पटना। बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों से पहले निर्वाचन आयोग द्वारा शुरू किया गया विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) कार्यक्रम एक बड़ी प्रशासनिक कवायद है, लेकिन इसके दुष्परिणामों को लेकर राज्य भर में बहस छिड़ गई है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत बीएलओ (बूथ लेवल ऑफिसर) घर-घर जाकर मतदाताओं को एन्युमरेशन फॉर्म देंगे, जिसमें नागरिकता और पहचान से जुड़ी विस्तृत जानकारी मांगी जा रही है। हालांकि आयोग का दावा है कि इससे फर्जी वोटरों को हटाया जाएगा और नए योग्य नागरिकों को जोड़ा जाएगा, लेकिन विपक्षी दलों और नागरिक समाज का एक बड़ा तबका इस प्रक्रिया को एक साजिश करार दे रहा है।
लोकतंत्र से वंचित होने का खतरा
भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां हर नागरिक को समान रूप से मताधिकार प्राप्त है। लेकिन SIR की प्रक्रिया में जो शर्तें रखी गई हैं जैसे कि जन्म प्रमाणपत्र, माता-पिता की नागरिकता के दस्तावेज, पासपोर्ट, वीज़ा आदि वे ऐसे करोड़ों गरीब, पिछड़े, दलित और आदिवासी लोगों के पास नहीं हैं, जो न तो शहरी इलाकों में रहते हैं और न ही जिनके पास ठोस कागजी पहचान है।
पटना के सब्जीबाग में रहने वाले इरशाद बताते हैं कि “ ये पुनरीक्षण जैसा नहीं लगता हैं, ये NRC जैसा लगता है, चुनाव के वक्त हमसे नागरिकता का सबूत मांगा जा रहा है, लेकिन क्यों? क्या हम देशवासी नहीं हैं, हमारा जन्म भारत की धरती पर ही हुआ है।”
यदि कोई नागरिक अपनी पहचान या नागरिकता साबित नहीं कर पाया, तो उसे मतदाता सूची से बाहर कर दिया जाएगा। यह स्थिति देश के सबसे कमजोर वर्गों को लोकतंत्र से बाहर करने जैसी होगी, जो न केवल संविधान के खिलाफ है, बल्कि सामाजिक असमानता को और गहरा करती है।

गरीब और पिछड़े वर्ग के लिए अव्यवहारिक दस्तावेजी मांगें
जिन लोगों का जन्म 1987 के बाद हुआ है, उनसे उनके माता-पिता के भारतीय नागरिक होने का प्रमाण मांगा जा रहा है। इसके लिए जन्म के समय का पासपोर्ट या वीज़ा जैसी दस्तावेजी मांगें की जा रही हैं। यह मांग लाखों गरीबों के लिए पूरी करना असंभव है ।
कमला नेहरू नगर पटना का सबसे बड़ा स्लम एरिया है। यहां के लोगों से जब हमने इस मुद्दे पर बात की तो उन्होंने बताया कि “ पहले जब चुनाव का वक्त आता था तब सारी पार्टियां हमसे वोट मांगने हमारे झुग्गी झोपड़ी में आती थीं लेकिन इस बार तो BLO आएंगी। हमारा जन्म यहीं हुआ है, इसी धरती पर, पर गरीबी के चलते न तो हमारे पास पक्का घर है और न ही कागज़ात, तो क्या ऐसे में हमें मतदाता सूची से बाहर कर दिया जाएगा? गरीब हूं इसमें हमारी क्या गलती है।”
ग्रामीण इलाकों में रहने वाले गरीब, भूमिहीन मजदूर, खेतिहर किसान, झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोग, जिनके पास न तो जन्म प्रमाणपत्र है और न ही पासपोर्ट जैसे दस्तावेज, वे कैसे ये प्रमाण प्रस्तुत करेंगे? क्या यह मतदाता सूची से उन्हें जानबूझकर बाहर करने की रणनीति नहीं है?
राज्य मशीनरी के माध्यम से मतदाता नियंत्रण का खतरा
जैसा कि चुनाव विश्लेषक अभिमन्यु ने कहा, “SIR एक ऐसा उपाय है जिससे राज्य मशीनरी यह तय करेगी कि किसे वोट देने का अधिकार है और किसे नहीं। इससे लोकतंत्र में मतदाता के स्वतंत्र अस्तित्व पर संकट आ जाता है। प्रशासनिक अधिकारियों और स्थानीय कर्मचारियों को यह अधिकार देना कि वे दस्तावेजों के आधार पर नागरिक की पात्रता तय करें, सत्ता पक्ष के लिए मतदाता सूची में ‘छंटाई’ का एक उपकरण बन सकता है।”
चुनाव से पहले इतनी बड़ी प्रक्रिया: साजिश या सुव्यवस्था?
SIR की प्रक्रिया को बिहार में 26 जुलाई तक पूरा करना है, जबकि विधानसभा चुनावों की संभावित तारीखें अगस्त-सितंबर में हैं। यानी केवल 25-30 दिन पहले 8 करोड़ मतदाताओं की सूची में संशोधन करना कोई सामान्य बात नहीं है।
आंगनवाड़ी सेविका साहिबा (बदला हुआ नाम) जो एक बीएलओ भी हैं, जब हमने उनसे इस मुद्दे पर बात की तो उन्होंने बताया कि “एक तो सरकार ने हमें सेविका से बीएलओ का काम करवाया जाता है। इस बार जो विशेष गहन पुनरीक्षण लाया गया है इससे बड़ी परेशानी हो रही है। बिहार में 7,89,69,844 मतदाता हैं, ऐसे में हम लोगों पर समस्या बढ़ जाएगी। वहीं दूसरी ओर गरीब लोगों को कागज़ात दिखाने में बहुत सी समस्याओं से गुजरना पड़ेगा।
नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने इस प्रक्रिया पर सीधे सवाल उठाते हुए कहा है कि “चुनाव आयोग चुनाव से ठीक 25 दिन पहले 8 करोड़ मतदाताओं की मतदाता सूची में संशोधन क्यों करना चाहता है? यह नीतीश-भाजपा-एनडीए गठबंधन की आसन्न हार के कारण गरीब, शोषित, पिछड़े, अति पिछड़े, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यकों के नाम मतदाता सूची से हटाने की साजिश लगती है।”
मतदाताओं में भय और भ्रम का माहौल
घर-घर सर्वे की सूचना के साथ ही मतदाताओं में भय और असमंजस का माहौल बन गया है। आम नागरिक यह नहीं समझ पा रहा है कि उसे किन दस्तावेजों की जरूरत है, कहां जमा करना है, और अगर कोई दस्तावेज नहीं है तो क्या वे वोट नहीं डाल पाएंगे। निर्वाचन आयोग ने इस बारे में व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं किया, जिससे सूचना का अभाव और भी ज्यादा भ्रम पैदा कर रहा है। जो लोग पहले से वोटर हैं, वे भी डर में जी रहे हैं कि कहीं उनका नाम सूची से हटा न दिया जाए।

कांग्रेस के बिहार प्रदेश प्रवक्ता ज्ञान रंजन ने कहा है कि “मतदाता सूची अपडेट करने का कार्यक्रम आनन फानन में चलाया जा रहा है और इससे युवा, दलित, गरीब और अल्पसंख्यकों के नाम वोटर लिस्ट से हटाने की साजिश चल रही है। अपडेट के नाम पर उन्हें आगामी चुनाव में मताधिकार के प्रयोग से वंचित रखने की साजिश चुनाव आयोग कर रही है। यह कदम कांग्रेस और महागठबंधन के मतदाताओं को सुनियोजित तरीके से लक्षित करके संचालित की गई है। उन्होंने कहा कि जिन कागजातों की मांग इस प्रक्रिया के तहत की जा रही है वो मेहनतकश परिवार और समाज के पिछड़े वर्ग से आने वाले लोगों के पास इतने कम समय में प्रस्तुत कर पाने में असमर्थता को दरकिनार किया जा रहा है।”
संवैधानिक मूल्यों का हनन
भारतीय संविधान हर नागरिक को समान अधिकार देता है। मताधिकार कोई विशेषाधिकार नहीं, बल्कि एक मौलिक लोकतांत्रिक अधिकार है। SIR जैसी प्रक्रिया, जो करोड़ों नागरिकों को उनके दस्तावेजों के आधार पर चुनावी प्रक्रिया से बाहर कर सकती है, सीधे-सीधे संविधान की भावना के खिलाफ जाती है।
क्या किसी नागरिक के पास पासपोर्ट न होना उसे भारतीय न होने का प्रमाण हो सकता है? क्या दस्तावेजों की गैरमौजूदगी, नागरिकता की गैर मौजूदगी है? यह विचार संवैधानिक न्याय के खिलाफ है।
राजनीतिक दुरुपयोग की आशंका
राजनीतिक दलों का आरोप है कि चुनाव आयोग की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिह्न लगने लगे हैं । ममता बनर्जी जैसी वरिष्ठ नेता ने इस प्रक्रिया को NRC से भी खतरनाक बताया है और आयोग को बीजेपी की कठपुतली कहा है। बिहार में आरजेडी, कांग्रेस, वामदल जैसे सभी प्रमुख विपक्षी दलों ने इस प्रक्रिया का विरोध किया है। जब लोकतंत्र की बुनियादी संस्था चुनाव आयोग- पर पक्षपात का आरोप लगे, तो देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर गहरा धक्का लगता है।
वोटर टर्नआउट पर असर
अगर बड़ी संख्या में नागरिकों को यह डर होगा कि वे वोट नहीं डाल पाएंगे, या उन्हें बार-बार फॉर्म भरना, फोटो देना, दस्तावेज जुटाना पड़ेगा, तो इससे मतदान में भागीदारी में गिरावट आ सकती है। यह लोकतंत्र के लिए एक गंभीर खतरा है, खासकर बिहार जैसे राज्य में, जहां पहले ही राजनीतिक चेतना और सामाजिक जटिलताएं अधिक हैं।
निष्कर्ष
SIR प्रक्रिया के पीछे तर्क यह है कि फर्जी मतदाताओं को हटाकर और नए पात्र लोगों को जोड़कर मतदाता सूची को शुद्ध किया जाए, लेकिन इसके कार्यान्वयन की प्रक्रिया में इतनी खामियां और पक्षपात की संभावनाएं हैं कि यह खुद एक लोकतांत्रिक संकट बन गया है।
(पटना से नाजिश महताब की रिपोर्ट।)