Thursday, April 18, 2024

स्टेन स्वामी की मौत ने फिर साबित किया भारत में न कोई मानवाधिकार है और न ही न्याय व्यवस्था

एल्गार परिषद के कई सदस्यों और जाने-माने दलित अधिकार और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को अलग-अलग समय पर देश के अलग-अलग कोनों से गिरफ़्तार किया गया और उन पर ‘प्रधानमंत्री की हत्या की साज़िश’ और ‘देश की एकता और अखंडता को तोड़ने की कोशिश करने’ जैसे गंभीर आरोप लगा दिए गए, वे सभी जेल में हैं। आ‍दिवासी और वंचितों के अधिकार के लिए मुखर रहने वाले और भीमा कोरेगांव हिंसा से जुड़े मामले में आरोपी स्‍टेन स्‍वामी का सोमवार को निधन हो गया। मुंबई के होली फैमिली हॉस्पिटल में उन्होंने आखिरी सांस ली। स्‍टेन स्‍वामी की जमानत याचिका पर सोमवार को ही सुनवाई होनी थी। उनके निधन पर बहुत सारे लोगों ने शोक जताया है।

विपक्ष के नेताओं ने केंद्र पर निशाना साधते हुए बुजुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता की गिरफ्तारी को राष्‍ट्रीय अपमान और उनकी मौत को हत्या बताया है। यह सभी को पता है कि स्टेन स्वामी का पूरा जीवन सामाजिक गतिविधियों से भरा रहा है। स्टैनिस्लॉस लोर्दूस्वामी उर्फ फादर स्टेन स्वामी एक रोमन कैथोलिक पादरी थे, जिनका जीवन 1990 के दशक से ही झारखंड के आदिवासियों और वंचितों के अधिकारों के लिये काम करने के लिए पूरी तरह समर्पित रहा। 84 वर्षीय स्वामी को भीमा-कोरेगांव मामले में कथित संलिप्तता को लेकर एनआईए (NIA) ने गिरफ्तार किया था।

2018 में भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा के बाद पुणे पुलिस ने कई वामपंथी कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के घरों और दफ़्तरों पर छापे मारे थे। पुलिस ने उनके लैपटॉप, हार्ड डिस्क और दूसरे दस्तावेज़ ज़ब्त किए थे। इनसे मिले दस्तावेज़ों को अदालतों में सबूत के तौर पर पेश करते हुए पुलिस ने दावा किया था कि इसके पीछे प्रतिबंधित माओवादी संगठनों का हाथ था। यद्यपि अमेरिका के जाने माने समाचार पत्र ‘द वाशिंगटन पोस्ट’ ने अमेरिका की एक साइबर फ़ोरेंसिक लैब की जाँच रिपोर्ट के आधार पर दावा किया था कि इस मामले में गिरफ़्तार किए गए कम-से-कम एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ सबूत प्लांट किए गए थे। रोना विल्सन, वरवर राव, सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुंबडे, गौतम नवलखा, सोमा सेन समेत 14 से अधिक सामाजिक कार्यकर्ताओं को इस मामले में गिरफ़्तार किया गया है। शुरुआत में इस मामले की जांच पुणे पुलिस ने की थी, बाद में नेशनल इंवेस्टिगेटिव एजेंसी (एनआईए) को इसकी जांच सौंप दी गई। एनआरसी और दिल्‍ली दंगों के मामले में भी मानवाधिकार हनन और उत्पीड़न स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। अब तो यह एक प्रथा ही बन गई है कि सरकार और सत्तारूढ़ दल से असहमति के कारण किसी भी व्यक्ति को बिना किसी सबूत के देशद्रोह के काले कानून के अंतर्गत जेल भेज दिया जाए।

इतिहास गवाह है कि शताब्दियों से मानव, सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए निरंतर भटकता रहा है और इसी कारण दुनिया में कई युद्ध, क्रांति, बगावत, विद्रोह, हुए हैं जिसके कारण अनेक बार सत्ता परिवर्तन हुए हैं। अगर भारत के संदर्भ में बात की जाये तो हमें यह पता है कि हमारा भारतीय समाज आरंभ में वर्ण व्यवस्था पर आधारित था और धीरे -धीरे वह जाति व्यवस्था में परिवर्तित हो गया। असमानता, अलगाववाद, क्षेत्रवाद, रूढ़िवादिता समाज में पूरी तरह व्याप्त थी। यह सामंती दौर था जहां गरीब, दलित, महिलाओं और विकलांग व्यक्तियों के प्रति अनादर भाव था। वे समानता के अधिकारी नहीं थे। उन्हें न्याय नहीं मिलता था। विडंबना यह है कि आज भी जनमानस में यही धारणा है कि सिर्फ सबल को ही मिलता है। प्रभावशाली और पैसे वालों को अधिक शीघ्रता से सुना जाता है। उनके पास महंगे वकील होते हैं। इसलिए वे न्याय को प्रभावित कर सकते हैं।

आजादी के बाद यदि देखा जाए तो विश्व के हमारे सबसे बड़े लोकतंत्र की स्थिति में कुछ प्रत्यक्ष सुधार तो अवश्य हुआ है। संविधान की कुछ पालना हुई है लेकिन समाज का बड़ा वर्ग जो प्रभावशाली नहीं है वह अभी भी न्याय की तलाश में भटकता नजर आता है। अदालतों में विचाराधीन मुकदमों को देखा जाये जो अनुमानतः कोई तीन करोड़ की संख्या है उसका निपटारा कब तक हो पायेगा कह पाना मुश्किल है। मुकदमों का यह पिरामिड देशवासियों के लिए चिंता और भय का कारण है। कुछ फास्ट ट्रैक कोर्ट बने हैं लेकिन स्थिति यथावत है। यूं अदालती फैसलों में पांच-छह साल लगना तो सामान्य-सी बात है, पर यदि बीस-तीस साल में भी निपटारा न हो तो आम लोगों के लिए यह किसी नारकीय त्रासदी से कम नहीं है। वैसे तो न्याय का मौलिक सिद्धांत यह है कि ‘न्याय में विलंब होने का मतलब न्याय को नकारना है’। देश की अदालतों में जब करोड़ों मामलों में नित्य न्याय नकारा जा रहा हो तो आम आदमी को न्याय सुलभ हो पाना मृग मरीचिका जैसा ही है।

वस्तुत: अदालतों में त्वरित निर्णय न हो पाने के लिए प्रशासनिक कार्यप्रणाली ही ज्यादा दोषी है जो अंग्रेजी शासन की देन है। उसमें व्यवहारिक परिवर्तन आज तक नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हों, देश के विधि मंत्री हों या अन्य, लंबित मुकदमों के अंबार को देखकर चिंता में तो डूब जाते हैं, लेकिन किसी को हल नजर नहीं आता है। उधर सुप्रीम कोर्ट, अदालतों में जजों की कमी का रोना रोता है। उनके अनुसार उच्च न्यायालय के लिए 1500 और निचली अदालतों के लिए 23000 जजों की आवश्यकता है। अभी की स्थिति यह है कि उच्च न्यायालयों में ही 280 पद रिक्त पड़े हैं। जजों की कार्य कुशलता के संबंध में उड़ीसा हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त चीफ जस्टिस बिलाई नाज ने कहा था कि मजिस्ट्रेट कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक के लिए कई जज फौजदारी मामले डील करने में अक्षम हैं।

1998 की फौजदारी अपीलें बंबई उच्च न्यायालय में इसलिए विचाराधीन पड़ी हैं क्योंकि कोई जज प्रकरण का अध्ययन करने में दिलचस्पी नहीं लेता। पदों की कमी और रिक्त पदों को भरे जाने में विलंब ऐसी समस्याएं हैं, जिनका निराकरण जल्दी होना चाहिए किंतु यहां भी यथावत शिथिलता देखी जा सकती है। समाचार-पत्रों और टीवी के सर्वव्यापी अस्तित्व के बावजूद नोटिस तामील के लिए उनका सहारा नहीं लिया जाता। नोटिस तामील होने में अत्यधिक वक्त जाया होता है। आवश्यकता इस बात की है कि कानूनों में तत्संबंधी सुधार कर जमानत और अपीलों की चेन में कटौती की जाए और रोज पेशियां बढ़ाने पर बंदिश लगाई जाए। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि दलित अत्याचार संबंधी कानून को कभी ठीक से लागू ही नहीं किया गया। दलित अत्याचार के मामले जल्दी निपटाने के लिए न तो विशेष अदालतें बनाई गईं और न ही पुलिस अधिकारियों को दलितों-आदिवासियों के प्रति अधिक संवेदनशील बनाने के लिए कानून के अहम प्रावधानों के बारे में ठीक से अवगत कराने का प्रयास हुआ।

सच्चाई तो यह भी है कि न्यायपालिका की शिथिलता और अकुशलता से अपराध और आतंकवाद को भी बढ़ावा मिलता है। हमारे संविधान में सामाजिक और आर्थिक न्याय की गारंटी समस्त नागरिकों को एवं जीवन जीने की गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को दी गई है। सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित के बीच सामंजस्य स्थापित करना है। इसलिए कल्याणकारी राज्य की कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय को ध्यान में रखते हुये समाजवादी व्यवस्था का प्रावधान भी रखा गया। पर राजनीतिक स्वार्थों और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ने समाजवादी स्वप्न साकार नहीं होने दिया। राजनीतिक और ब्यूरोक्रेट भ्रष्टाचार में लिप्त होते गए।

देश में भ्रष्टाचार इतना सर्वव्यापी हो चुका है कि सम्प्रति व्यवस्था का कोई भी कोना उसकी सड़ांध से बचा नहीं है, लेकिन फिर भी उच्च स्तरीय न्यायपालिका कुछ अपवाद छोड़कर सामान्यतया साफ-सुथरी ही कही जाएगी। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के एक प्रतिवेदन के अनुसार निचले स्तर की अदालतों में लगभग 2630 करोड़ रुपया बतौर रिश्वत दिया गया था। अब तो स्थिति पूरी तरह अदृश्य और अकल्पनीय है। प्रेस ने इस तरफ से अपना ध्यान हटा लिया है। अतः मुकदमों के निपटारे में विलंब का एक कारण भ्रष्टाचार भी है। उच्चतम न्यायालय और हाईकोर्ट के जजों को हटाने की संवैधानिक प्रक्रिया इतनी जटिल है कि कार्रवाई किया जाना बहुत कठिन होता है। पर राजनीतिक दबाव के कारण यह शीघ्रता से होती है। दिल्‍ली हाईकोर्ट के जज मुरलीधरन इसके स्पष्ट उदाहरण हैं।

न्यायिक आयोग के गठन का मसला सरकारी झूले में वर्षों से झूल रहा है। एक पहलू यह भी है कि यदि विगत सात दशकों में राज्य के तीन अंगों अर्थात विधायिका, कार्यपालिका तथा न्याय पालिका के प्रदर्शन पर नजर डाली जाए तो इनमें न्यायपालिका को बेहतर माना जाएगा। अनेक अवसरों पर उसने विधायिका और कार्यपालिका द्वारा संविधान के उल्लंघन को रोका है। उसकी सक्रियता ने जनजीवन में एक नई उम्मीद भी पैदा की लेकिन न्यायालय से पूर्व की न्याय प्रक्रिया किस तरह प्रारम्भ होती है इसे भी देखना आवश्यक है।

उच्चतम न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद-21 में विवक्षित गरिमामयी जीवन की विभिन्न व्याख्याओं से स्पष्ट है कि मानव जीवन पशुवत नहीं है और सम्मान व गरिमा के साथ जीवन यापन करना हमारा अधिकार है और यह मानवाधिकार भी है। लेकिन ऐसा एक स्वस्थ, पारदर्शी, सामाजिक, आर्थिक व प्रशासनिक प्रणाली में ही सम्भव है। लेकिन जिस व्यवस्था के बल पर देश में सुशासन लाने की बात होती रही है वही व्यवस्था कुशासन की नींव बन चुकी है। सवाल यह है कि आखिर क्या वजह रही कि पुलिस व्यवस्था विफलता और भ्रष्टाचार के कगार पर है। ‘इण्डिया करप्शन एंव ब्राइवरी रिर्पोट’ के अनुसार भारत मे रिश्वत मांगे जाने वाले सरकारी कर्मचारियों में से तीस प्रतिशत की भागीदारी तो मात्र पुलिस तन्त्र की है।

भारत में पुलिस के हस्तक्षेप का दायरा बहुत ही विस्तृत है इसीलिए पुलिस के पास असीमित अधिकार हैं। वह राज्य सत्ता की सबल संस्था है, सत्ता का सशक्त औजार भी है। जाहिर है उसका चरित्र राजसत्ता के चरित्र से अलग नहीं हो सकता। पुलिस द्वारा रिश्वत प्राथमिकी दर्ज करवाने, आरोपी के खिलाफ मामला दर्ज करने मे कोताही बरतने या मामला न दर्ज करने तथा जाँच करते समय सबूतों को नजरंदाज करने सम्बन्धी मामलों मे ली जाती है। रसूखदारों के दबाव मे काम करना तथा अवांछित राजनैतिक हस्तक्षेप को झेलना पुलिस अपना कर्तव्य समझने लगी है। पुलिस रिफॉर्म और पुनर्संगठन की आवश्यकता कई दशकों से महसूस की जा रही है लेकिन इस पर अमल नहीं किया जाता। केंद्र के गृह मंत्री एवं कानून मंत्री कोई पहल नहीं करते। उनके लिए यह सर्वथा लाभ की स्थिति है कि कानून व्यवस्था राज्यों की जिम्मेदारी है इसलिए वे कुछ नहीं कर सकते। उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों और हरियाणा में दलित अत्याचार की हाल की घटनाएं इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि किस तरह बहुसंख्यकों एवं खाप पंचायतों ने ऐसे हमलों की योजना बनाई और उस पर खुलेआम अमल करवाया।

आगजनी तथा हत्याओं में लिप्त अपनी जाति के लोगों को बचाने में खाप पंचायतें आगे आईं। सांप्रदायिक तनाव बनाया गया। दंगे करवाये गए। दलितों को जिंदा जलाया गया। चुनाव और वोट की राजनीति की गयी। प्रायः यह देखा जाता है कि पुलिस एवं प्रशासनिक अमला ऊंची-दबंग जातियों के हितों की हिफाजत करने में लगे रहते हैं। अल्पसंख्यकों के प्रति भी इसी तरह का भेदभाव देखने को मिलता है। पुलिस चाहे-अनचाहे बहुसंख्यकों के समर्थन में आ जाती है।

हालांकि पुलिस तंत्र की स्थापना, कानून-व्यवस्था को कायम रखने के लिये की गई थी तथा आज भी सामाजिक सुरक्षा तथा जनजीवन को भयमुक्त एवं सुचारू रूप से चलाना पुलिस तन्त्र का विशुद्ध कर्तव्य है। इस क्षेत्र में पुलिस को पर्याप्त लिखित एवं व्यवहारिक अधिकार भी प्राप्त हैं भारत के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक विकास, बढ़ती जनसंख्या, प्रौद्योगिकी का विकास, अपराधों का सफेद कॉलर होना इन तमाम परिस्थितियों के कारण पुलिस तन्त्र की जवाबदेही के साथ जिम्मेदारी भी बढ़ी है। लेकिन भारतीय समाज में पुलिस की भयावह छवि, जनता के साथ मित्रवत ना होना, अपने अधिकारों के दुरुपयोग और बढ़ते राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण वह आरोपों से घिरती चली गई है।

आज स्थिति यह है कि पुलिस बल समाज के तथाकथित ठेकेदारों, नेताओं और सत्ता की कठपुतली बन गया है। समाज का दबा-कुचला वर्ग तो पुलिस के पास जाने से भी डरता है। पुलिस प्रशासन को तमाम बुराइयों तथा कुरीतियों ने घेर लिया है। पुलिस में सामान्यतया भ्रष्टाचार और अपराधीकरण के कई मामले हमारे सामने आते रहते हैं।

चूंकि पुलिस के पास नागरिक-समाज से दूरियाँ बनाये रखने और उनके ऊपर असम्यक और अनअपेक्षित प्रभाव बनाये रखने की अनेक व्यवहारिक शक्तियाँ हैं अतः साधारण वर्ग अपनी आवाज उठाने की हिम्मत नहीं कर पाता। और यदि वह साहस जुटाता भी है तो उसके भयावह परिणाम भी उसे भोगने पड़ते हैं। जाहिर है जब तक समाज के मानस में बदलाव नहीं होगा यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या हमारे लिए सम्भव होगा कि हम जमीनी स्थिति में कोई गुणात्मक प्रभाव अंकित कर सकें? इसे सिर्फ नए किस्म के विवेकसम्मत और वैज्ञानिक सुधारों एवं वस्तुनिष्ठ सांस्कृतिक आन्दोलनों से क्रियान्वित किया जा सकता है।

कार्यपालिका और न्यायपालिका प्रताड़ित व्यक्ति की यहाँ कोई मदद नहीं कर पातीं क्योंकि उनका तो आधार ही पुलिस पर टिका होता है। ऐसे में सामान्य व्यक्ति को न्याय मिलना बहुत दूर की संभावना ही कही जाएगी। चौथा खंभा कहलाने वाला मीडिया भी अंततः राजनीति के दलदल और मुनाफा कमाने के औजार के रूप में तब्दील हो चुका है। अब वह भी सामान्य व्यक्ति के दुःख दर्द का साझीदार नहीं है। ऐसे में

मानवाधिकार एक सुखद परिकल्पना भर है। यूं तो देश में एक मानवाधिकार आयोग भी है जो कभी-कभी किसी मामले में संज्ञान ले लेता है पर उसका अस्तित्व महज औपचारिक ही कहा जाएगा। अब स्थितियां दिन पर दिन बिगड़ती जा रही हैं अतः संवेदनशील नागरिकों को इस परिस्थिति पर गंभीरता से विचार करना होगा।

(शैलेंद्र चौहान साहित्यकार और विश्लेषक हैं। आप आजकल जयपुर में रहते हैं।)

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