Friday, March 29, 2024

प्रयागराज: चारे के संकट के चलते औने-पौने दाम पर दुधारू जानवर बेंचने को मज़बूर हैं छोटे और भूमिहीन किसान

इलाहाबाद। जौनपुर राजमार्ग से गुज़रते हुए रास्ते में 80-85 साल उम्र की थुलथुल काया में खुर्पा से मेड़ पर घास छीलती एक बुढ़िया को देखकर कदम ठिठक गए। मैंने पूछा अम्मा इस उम्र में इतनी मेहनत-मशक्क्त क्यों कर रही हो। जवाब में उक्त बुढ़ी महिला ने मुझसे कहा कि एक लगेन भैंस है (दूध देने वाली), पर घर में न भूसा है न दाना। घर वाले कह रहे हैं खूंटे पर भूखे मारकर पाप लेने से अच्छा है कि उसे बेंच दें तो कुछ पैसे ही मिल जाएंगे।

मैंने उक्त महिला की आँखों में हालात और भूख के ख़िलाफ़ संघर्ष व प्रतिरोध देखा। उसने अपने टूटते स्वर में आगे कहा कि दाल-सब्जी में तो वैसे ही आग लगी है। भैंस है तो दूध-माठा का सहारा है उसी से दो रोटी खा लेती हूं, बच्चों को दूध मिल जाता है। लरकोर (नवजात बच्चे वाली) पतोहू है उसे भी दूध चाहिए, बीमारी का मौसम है गांव-देश में जो भी बीमार हो रहा है दूध मांगने आ जा रहा है कि डॉक्टर ने दूध से दवाई खाने को कहा है।

मेरे पास कोई सवाल अब बाक़ी न था, न ही मेरे पास उसके किसी सवाल का जवाब था तो चुपचाप आगे बढ़ लिया। एक व्यथा-कथा चार बिस्वा की काश्तकार उर्मिला देवी की भी है। वो बताती हैं कि पिछले साल जून में भैंस ने बच्चा दिया तो व्यापारी 70 हजार रुपये लिये घर घेरे खड़े थे। पैसा देखकर उनके जीवन साथी ने कहा कि बेंच दो, 70 हजार मिल जायेंगे तो कुछ पैसे और मिलाकर दो पक्के कमरे बनवा लेंगे। कच्चा घर का ठिकाना नहीं है बारिश में कब बैठ जाये। लेकिन उर्मिला देवी अपने चार छोटे-छोटे बच्चों का मुंह देखकर दूध के मोह में पड़ गईं।

घास छीलती बुजुर्ग महिला।

वो पति से झगड़ बैठीं यह कहकर कि उनके बच्चों को पिछले एक साल में दूध मयस्सर नहीं हुआ। अब जब भैंस बच्चे करने वाली है तो उसे बेंच दूं ताकि बच्चे फिर दूध से वंचित हो जायें। खैर उस वक़्त तो उर्मिला ने अपनी भैंस बचा लिया लेकिन ठीक दो महीने बाद अगस्त-सितंबर में हुई मूसलाधार बारिश ने उन्हें चारे-भूसे के लिये मोहाल कर दिया। मजबूरन उर्मिला को अपनी वही भैंस महज 38 हजार में बेंच देनी पड़ी।    

मवेशियों को किसानों का धन कहा जाता है, पशु धन। गांव में किसानों व कृषि मजदूरों को इस समय एक नये तरह के संकट का सामना करना पड़ रहा है। भूसे चारे की कमी का संकट। जिसके चलते किसान और ग़रीब तबके के लोग अपने दुधारू जानवरों को बेहद कम क़ीमत पर बेंचने के लिये मज़बूर हैं। क्या यह बिल्कुल नया पैदा हुआ संकट है, या कि यह पहले का संकट है जो अब गंभीर हो गया है, इसके कारण और समाधान क्या हैं। इसे तलाशने की कोशिश में कई गांवों में गया, कई किसानों और भूमिहीन कृषि मज़दूरों से बात किया। उपरोक्त दो केसों के साये में इलाहाबाद, कौशाम्बी, प्रतापगढ़, जौनपुर, वाराणसी, मिर्जापुर जैसे तमाम जिलों के लोगों से आते जाते बस, ट्रेन में बातें हुईं। लोगों ने बताया कि ऐसा कोई गांव मिलना मुश्किल है जहां चौमासे में लोगों ने दुधारू जानवर न बेंचे हों।

सड़क भूसा बिकता हुआ

जानवरों का व्यापार करने वाले गुड्डू यादव व डीगम उपाध्याय बताते हैं कि व्यापारियों के लिये चौमासा मुनाफे का सौदा लेकर आता है। क्योंकि चैती का भूसा लगभग खत्म होने को होता है, कुछ बारिश में नष्ट हो जाता है जिससे किसानों और खेतहीन लोगों के पास अपने मवेशियों को खिलाने के लिये भूसा चारा नहीं होता है। दूसरी ओर बारिश के चलते तालाब और उसके आस-पास की ज़मीन आदि पानी से लबालब हो जाते हैं जिससे चारे की तकलीफ़ बढ़ जाती है। ऐसे में छोटे और भूमिहीन किसान व दिहाड़ी मजदूर लोग अपने जानवरों को भूखा देखने के बजाय अधिया-तिकुरी (आधा, तिहावा दाम) में बेंच देते हैं। जो दुधारू जानवर नहीं होते या बकेन-बिसुक गये (दूध देना बंद) होते हैं उन्हें लोग रात में अपना गांव डंकाकर खुला छोड़ देते हैं।      

बसिकाला (बारिश के चार महीने आषाढ़, सावन, भादों, क्वार) के दिनों में चारा-भूसा का संकट पैदा हो जाता है। ये हमेशा की तकलीफ़ रही है। लेकिन पहले क्या था कि जिनके पास ज़्यादा खेत थे वो एक खेत में चरी बो लेते थे। लेकिन केवल चरी से पेट नहीं भरता, वो बस मिलावन के काम आता था। अभी खेत बँटते बँटते बहुत कम बचे हैं। छोटे किसानों के पास चरी बोने की गुंजाइश लगभग खत्म हो चली है। चरी फिलहाल 700 रुपये बिस्वा बिक रही है।

एक ज़माने में लालाओं की हलवाही करने वाले श्रीनाथ जाटव बताते हैं कि पहले धान की रोपाई के बाद सावन भादों दो महीने निरावन के काम में जाता था। इसके दो फायदे थे, एक तो बैल और दुधारू जानवरों के लिये पर्याप्त मात्रा में हरा चारा मिल जाता था और दूसरा फायदा ये होता था कि हम जैसे भूमिहीन कृषि मजदूरों को खेतों में दो महीने का काम मिल जाता था। लेकिन जब से किसान मुनाफ़े के लालच में अपने खेतों में घासों को जलाने वाली दवायें इस्तेमाल करने लगे तब से निरावन का काम ही खत्म हो गया।

फाफामऊ में मुख्य सड़क पर आमने-सामने एक दर्जन भूसा विक्रेता दुकानें सजाये भूसा बेंच रहे हैं। बारिश के चलते काफी भूसा गीला हो गया है। पूछने पर एक भूसा विक्रेता बताता है कि भूसा 15-18 रुपये प्रति किलो की दर से बेंच रहे हैं। मैंने पूछा कि भूसा इतना महंगा क्यों है तो कहने लगे बाहर से महंगा आ रहा है तो महंगा बेंच रहे हैं। दूसरे बारिश का मौसम है, लोगों के पास रखने की जगह नहीं है, भूसा खराब हो गया है तो इस वजह से भी महंगा है।

एक ब्राह्मण परिवार के साथ साझे में भैंस पालने वाले रामकृपाल यादव बताते हैं कि भूसा चोकर के दाम इस समय आसमान छू रहे हैं। गांव देहात में पहली बात तो किसी के पास भूसा है ही नहीं, जिसे बेंचना था उसने चैती की फसल की मड़ाई के समय ही बेंच दिया था। अभी जिनके पास है भी वो 15 रुपये से कम में छूने नहीं दे रहा है। राम कृपाल बताते हैं कि उनके पास नाम भर का खेत है। भूसे चारे की किल्लत के चलते ही अपनी अकेले की भैंस नहीं पालते, जबकि भैंस बहुत खाने वाली जानवर है। ब्राह्मण के साझे में भैंस पालने का फायदा ये है कि उनके पास खेत है, तो दोनों तूर की फसलों के बाद भैंस को खाने के लिये भूसा, पुआल मिल जाता है। 

गुलाब चंद पटेल साझे की खेती करते हैं, यानि खेत किसी और का श्रम उनका। बाक़ी खाद, पानी, बीज, दवाई, मड़ाई आधा-आधा। गुलाब बताते हैं कि पहले गांव में ही जिनके पास ज़्यादा खेत होता था वो लोग मड़ाई आदि में मदद के बदले पूरा भूसा हमारे जैसे भूमिहीनों को दे दिया करते थे। इसी तरह धान की फसलों के समय धान काटने पीटने के बदले पुआल दे दिया करते थे।

हमारे जैसे खेतविहीन मजदूर दिहाड़ी न लेकर पुआल के बदले धान काट-पीट दिया करते थे। लेकिन जब से हार्वेस्टर मशीनें गांव में आने लगी हैं तब से कटाई, मड़ाई का काम तो छिन ही गया है दुधारू जानवरों का चारा भूसा भी खत्म हो गया है। गुलाब बताते हैं कि हार्वेस्टर मशीनें लगभग एक फीट ऊपर से फसलें काटती हैं और कटाई मड़ाई के साथ साथ काफी मात्रा में भूसा पूरे खेत में बिखेरती चलती हैं। हार्वेस्टर से बहुत भूसा बर्बाद हो जाता है। जिसके चलते एक ओर गांवों में भूसे की कमी हो गई है और दूसरी ओर दाम भी बहुत ज़्यादा बढ़ गया है।

जौनपुर के एक किसान नेता इस संदर्भ में कहते हैं कि लगभग अधिकांश गांवों से चारागाह खत्म हो गये हैं। या तो उन पर अवैध क़ब्ज़ा कर लिया गया है। या फिर उन ज़मीनों का पट्टा हो गया है। इस तरह अब गांवों में पशुओं के चरने के लिये कोई सुरक्षित सार्वजनिक जगह नहीं बची है। जिससे मवेशियों के चराने की संस्कृति खत्म हो चुकी है। चौमासे में खेतों को परती छोड़कर उनकी उर्वरा शक्ति बढ़ाने का रवायत भी अनाज की ज़रूरत और मुनाफे के लालच के चलते विलुप्त हो चुकी है। इसका ख़ामियाजा किसानों को दो तरह से हो रहा है। एक ओर वो दूध की ज़रूरत होते हुए भी अपने दुधारू जानवरों को कम दाम में बेंच रहे हैं दूसरी ओर आवारा जानवर किसानों के खेतों तक आने लगे हैं।

(प्रयागराज से जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)    

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