Saturday, April 20, 2024

आपराधिक मामले छिपाने वाला कर्मचारी नियुक्ति के अधिकार का हकदार नहीं

उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को एक फैसले में कहा, अगर कोई कर्मचारी अपने खिलाफ आपराधिक मामलों की जानकारी छिपाता है या झूठा शपथपत्र देता है तो वह नियुक्ति के अधिकार का हकदार नहीं रहता।

राजस्थान हाईकोर्ट के 2019 के फैसले को खारिज करते हुए जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस एएस बोपन्ना की पीठ ने यह टिप्पणी दी। राजस्थान हाईकोर्ट ने नियुक्ति के दौरान लंबित आपराधिक मामले की जानकारी छिपाने वाले एक कर्मचारी के बर्खास्तगी के आदेश को खारिज कर दिया था। पीठ ने कहा, सवाल इस बात का नहीं है कि व्यक्ति अपराध में शामिल था या नहीं बल्कि यहां भरोसे का सवाल है।

पीठ ने कहा कि आपराधिक मामले की जानकारी छिपाकर या झूठा शपथपत्र देकर उसने कंपनी का भरोसा तोड़ा है। यह विश्वसनीयता की बात है। जब शुरुआत में ही आवेदक इस तरह की धोखाधड़ी करता है तो नियोक्ता के मन में यह भ्रम हमेशा रहेगा कि भविष्य में इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। ऐसे में कर्मचारी नियुक्ति का अपना अधिकार खो देता है और कंपनी उसे निकालने का फैसला ले सकती है।

पारदर्शिता के लिए लाई गई निविदा नीति की उलट है जमीनी हकीकत

उच्चतम न्यायालय के जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस हृषिकेश रॉय की पीठ ने शुक्रवार को कहा कि पारदर्शिता के लिए लाई गई निविदा नीति की जमीनी हकीकत वास्तव में बिल्कुल उलट है और यह इसके उद्देश्यों को परास्त कर रही है। निविदा प्रणाली को आर्थिक गतिविधियों में सरकार की भूमिका बढ़ाने और पारदर्शिता लाने के लिए लाया गया, लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि कोई भी निविदा विवाद रहित नहीं होती है। शीर्ष अदालत ने इस तरह की ‘नासमझ’ याचिकाएं दायर करने की प्रवृत्ति से नाराज होकर ऐसे मुकदमों में लिप्त वाणिज्यिक संस्थाओं पर जुर्माना लगाने का फैसला किया है।

पीठ ने कहा कि निविदा क्षेत्राधिकार वाणिज्यिक मामलों के परीक्षण के लिए बनाया गया था। कंपनियां लगातार निविदाओं के अवार्ड को चुनौती देती हैं। कोर्ट ने कहा कि हमारा मानना है कि जो पक्ष इस मुकदमेबाजी में सफल हो, उसे आर्थिक लाभ मिलना चाहिए और इसका भुगतान हारने वाले पक्ष द्वारा किया जाना चाहिए।

पीठ ने तमिलनाडु सरकार द्वारा जारी एक निविदा की शर्तों को लेकर कॉरपोरेट संस्थाओं के बीच उठे वाणिज्यिक विवाद का निपटारा करते हुए कहा कि ऐसे संविदात्मक मामलों की न्यायिक समीक्षा की अपनी सीमाएं हैं। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने यूफ्लेक्स लिमिटेड को करीब 23.25 लाख रुपए का अवार्ड दिया। साथ ही तमिलनाडु सरकार को 7.58 लाख रुपए बतौर मुआवजा देने का निर्देश दिया। इस मुआवजे का भुगतान मुकदमे का बचाव करने वाली दो कंपनियों को करने का निर्देश दिया गया है।

सुप्रीम कोर्ट के कंधों पर पहले से ही काफी बोझ

उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को कहा कि उसके कंधों पर पहले ही काफी बोझ और वह इसे और नहीं बढ़ाना चाहता। पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में लंबित एक मामले को उच्चतम न्यायालय में स्थानांतरित करने के अनुरोध वाली याचिका खारिज करते हुए शुक्रवार को जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस बी वी नागरत्ना की पीठ ने यह बात कही। पीठ ने कहा कि हमारे कंधों पर पर्याप्त बोझ है, इसे और नहीं बढ़ाना चाहते।

पीठ ने याचिका खारिज करते हुए कहा कि सिर्फ इसलिए कि हाई कोर्ट मामले को सूचीबद्ध नहीं कर रहा है, इसका मतलब यह नहीं है कि शीर्ष अदालत को इसे अपने पास स्थानांतरित कर लेना चाहिए।याचिकाकर्ता के वकील से पीठ ने कहा कि हम अपना बोझ नहीं बढ़ाना चाहते। हमारे कंधों पर पहले से काफी बोझ है। वकील ने कहा कि मामला 2019 से उच्च न्यायालय में विचाराधीन है।

याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि उच्चतम न्यायालय इसी तरह के एक मामले पर विचार कर रहा है और इसमें शामिल पक्ष भी वही है। पीठ ने कहा कि उच्चतम न्यायालय राजमार्गों पर शराब की दुकानों से संबंधित मामले की सुनवाई कर रही है, जबकि हाईकोर्ट के समक्ष लंबित याचिका राजमार्गों के पहुंच नियंत्रण से संबंधित है।

पीठ ने कहा कि कई नए राजमार्गों पर अब पहुंच नियंत्रण है और यह महत्वपूर्ण है क्योंकि राजमार्ग गांवों और कस्बों से होकर गुजरते हैं। अदालत ने कहा कि दिल्ली-मुंबई राजमार्ग के कुछ हिस्सों को नियंत्रित किया जा रहा है। ये सभी नीतिगत मामले हैं। हम इसे स्थानांतरित नहीं करेंगे।

 तारीख पर तारीख: सात साल पुराने मामले में निचली अदालत ने दिए 78 स्थगन आदेश

उच्चतम न्यायालय ने देहरादून की एक निचली अदालत में एक मामले की सुनवाई के 78 स्थगनों पर गहरी नाराजगी जताई। उच्चतम न्यायालय ने छह माह के भीतर सुनवाई पूरी करने का निर्देश दिया। मामला साल 2014 से चल रहा है जो तीन लोगों के खिलाफ धोखाधड़ी और जालसाजी से संबंधित है। इस मामले में आज तक आरोप तक तय नहीं किए गए हैं।

जस्टिस एएम खानविलकर की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि निचली अदालत में सात साल पुराने मामले में सुनवाई एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी। पीठ ने जांच अधिकारी को निर्देश दिया कि वह निर्धारित तारीखों में गवाहों को परीक्षण के लिए अदालत में पेश करे।

पीठ ने कहा कि हम निचली अदालत को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देते हैं कि इस आदेश की प्रति प्राप्त होने की तारीख से छह महीने के भीतर सुनवाई पूरी की जाए। पीठ ने कहा कि हमें यह निर्देश इसलिए जारी करना पड़ा क्योंकि हमने देखा कि निचली अदालत लगभग सात साल पहले 78 स्थगन के बावजूद इस मामले पर एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी। यहां तक कि आरोप भी तय नहीं किए गए। पीठ में न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति रविकुमार भी शामिल थे।

उत्तराखंड हाई कोर्ट ने मामले के जल्द निपटारे की याचिकाकर्ता डॉ. अतुल कृष्ण की याचिका खारिज कर दी थी। इसके बाद उन्होंने शीर्ष कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उनकी याचिका पर उच्चतम न्यायालय ने 15 सितंबर को यह आदेश जारी किया।

याचिकाकर्ता ने वर्ष 2012 में मेरठ जिले के जानी थाने में प्रतिवादियों के खिलाफ भूमि सौदे को लेकर धोखाधड़ी और जालसाजी की एफआईआर दर्ज करवाई थी। संपत्ति से जुड़े कागजात देहरादून जिले से संबंधित थे, इसलिए मामले को वहां स्थानांतरित कर दिया गया। 28 जून, 2014 से 15 अक्टूबर, 2020 के बीच मामले पर सुनवाई के लिए 78 तारीखें दी गईं, लेकिन प्रतिवादियों के खिलाफ आरोप तक तय नहीं किए गए।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल इलाहाबाद में रहते हैं।)

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