष्य का जीवन और उसकी गरिमा का सम्मान। लेकिन जब अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देश इस सिद्धांत को अपनी सुविधा के अनुसार लागू करते हैं; किसी एक तानाशाह की निंदा करते हैं और दूसरे को हथियार या कूटनीतिक संरक्षण देते हैं, तो वे अपने ही मूल्यों का क्षरण कर रहे होते हैं।

उदाहरण के लिए अमेरिका लोकतंत्र और मानवाधिकारों का समर्थन करता है, फिर भी वह इज़राइल को अरबों डॉलर की सैन्य सहायता देता है, चाहे ग़ाज़ा में नागरिकों पर हिंसा के आरोप क्यों न लगते रहें।

यूरोपीय देश रूस के यूक्रेन पर हमले को अंतरराष्ट्रीय कानून का उल्लंघन बताते हैं, लेकिन फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा या ईरान में असहमति की दमन पर प्रायः चुप रहते हैं।

ईरान पर लगाए गए कठोर प्रतिबंध, जिनका उद्देश्य वहां की सरकार को चोट पहुंचाना बताया जाता है, असल में आम लोगों को भूख, दवाइयों की कमी और आर्थिक संकट में धकेलते हैं।

यह नैतिक विरोधाभास केवल पाखंड ही नहीं, ख़तरनाक भी है। यह दुनिया को यह संदेश देता है कि मानवाधिकार दरअसल क्षेत्र, मज़हब या रणनीतिक हित के आधार पर तय होते हैं।

ईरान: अलगाव और दमन की दोहरी मार

ईरान इस समय बाहर से प्रतिबंधों और भीतर से सत्तात्मक दमन की चपेट में है। पश्चिमी लोकतंत्र उसकी तानाशाही शासन की आलोचना तो करते हैं, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि उनके प्रतिबंधों का सीधा असर आम जनता पर पड़ता है — दवाइयाँ महंगी हो जाती हैं, रोज़गार खत्म होते हैं, और गरीबी बढ़ती है।

जब ईरानी महिलाएँ और छात्र साहस के साथ सड़कों पर उतरते हैं, तो लोकतांत्रिक देशों की महज़ औपचारिक प्रतिक्रियाएँ उनके हौसले को तोड़ देती हैं। यदि लोकतंत्र वास्तव में स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय के मूल्यों को मानते हैं, तो उन्हें शासकों और जनता के बीच फर्क समझना होगा। मानवीय सहायता की राहें खुली रहनी चाहिए, और जन आंदोलनों को केवल भाषणों से नहीं, ठोस समर्थन से मज़बूती मिलनी चाहिए।

इज़राइल-फ़िलिस्तीन: असमान युद्धभूमि

इज़राइल और फ़िलिस्तीन का दशकों पुराना संघर्ष आज के समय में अंतरराष्ट्रीय दोहरे मापदंडों का सबसे स्पष्ट उदाहरण बन चुका है। इज़राइल को अपने नागरिकों की सुरक्षा का अधिकार है, इसमें संदेह नहीं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह भी देखना होगा कि इस संघर्ष में ताकत और पीड़ा की असमानता कितनी गहरी है।

जो लोकतांत्रिक देश इज़राइल को नागरिकों की हत्या, अवैध बस्तियों और फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों की नाकेबंदी के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराते, वे तटस्थ नहीं हैं ,बल्कि साझेदार बन जाते हैं। दूसरी ओर, फ़िलिस्तीनी नागरिक एक खुले जेल जैसे माहौल में रहते हैं, जहां उनके बुनियादी अधिकार छीन लिए गए हैं।

यह भी सच है कि हमास जैसे संगठनों द्वारा की गई आतंकी कार्रवाइयों की सख़्त निंदा होनी चाहिए, क्योंकि इससे फ़िलिस्तीन की आज़ादी की मांग को ही नुकसान होता है। लेकिन किसी एक संगठन की ग़लतियों के आधार पर पूरी जनता को सज़ा देना किसी लोकतंत्र का तरीका नहीं हो सकता।

वैश्विक लोकतंत्रों की सामूहिक ज़िम्मेदारी

बड़े लोकतांत्रिक देशों के पास केवल सैन्य या आर्थिक शक्ति नहीं होती, उनके पास नैतिक नेतृत्व की भूमिका भी होती है। अगर वे वास्तव में दुनिया का भरोसा जीतना चाहते हैं, तो उन्हें कुछ ज़रूरी कदम उठाने होंगे:

1. मानवाधिकारों की बिना पक्षपात रक्षा: दर्द किसी भी समुदाय का हो, उसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। ग़ाज़ा और तेहरान पर चुप्पी और कीव पर शोर !  ये दोहरा रवैया बेहद ख़तरनाक है।

2. सहायता और हथियारों का राजनीतिक इस्तेमाल नहीं: लोकतंत्रों को उन सरकारों को सहायता देना बंद करना चाहिए, जो मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हैं। कोई भी सैन्य या आर्थिक सहयोग ठोस शर्तों पर आधारित होना चाहिए।

3. जन आंदोलनों का समर्थन: ईरान से लेकर फ़िलिस्तीन तक, शिक्षा, मीडिया और मानवाधिकार संगठनों में निवेश कर लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मज़बूत किया जाना चाहिए।

4. राजनयिक समाधान को प्राथमिकता: युद्ध, ड्रोन हमले और हथियारों की दौड़ की बजाय बातचीत और समाधान के रास्ते तलाशे जाएं।

5. अपने ऐतिहासिक पापों का स्वीकरण: उपनिवेशवाद की विरासत हो या तानाशाही सरकारों को दिया गया समर्थन — लोकतंत्रों को अपने अतीत और वर्तमान की जवाबदेही लेनी होगी।

मौत को नज़रअंदाज़ करता लोकतंत्र खोखला होता है

भूख, युद्ध और ग़रीबी कोई प्राकृतिक आपदाएं नहीं हैं,बल्कि ये राजनीतिक नीतियों की उपज हैं। जब लोकतांत्रिक देश इन्हें नज़रअंदाज़ करते हैं या उन्हें अपनी सुविधा के अनुसार व्याख्यायित करते हैं, तो वे अपने ही आदर्शों से विश्वासघात कर रहे होते हैं।

ग़ाज़ा के भूखे बच्चों, ईरान की रोती माँओं, और इज़राइल में विस्फोटों से भागते नागरिकों की आंखों में हमें यह देखना चाहिए कि लोकतंत्र महज़ वोट नहीं है, यह एक नैतिक ज़िम्मेदारी है।

सच्चा लोकतंत्र वह होता है, जो निर्बल की रक्षा करे, पीड़ित को सांत्वना दे, और हर हाल में न्याय के पक्ष में खड़ा रहे — भले ही वह असुविधाजनक क्यों न हो। अगर दुनिया के लोकतंत्र इस ज़िम्मेदारी को नहीं निभाते, तो वे उसी तरह की ताकतवर, संपन्न, लेकिन नैतिक रूप से दिवालिया शक्तियां बन जाएंगे, जिनके ख़िलाफ उन्होंने कभी आवाज़ उठाई थी ।

सच्चा लोकतंत्र तो वही है,जो अपने फायदे मुनाफ़े से ऊपर उठकर कहे-कोई अकेले नहीं, हम सब एक दूसरे के साथ हैं। समय अब भी है कि हम मनुष्य होने के पक्ष में खड़े हों और सत्ता की चुप्पी को अपनी सामूहिक आवाज़ से तोड़ें।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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