Friday, April 19, 2024

बॉम्बे हाईकोर्ट ने उपभोक्ता संरक्षण नियम 2020 के प्रावधानों को रद्द किया

बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने जिला और राज्य उपभोक्ता आयोगों के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति को नियंत्रित करने वाले तीन प्रावधानों को रद्द कर दिया। बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने मंगलवार को उपभोक्ता संरक्षण नियम, 2020 के प्रावधानों को रद्द कर दिया, जो राज्य और जिला उपभोक्ता विवाद निवारण आयोगों के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति को नियंत्रित करते हैं।

बॉम्बे हाईकोर्ट ने उपभोक्ता संरक्षण (नियुक्ति के लिए योग्यता, भर्ती की विधि, नियुक्ति की प्रक्रिया, पद की अवधि, इस्तीफा और राष्ट्रपति और राज्य आयोग और जिला आयोग के सदस्यों को हटाने) नियम, 2020 के प्रावधानों को चुनौती देने वाली दो याचिकाओं में निर्णय दिया।

याचिका में नियम 3(2) – राज्य आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिए न्यूनतम 20 वर्ष का अनुभव निर्धारित, नियम 4(2)(सी) जिला आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति के लिए कम से कम 15 वर्ष का अनुभव तथा नियम 6(9) में चयन समिति को आयोग की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अपनी सिफारिशें करने की प्रक्रिया निर्धारित करने के प्रावधान को चुनौती दी गयी थी।

जस्टिस एसबी शुक्रे और जस्टिस एएस किलोर की खंडपीठ ने कहा कि उपरोक्त तीन प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन हैं और उन्हें रद्द कर दिया और  केंद्र सरकार को 4 सप्ताह के भीतर उपरोक्त तीन नियमों को प्रतिस्थापित करते हुए नए नियम बनाने का निर्देश दिया।

खंडपीठ ने उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य बनाम ऑल यूपी उपभोक्ता संरक्षण बार एसोसिएशन तथा मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ के मामलों में उच्चतम न्यायालय के फैसले का हवाला दिया। जिसमें कहा गया है कि न्यायिक कार्यालय अनिवार्य रूप से एक सार्वजनिक ट्रस्ट है जिसमें उच्च सत्यनिष्ठा और विशेषज्ञता वाले व्यक्तियों को न्यायाधीश पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए। खंडपीठ ने माना कि जिन नियमों को चुनौती दी जा रही है, वे सुप्रीम कोर्ट के फैसले का उल्लंघन कर रहे हैं।

2 फरवरी, 2021 को दायर दो याचिकाओं, विजयकुमार दिघे द्वारा एक जनहित याचिका, और डॉ महेंद्र लिमये द्वारा दायर एक रिट याचिका में, महाराष्ट्र के जिला और राज्य आयोगों के अध्यक्ष और सदस्यों के पदों के लिए जारी एक विज्ञापन को चुनौती दी गयी थी। याचिकाकर्ताओं ने नोटिस को रद्द करने की भी प्रार्थना की थी ।

खंडपीठ ने न केवल रिक्ति नोटिस को रद्द कर दिया, बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि इस तरह के नोटिस के अनुसार शुरू की गई चयन प्रक्रिया को रद्द कर दिया जाएगा। आदेश में कहा गया है कि राज्य आयोग के सदस्यों, अध्यक्ष और जिला आयोग के सदस्यों के चयन की नई प्रक्रिया संशोधित नियमों के अनुसार शुरू की जाए और जल्द से जल्द पूरी की जाए।

खंडपीठ से केंद्र सरकार ने अनुरोध किया कि फैसले को 4 सप्ताह के लिए स्थगित रखा जाए क्योंकि फैसले का देशव्यापी प्रभाव होगा। हालांकि, लिमये की ओर से पेश हुए वकील तुषार मंडलेकर ने इस आधार पर प्रार्थना का विरोध किया कि राज्य सरकार पहले से चयनित उम्मीदवारों के पक्ष में नियुक्ति आदेश जारी कर सकती है। लेकिन  केंद्र की दलील में सार पाते हुए, अदालत ने निर्णय को दो सप्ताह के लिए स्थगित कर दिया और यह स्पष्ट कर दिया कि उक्त अवधि के दौरान, कोई नियुक्ति आदेश जारी नहीं किया जाना चाहिए।

इसके पहले उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में स्पष्ट किया था कि उपभोक्ता आयोगों में रिक्त पदों के मुद्दे से निपटने के लिए शीर्ष अदालत द्वारा लिया गया स्वत: संज्ञान मामला, केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए उपभोक्ता संरक्षण नियम 2020 को चुनौती देने में बॉम्बे हाईकोर्ट के रास्ते में कोई बाधा नहीं है।

अधिवक्ता डॉ महिंद्रा लिमये द्वारा बॉम्बे हाईकोर्ट (नागपुर बेंच) के समक्ष एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें उपभोक्ता संरक्षण नियम 2020 के उन प्रावधानों को चुनौती दी है, जो राज्य आयोगों और जिला फोरम में नियुक्ति के लिए क्रमशः 20 वर्ष और 15 वर्ष का न्यूनतम पेशेवर अनुभव निर्धारित करते हैं। हाईकोर्ट ने उपभोक्ता आयोगों में रिक्तियों को भरने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा शुरू किए गए स्वत: संज्ञान मामले को देखते हुए उक्त याचिका में फैसला टाल दिया था।

जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस हृषिकेश रॉय की पीठ ने उक्त आवेदन का निपटारा करते हुए कहा था कि हम केवल रिक्तियों, बुनियादी ढांचे आदि को भरने और देश भर में उपभोक्ता फोरम से संबंधित सभी संबंधित मुद्दों की जांच कर रहे हैं। हम किसी भी नियम या क़ानून की वैधता पर विचार नहीं कर रहे हैं। इस प्रकार हम जो भी दृष्टिकोण चाहते हैं, उसमें नियम या क़ानून की वैधता को चुनौती देने को लेकर कोई बाधा नहीं है।

हाईकोर्ट में दाखिल याचिका में कहा गया था कि नियम 3(2)(बी) और 4(2)(सी) के अनुसार राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग के निर्णयकारी सदस्य के रूप में नियुक्त होने के लिए एक स्नातक को उपभोक्ता मामलों, कानून, सार्वजनिक मामलों, प्रशासन, अर्थशास्त्र, वाणिज्य, उद्योग, वित्त, प्रबंधन, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, सार्वजनिक स्वास्थ्य या चिकित्सा में विशेष ज्ञान और कम से कम बीस साल का पेशेवर अनुभव होना चाहिए, जबकि जिला फोरम के लिए उन्हीं विषयों में ज्ञान और पंद्रह वर्षों का अनुभव होना चाहिए।

याचिका में कहा गया था कि यह मानदंड भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन कर रहा है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उच्च न्यायालयों में 10 साल से अधिक प्रैक्टिस लेकिन 20 साल से कम प्रैक्टिस करने वाले अधिवक्ताओं को राज्य उपभोक्ता विवाद निवारण आयोग में सदस्यों की नियुक्ति से स्पष्ट रूप से बाहर रखा गया है, जबकि वे भारत के संविधान के अनुच्छेद 217 (2) के अनुसार उच्च न्यायालय के जज के रूप में नियुक्त होने के लिए योग्य हैं।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं। आप आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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