Tuesday, April 16, 2024

सनातन धर्म पर आधारित मोहन भागतवत का अखंड भारत बनाम आंबेडकर का प्रबुद्ध भारत 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने 13 अप्रैल को हरिद्वार में कहा कि “20-25 सालों में अखंड भारत होगा, जिसका स्वप्न विवेकानंद और महर्षि अरविंद ने देखा था। लेकिन सब मिलाकर इस दिशा में प्रयास करें तो 10-15 साल में अखंड भारत बन जाएगा।” उन्होंने यह भी कहा कि “भारत लगातार प्रगति के पथ पर बढ़ रहा है। इसे रोकने वाला कोई नहीं है और जो इसके रास्ते में आएगा वो मिट जाएगा।” हिंदू राष्ट्र की व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया कि “सनातन धर्म ही हिंदू राष्ट्र है।” उन्होंने धर्म (सनातन धर्म) के उत्थान को ही भारत का उत्थान बताया ‘‘भारत को अब बड़ा होना ही है…धर्म का उत्थान ही भारत का उत्थान है।” मोहन भागवत ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए रेखांकित किया कि भारत उत्थान की पटरी पर आगे बढ़ चला है। इसके रास्ते में जो आएंगे वह मिट जाएंगे, भारत अब उत्थान के बिना रुकने वाला नहीं है।

भारत उत्थान की पटरी पर सरपट दौड़ रहा है, सीटी बजा रहा है और कह रहा है उत्थान की इस यात्रा में सब उसके साथ आओ और उसको रोकने का प्रयास कोई न करे। जो कोई भी रोकने वाले हैं, वह साथ आ जाएं और अगर साथ नहीं आते तो रास्ते में न आएं, रास्ते से हट जाएं और जो रास्ते से नहीं हटेगा, वह मिट जाएगा। संघ प्रमुख की मानें तो अखंड भारत मुहिम में अहिंसा को ही तरजीह दी जाएगी, लेकिन हाथों में लाठी भी रहेगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि दुनिया शक्ति को ही मानती है, मतलब, लाठी की ही भाषा समझती है। आरएसएस के अखंड भारत की परिकल्पना में भारत, पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालदीव, म्यांमार और तिब्बत शामिल हैं। मोहन भागवत के हाल के ज्यादातर भाषणों में हिंदू राष्ट्र की ध्वनि साफ सुनने को मिलती रही है। उन्होंने कुछ दिनों पहले कहा, ‘भारत हिंदू राष्ट्र है… इसे किसी के प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं है…

आरएसएस की अखंड भारत की परिकल्पना उतनी ही पुरानी है, जितना पुराना उसका जन्म है। 27 सितंबर 1925 को विजयादशमी के दिन इस संगठन की नींव रखने वाले डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार भी अखंड भारत की बात करते थे। इसके बाद से यह संघ के प्रमुख एजेंडे में शामिल हो गया। संघ के कार्यकर्ताओं की ओर से भगवा झंडे के साथ-साथ भारत महाद्विपीय क्षेत्र में एक भगवा मानचित्र भी प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें अखंड भारत की उनकी परिकल्पना प्रस्तुत होती है। मोहन भागवत के अखंड भारत की घोषणा में हमें 1920 के दशक के हिंदू राष्ट्रवादियों के विचारों की गूंज सुनाई देती है। आरएसएस ने 15 अगस्त, 1947 को शोक दिवस के रूप में मनाया था। 1956 में एमएस गोलवलकर द्वारा की गई टिप्पणी भी प्रसिद्ध है। तब उन्होंने कहा था कि “जब तक हम इस कलंक (विभाजन) को नहीं मिटा लेते हैं, तब तक हमें आराम नहीं करने का संकल्प लेना होगा।” अगस्त 1965 में जनसंघ के एक प्रस्ताव में कहा गया था कि मुसलमान खुद को राष्ट्रीय जीवन में शामिल कर लेंगे और अखंड भारत एक वास्तविकता होगी।

मोहन भागवत के इस भाषण में निम्न रेखांकित करने वाली बाते हैं-

    अखंड भारत बनने में अधिक से 20 से 25 वर्ष लगेंगे।

    अखंड भारत एक हिंदू राष्ट्र होगा।

    अखंड भारत सनातन धर्म पर आधारित होगा।

    अखंड भारत स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद के सपनों का भारत होगा।

    अखंड भारत के मार्ग में जो अवरोध बनेगा, उसे मिटा दिया जाएगा।

    अखंड भारत का निर्माण अहिंसा और हिंसा दोनों साधनों का इस्तेमाल करके किया जाएगा

    धर्म का उत्थान ही भारत का उत्थान है।

मोहन भागवत के इस भाषण का साफ निष्कर्ष है कि भारत काफी हद तक हिंदू राष्ट्र बन चुका है। अब उस हिंदू राष्ट्र का विस्तार पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालद्वीप, म्यांमार और तिब्बत तक करने को आतुर आरएसएस दिख रहा है और इस स्वप्न को 15 से 20 वर्षों में और अधिक-से-अधिक 20-25 वर्षों में पूरा करना चाहता है। विचारणीय बात यह है कि वे कौन से तत्व हैं, जिसके आधार पर मोहन भागवत यह कह रहे हैं कि हिंदू राष्ट्र बन चुका है और कैसे उनके अंदर इतना साहस आ गया कि वह चेतावनी दे रहे हैं कि जो लोग इस हिंदू राष्ट्र के मार्ग में अवरोध बनेंगे उन्हें मार्ग से हटा दिया जाएगा, जरूरत पड़ने पर डंडे (ताकत) के बल पर भी।

भारत काफी हद तक हिंदू राष्ट्र बन चुका है, मोहन भागवत इस सोच के निम्न आधार हैं –

पहला किसी भी लोकतांत्रिक देश में सबसे बड़ी पहली शक्ति जनता, विशेषकर मतदाता होते हैं। इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि 2014 के बाद से लगातार भाजपा को केंद्र में और राज्यों में मतदाताओं के बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त हो रहा है। केंद्र में लगातार दो बार प्रचंड बहुमत से उसकी सरकार बनी है और कई राज्यों की सत्ता में उसकी दूसरी बार और कुछ में तीसरी-चौथी बार उसकी वापसी हुई है। तमिलनाडु, पंजाब और केरल को छोड़कर देश के अधिकांश हिस्सों में भाजपा ताकतवर राजनीतिक शक्ति के रूप में मौजूद है, उसे मतदाताओं के एक बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त है। भाजपा को मतदाताओं के इस समर्थन ने आरएसएस के भीतर यह साहस पैदा किया कि वह भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की दिशा में तेजी से कदम बढ़ा सके।

हम सभी जानते हैं कि भाजपा की बागडोर पूरी तरह से आरएसएस के हाथ में है। दूसरा इस समय कोई भी राजनीतिक पार्टी ऐसी नहीं है, जो भाजपा को देशव्यापी स्तर पर चुनौती दे सके। देशव्यापी स्तर पर भाजपा को चुनौती देने की एक हद तक राष्ट्रीय स्तर पर सांगठनिक शक्ति रखने वाली कांग्रेस निरंतर सिकुड़ती और सिमटती जा रही है और जो पार्टियां उसका स्थान ले रही हैं, वह ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि भाजपा को देशव्यापी स्तर पर चुनौती दे सकें। विपक्ष के बिखराव और कमजोरी ने भी आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के अभियान को ताकत प्रदान किया है। तीसरा भाजपा के हिंदू राष्ट्र के विचारधारात्मक आधार हिंदुत्व की विचाराधारा के सामने करीब-करीब सभी पार्टियों ने समर्पण कर दिया है, अपवादस्वरूप सिर्फ तमिलनाडु में डीएमके पार्टी बची है और कुछ एक वामपंथी पार्टियां। कांग्रेस पहले ही नरम हिंदुत्व की राजनीति करती रही है और आरएसएस-भाजपा के वर्तमान दबाव ने उसे और हिंदुत्व की ओर धकेल दिया है। वह हिंदुत्व की विचारधारा के खिलाफ खड़े होने को तैयार नहीं है। नई-नई उभरती आम आदमी पार्टी अपने असली रूप में हिंदुत्वादी है। हिंदी पट्टी की दलित-बहुजन पार्टियों ने भी हिंदुत्व की विचारधारा के सामने करीब-करीब समर्पण कर दिया है।

ऐसी स्थिति में आरएसएस को साफ-साफ यह दिख रहा है कि कोई राजनीतिक पार्टी आज की तारीख में खुलकर उसकी हिंदू राष्ट्र की परियोजना का विरोध करने की स्थिति में नहीं है। चौथा, जहां पहले आरएसएस का आधार अपरकॉस्ट हिंदुओं तक मुख्यत: सिमटा हुआ था। वही उसकी मुख्य शक्ति थे, लेकिन 2014 के बाद स्थिति निर्णायक तौर पर बदल गई है। वर्ण-व्यवस्था के क्रम में शूद्र कहे जाने वाले वर्ण (पिछड़ी जातियों) में आरएसएस-भाजपा ने व्यापक और गहरी जड़ें कायम कर ली हैं। तमिलनाडु, केरल और पंजाब को छोड़कर देश के अन्य हिस्सों में पिछड़ी जातियां भाजपा का सबसे मजबूत आधार बन गई हैं। दलितों-आदिवासियों के बीच भी आरएसएस-भाजपा ने एक हद तक पैठ बना ली है। अपरकॉस्ट, पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के बीच आरएसएस की इस पैठ ने उसे यह विश्वास दिलाया है कि उसके हिंदू राष्ट्र की परियोजना को हिंदुओं के सभी वर्णों-जातियों का समर्थन प्राप्त है। पांचवां देश की कार्यपालिका (जिसमें प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति और पूरा मंत्रिमंडल शामिल है) और विधायिका (लोकसभा व राज्यसभा) पर भाजपा का पूर्ण वर्चस्व और नियंत्रण है, न्यायपालिका पर भी वे काफी हद तक नियंत्रण कायम कर चुके हैं।

पांचवीं बात यह कि देश की सबसे ताकवतर शक्ति कार्पोरेट और आरएसएस-भाजपा के बीच मजबूत गठबंधन कायम हो चुका है, जहां कार्पोरेट भाजपा को अकूत धन मुहैया कराकर उसके हिंदुत्व की परियोजना को तेजी से आगे बढ़ाने में मदद कर रहा है, वहीं भाजपा ने कार्पोरेट को देश के संसाधनों पर कब्जा करने की खुली छुट दे रखी है। कार्पोरेट के सहयोग के बिना हिंदू राष्ट्र की परियोजना को इतनी तेजी से आरएसएस-भाजपा आगे नहीं बढ़ा सकते थे। कार्पोरेट ने अपने अकूत धन के साथ-साथ अपनी मीडिया को भी हिंदू राष्ट्र की परियोजना को पूरा करने के काम में लगा दिया है। कार्पोरेट मीडिया दिन-रात हिंदू राष्ट्र के निर्माण के प्रचार अभियान में लगी हुई है। इन सब चीजों के साथ ही आरएसएस के सैकड़ों आनुषांगिक संगठन और लाखों कार्यकर्ता रात-दिन हिंदू राष्ट्र के निर्माण की परियोजना में जमीन पर लगे हुए हैं। इन तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि हिंदू राष्ट्र का भावी खतरा नहीं आज एक हकीकत बन चुका है।

भले ही भारत का संविधान पूरी तरह न बदला गया हो और भारत अभी भी औपचारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष हो, लेकिन वास्तविक जीवन में हिंदुत्ववादी शक्तियां समाज-संस्कृति के साथ राजसत्ता और सभी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रभावी नियंत्रण कर चुकी हैं। संघ, भाजपा और संघ के अन्य आनुषांगिक संगठन ही आज देश की दिशा तय कर रहे हैं। आज हर भारतवासी से राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद का समर्थन करने और उसके सामने सिर नवाने की मांग की जा रही है और इस राष्ट्रवाद को देशभक्ति का पर्याय बना दिया गया है। आज आरएसएस की शक्ति इतनी बढ़ गई है कि मोहन भागवत साफ शब्दों में कह रहे हैं कि भारत एक हिंदू राष्ट्र बन चुका है और अब उसे अखंड भारत में तब्दील करना है। इतना ही नहीं, उन्होंने दो टूक भाषा में यह भी कहा कि भारत के उत्थान का मतलब धर्म का उत्थान है और हिंदू राष्ट्र का मतबल है, सनातन धर्म (वैदिक- ब्राह्मण धर्म) पर आधारित भारत।

इस सबके बावजूद वे कौन सी शक्तियां हैं, जिन्हें हिंदू राष्ट्र या अंखड भारत के मार्ग में मोहन भागवत अवरोध मानते हैं, जिन्हें चेतावनी दे रहे हैं कि वे मार्ग से हट जाएं, नहीं तो उन्हें मिटा दिया जाएगा और इसके लिए जरूरत पड़ने पर डंडे का भी सहारा लिया जाएगा।

यह जगजाहिर तथ्य है कि आरएसएस के सनातन धर्म (वैदिक ब्राह्मणवादी धर्म) आधारित हिंदू राष्ट्र या अखंड भारत के निर्माण के रास्ते में सबसे बड़े अवरोध धार्मिक अल्पसंख्यक (मुसलमान-ईसाई), और डॉ. आंबेडकर के अनुयायी दलित-बहुजन हैं। ये वे शक्तियां हैं, जो किसी भी शर्त पर हिंदू राष्ट्र को स्वीकार नहीं कर सकती हैं। यही दो शक्तियां हिंदू राष्ट्र के मार्ग में सबसे बड़ी अवरोध हैं। पिछड़े-दलितों को हिंदू होने के नाम पर एकजुट करके आरएसएस मुसलमानों-ईसाइयों से तो एक हद तक निपट भी सकता है और उसे इसमें काफी सफलता भी मिल गई है।

भाजपा ने राजनीतिक तौर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों को पूरी तरह हाशिए पर धकेल दिया है और जमीनी स्तर पर उनके खिलाफ आक्रामक अभियान चला रही है। जिसके हालिया उदाहरण रामनवमी और हनुमान जयंती के जुलूसों में देखने को मिले। अब तो उनकी धार्मिक स्वतंत्रता, रोजी-रोटी का अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी उनसे छीनी जा रही है। बहुजनों के बड़े हिस्से आदिवासियों का हिंदूकरण करने की कोशिश भी जोर-शोर से आरएसएस कर रहा है और जो आदिवासी इसका विरोध करते हैं, उन्हें नक्सली-माओवादी कहकर जेलों में ठूंस दिया जा रहा है या एनकाउंटर कर दिया जा रहा है।

लेकिन डॉ. आंबेडकर के सच्चे वैचारिक अनुयायियों से निपटना उसके लिए मुश्किल हैं। क्योंकि डॉ. आंबेडकर ने साफ शब्दों में कहा था कि ‘‘पर अगर हिंदू राष्ट्र बन जाता है, तो निस्संदेह इस देश के लिए एक भारी ख़तरा उत्पन्न हो जायेगा। हिंदू कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक ख़तरा है। इस आधार पर लोकतंत्र के अनुपयुक्त है। हिंदू राज को हर क़ीमत पर रोका जाना चाहिए”। (डॉ. आंबेडकर, पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इण्डिया, पृ.338) इतना ही नहीं उन्होंने हिंदू धर्म को फासीवादी/नाजीवादी विचाराधारा कहा था। उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि ‘‘हिन्दू धर्म एक ऐसी राजनैतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः लोकतंत्र-विरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद और/या नाजी विचारधारा जैसा ही है। अगर हिन्दू धर्म को खुली छूट मिल जाए – और हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ है – तो वह उन लोगों को आगे बढ़ने ही नहीं देगा जो हिन्दू नहीं हैं या हिन्दू धर्म के विरोधी हैं। यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है। यह दलित वर्गों और गैर-ब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है” (सोर्स मटियरल ऑन डॉ. आंबेडकर, खण्ड 1, पृष्ठ 241, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन)।

आंबेडकर के लिए हिंदू धर्म पर आधारित हिंदू राष्ट्र का निहितार्थ शूद्रों-अतिशूद्रों (आज के पिछड़े-दलितों) पर द्विजों के वर्चस्व और नियंत्रण को स्वीकृति और महिलाओं पर पुरूषों के वर्चस्व और नियंत्रण को मान्यता प्रदान करना है। जिस हिन्दू धर्म पर हिंदू राष्ट्र की अवधारणा टिकी हुई है, उसके संदर्भ में आंबेडकर का कहना है कि “मैं हिंदुओं और हिंदू धर्म से इसलिए घृणा करता हूं, उसे तिरस्कृत करता हूं क्योंकि मैं आश्वस्त हूं कि वह गलत आदर्शों को पोषित करता है और गलत सामाजिक जीवन जीता है। मेरा हिंदुओं और हिंदू धर्म से मतभेद उनके सामाजिक आचार में केवल कमियों को लेकर नहीं हैं। झगड़ा ज्यादातर सिद्धांतों को लेकर, आदर्शों को लेकर है।” (भीमराव आंबेडकर, जातिभेद का विनाश पृ. 112)।     

डॉ.आंबेडकर साफ शब्दों में कहते हैं कि हिन्दू धर्म के प्रति उनकी घृणा का सबसे बड़ा कारण जाति है, उनका मानना था कि हिन्दू धर्म का प्राण-तत्त्व जाति है वे लिखते हैं कि ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि जाति आधारभूत रूप से हिन्दुओं का प्राण है।” डॉ. आंबेडकर को हिन्दू धर्म में अच्छाई नाम की कोई चीज नहीं दिखती थी, क्योंकि इसमें मनुष्यता या मानवता के लिए कोई जगह नहीं है। अपनी किताब ‘जाति का विनाश’ में उन्होंने दो टूक लिखा है कि ‘हिन्दू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदर्शों और प्रतिबन्धों की भीड़ है। हिन्दू-धर्म वेदों व स्मृतियों, यज्ञ-कर्म, सामाजिक शिष्टाचार, राजनीतिक व्यवहार तथा शुद्धता के नियमों जैसे अनेक विषयों की खिचड़ी संग्रह मात्र है।

हिन्दुओं का धर्म बस आदेशों और निषेधों की संहिता के रूप में ही मिलता है और वास्तविक धर्म, जिसमें आध्यात्मिक सिद्धान्तों का विवेचन हो, जो वास्तव में सार्वजनीन और विश्व के सभी समुदायों के लिए हर काम में उपयोगी हो, हिन्दुओं में पाया ही नहीं जाता और यदि कुछ थोड़े से सिद्धान्त पाये भी जाते हैं तो हिन्दुओं के जीवन में उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं पायी जाती। हिन्दुओं का धर्म ‘‘आदेशों और निषेधों” का ही धर्म है। वे हिन्दुओं की पूरी व्यवस्था को ही घृणा के योग्य मानते हैं। उन्होंने लिखा कि ‘‘इस प्रकार यह पूरी व्यवस्था ही अत्यन्त घृणास्पद है, हिन्दुओं का पुरोहित वर्ग (ब्राह्मण) एक ऐसा परजीवी कीड़ा है, जिसे विधाता ने जनता का मानसिक और चारित्रिक शोषण करने के लिए पैदा किया है… ब्राह्मणवाद के जहर ने हिन्दू-समाज को बर्बाद किया है।” (जाति का विनाश)।

आंबेडकर ने अपनी किताब जाति के विनाश में घोषणा किया है कि मेरा आदर्श समाज स्वतंत्रता, समानता और बंधुता पर आधारित समाज है। वे हिंदू धर्म आधारित हिंदू राष्ट्र को पूरी तरह स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के खिलाफ मानते थे। इसी कारण से वे किसी भी कीमत पर हिंदू राज को कायम होने से रोकना चाहते थे। उन्होंने यह आशंका जाहिर की थी कि हिंदू राज कायम होने पर स्वतंत्रता, समानता और बंधुता के मूल्यों को कुचला जायेगा और लोकतंत्र की ऐसी की तैसी की जायेगी। उनकी सारी आशंकाएं आज चरितार्थ हो रही हैं।

सच यह है कि आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के अभियान को डॉ. आंबेडकर की विचारधारा को अपनाकर ही रोका जा सकता है। क्योंकि आरएसएस की विचारधारा और डॉ. आंबेडकर की विचारधारा के बीच कोई ऐसा सेतु नहीं जहां दोनों का एक दूसरे से मेल कायम होता हो। सच यह है कि यदि संघ की विचारधारा फूलती-फलती है, तो इसका निहितार्थ है कि डॉ. आंबेडकर की विचारधारा की जड़ें खोदी जा रही हैं। इसके उलट यह भी उतना ही सच है कि यदि डॉ. आंबेडकर की विचारधारा फूलती-फलती है तो संघ की विचारधारा की जड़ों में मट्ठा पड़ रहा है। दोनों के आदर्श समाज की परिकल्पना, राष्ट्र की दोनों की अवधारणा, दोनों के आदर्श मूल्य, दोनों के आदर्श नायक, दोनों के आदरणीय ग्रंथ, धर्म की दोनों की समझ, दोनों की इतिहास दृष्टि, स्त्री-पुरूष संबंधों की दोनों की अवधारणा, व्यक्तियों के बीच रिश्तों के बारे में दोनों के चिंतन, व्यक्ति और समाज के बीच रिश्तों के बारे में दोनों की सोच, दोनों की आर्थिक दृष्टि और राजनीतिक दृष्टि बिल्कुल जुदा-जुदा है।

एक शब्द में कहें दोनों की विश्वदृष्टि में कोई समानता नहीं है। दोनों के बीच कोई ऐसा कॉमन तत्व नहीं है, जो उन्हें जोड़ता हो या उनके बीच एकता का सेतु कायम करता हो। संघ की विचारधारा और डॉ. आंबेडकर की विचारधारा का कोई भी अध्येता सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुंच जायेगा कि जो कुछ संघ की विचाधारा के लिए अमृत है, वह सब कुछ आंबेडकर की विचारधारा के लिए जहर जैसा है। इसे उलटकर कहें तो जो कुछ आंबेडकर की विचारधारा में अमृत है वह संघ के लिए जहर है। मोहन भागतवत का सनातन धर्म आधारित अखंड भारत का स्वप्न और डॉ. आंबेडकर का स्वतंत्रता, समता और भाईचारा आधारित प्रबुद्ध भारत का स्वप्न बिलकुल एक दूसरे के उलट हैं। सनातन धर्म आधारित अखंड भारत की परियोजना तेजी से आगे बढ़ रही है, जबकि डॉ. आंबेडकर के प्रबुद्ध भारत स्वप्न धूमिल हो रहा है।

हिंदू राष्ट्र की परियोजना में देश के कार्पोटाइजे़शन, जाति, पितृसत्ता और अन्य धर्मावलंबियों के प्रति घृणा का एक ज़हरीला मेल तैयार हुआ है। विकास के नाम पर कार्पोटाइज़ेशन और हिंदुत्व के नाम पर मुसलमानों के प्रति घृणा इसके बाहरी तत्व हैं, तो उच्च जातीय द्विज विचारधारा और मूल्य तथा जातिवादी पितृसत्ता इसके अंतर्निहित आंतरिक तत्व हैं। हिंदू राष्ट्र और हिंदू राष्ट्रवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष का मतलब है, इन सभी तत्वों के ख़िलाफ़ संघर्ष। इनमें किसी को स्वीकार करके या किसी से समझौता करने से हिंदू राष्ट्र की परियोजना के ख़िलाफ़ संघर्ष को मुकम्मल शक्ल नहीं दी जा सकती और न ही आरएसएस के हिंदू राष्ट्र या अखंड भारत की परियोजना को रोका जा सकता है।

(डॉ. सिद्धार्थ जनचौक के सलाहकार संपादक हैं।)

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