Friday, March 29, 2024

विश्व नेता बनने की चाह या अमेरिका का पिछलग्गू बनने की राह

समरकंद में हुए शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन के अवसर पर रूस के राष्ट्रपति के साथ द्विपक्षीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 16 सितंबर 2022 के अपने उद्घाटन भाषण में कहा- “मैं जानता हूँ कि आज का युग युद्ध का है नहीं और हमने फ़ोन पर भी कई बार आपसे इस विषय पर बात की है कि डेमोक्रेसी और डिप्लोमेसी और डायलाग ये सारी बातें ऐसी हैं कि जो दुनिया को स्पर्श करती हैं।”

पश्चिमी मीडिया को प्रधानमंत्री का यह कहना कि -आज का युग युद्ध का है नहीं- बड़ा पसंद आया और इस कथन को उन्होंने इस रूप में परिभाषित किया कि भारत ने अंततः अमेरिका और नाटो से जुड़े यूरोपीय नेताओं का अनुरोध स्वीकार कर लिया है और अब वह यूक्रेन के मामले में रूस से दूरी बना रहा है।

यदि प्रधानमंत्री के पूरे वक्तव्य पर नजर डाली जाए(जिसमें रूस और भारत की सुदीर्घ एवं प्रगाढ़ मैत्री और रूसी राष्ट्रपति पुतिन के साथ स्वयं के घनिष्ठ संबंध का ज़िक्र है) तो उनके उपर्युक्त कथन की इस प्रकार की व्याख्या अतिरंजित लग सकती है। किंतु यह भी सच है कि उक्त कथन पूरे वक्तव्य की मूल भावना से संगत न लगते हुए भी इसका हिस्सा है और इसे एक विशाल देश के प्रधानमंत्री द्वारा एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर पूरी जिम्मेदारी से की गई टिप्पणी माना जा सकता है।

विशेषज्ञों ने अनेक प्रकार से प्रधानमंत्री के उक्त कथन को व्याख्यायित किया है। सर्वप्रथम एक अर्थ तो यह निकाला गया कि रूस-यूक्रेन के मध्य जो कुछ भी हो रहा है वह प्रधानमंत्री की दृष्टि में टकराव(कॉनफ्लिक्ट) नहीं है अपितु युद्ध(वॉर) है। प्रधानमंत्री के कथन को आधार बनाकर यह भी सवाल उठाया जा रहा है कि क्या वे अमेरिका के आधिपत्य वाले पश्चिम समर्थित एक ध्रुवीय विश्व को सकारात्मक नजरिए से देखते हैं? यदि ऐसा है तो उपनिवेशवाद के शिकंजे से बड़े संघर्षों के बाद आज़ाद हुए देश के प्रधानमंत्री का यह मानना क्या चौंकाने वाला और दुःखद नहीं है? क्या रूस की अर्थव्यवस्था को नेस्तनाबूद करने के अमेरिकी सपने को साकार करने में हमारी भी कोई भूमिका होगी?

प्रधानमंत्री अपने वक्तव्य में भारत-रूस की मैत्री का उल्लेख करते हुए भावुक नजर आए और यह मैत्री है ही विलक्षण। सोवियत संघ के जमाने से ही हमारे पारस्परिक संबंधों का आधार आपसी हितों की सिद्धि के लिए मोलभाव और सौदेबाजी से अधिक एक दूसरे पर विश्वास और सम्मान रहा है। 1971 का वह दौर कौन भूल सकता है जब सोवियत संघ हमारी रक्षा के लिए चट्टान की भांति खड़ा रहा था। सोवियत संघ विघटित हुआ, रूस का तेवर और कलेवर बदला किंतु विदेश नीति लगभग यथावत रही, रिश्तों की गर्माहट में कुछ खास अंतर नहीं आया।

भारत उन कुछ देशों में है जो रूस यूक्रेन विवाद से आर्थिक रूप से अप्रभावित रहा है बल्कि लाभान्वित ही हुआ है। हमने तटस्थता का रुख अपनाया और अपने आर्थिक सामरिक हितों को वरीयता दी। इस बात के लिए मोदी सरकार की प्रशंसा भी हुई थी कि अमेरिका के दबाव में न आते हुए उसने रूस के साथ जुड़े हितों और पुराने संबंधों को ध्यान में रखते हुए रूस-यूक्रेन विवाद पर अपना दृष्टिकोण तय किया। और भारत ऐसा अकेला देश नहीं है, ईरान,तुर्की, सऊदी अरब और मिस्र जैसे देशों ने रूस-यूक्रेन टकराव के दौर में रूस से अपने रिश्ते प्रगाढ़ किए हैं।

यह सवाल भी पूछा जाना लाजिमी है कि भारत की अपनी प्राथमिकताओं और वैश्विक परिदृश्य की जटिलताओं से एकदम असंगत प्रधानमंत्री की यह दार्शनिक अभिव्यक्ति क्या विश्व नेता बनने की उनकी महत्वाकांक्षा का परिणाम है जो एक पुराने मित्र को गलत मौके पर दी गई नेक सलाह के रूप में सामने आई है।

यह एक सर्वज्ञात तथ्य है कि लगभग सभी देश शांति, सहयोग और उदारता के आकर्षक प्रवचनों का उपयोग संकीर्ण स्वार्थों और राष्ट्रीय हितों की सिद्धि के लिए तैयार की गई विदेश नीति की स्याह और डरावनी कारगुजारियों को छिपाने के लिए करते रहे हैं। अन्य देशों पर पश्चिमी जगत का दबाव है कि वे रूस से व्यापारिक संबंध तोड़ लें। किंतु अटलांटिक काउंसिल मैगज़ीन में प्रकाशित एक आलेख के अनुसार लगभग 1000 बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने वादा किया था कि वे रूस यूक्रेन टकराव के कारण रूस छोड़ देंगी लेकिन हकीकत यह है कि केवल 106 पश्चिमी कंपनियों ने रूस छोड़ा और 1149 अभी रूस में बनी हुई हैं, इनमें लगभग 75 प्रतिशत कंपनियां ऐसी हैं जिनका शुमार दुनिया की नामचीन कंपनियों में होता है।

अनेक विश्लेषक हमें यह ध्यान दिलाते हैं कि रूस के सुदूर पूर्व में जारी सखालिन-2 तेल और प्राकृतिक गैस प्रोजेक्ट बदस्तूर जारी है। ऊर्जा के क्षेत्र में विश्व की सबसे बड़ी कंपनियों में शुमार मित्सुई और मित्सुबिशी जापान सरकार के सहयोग से इस परियोजना पर कार्य कर रही हैं। इस परियोजना से जापान की कुल विद्युत आवश्यकता के 9 प्रतिशत की पूर्ति होती है, इसलिए इनके रूस छोड़ने का कोई सवाल ही नहीं उठता। पश्चिमी देश रूस से उर्वरक खरीद रहे हैं और इसके जल मार्ग से परिवहन पर कोई प्रतिबंध नहीं है किंतु रूस से गैर पश्चिमी देशों को भेजे जाने वाले उर्वरक और खाद्यान्न पर प्रतिबंध जारी है।

अनेक विषय विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि वैश्विक खाद्य संकट की अफवाह अमेरिका द्वारा केवल इसलिए उड़ाई गई थी कि यूक्रेन के खाद्यान्न भंडारों में जमा गेहूँ की बिक्री अमेरिकी कंपनियों के माध्यम से यूरोपीय देशों में कराने के मार्ग में रूस बाधा न बन सके। अमेरिकी कंपनियों ने यूक्रेन की कृषि भूमि का एक बड़ा हिस्सा खरीद लिया है और उसके अनाज व्यापार पर इनका आधिपत्य है।

जब आदरणीय प्रधानमंत्री रूसी राष्ट्रपति से यह कहते हैं कि -आज फिर एक बार हम मिल रहे हैं और आज भी दुनिया के सामने जो सबसे बड़ी चिंता है और खासकर के डेवलपिंग कंट्रीज को फूड सिक्योरिटी की, फ्यूल सिक्योरिटी  की, फ़र्टिलाइज़र की ऐसी जो समस्याएँ हैं, हमें जरुर कुछ ना कुछ रास्ते निकालने होंगे और आपको भी उसमें पहल करनी होगी- तब कहीं न कहीं वे अमेरिका और पश्चिमी देशों के नैरेटिव पर अपनी सहमति की मुहर लगा रहे होते हैं और इन देशों के दोगलेपन को नजरअंदाज कर रहे होते हैं।

अगस्त के अंतिम सप्ताह में भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में यूक्रेन पर प्रक्रियात्मक मतदान के दौरान रूस के विरुद्ध मतदान किया। सुरक्षा परिषद द्वारा यूक्रेन के राष्ट्रपति को बैठक को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया। संयुक्त राष्ट्र में रूसी राजदूत द्वारा बैठक में जेलेंस्की की भागीदारी के विषय में एक प्रक्रियात्मक मतदान कराने का अनुरोध किया गया। जेलेंसकी की भागीदारी के पक्ष में भारत समेत 13 सदस्यों ने मत दिया,रूस ने इस आमंत्रण के विरुद्ध मत दिया जबकि चीन ने मतदान में भाग नहीं लिया। प्रधानमन्त्री जी के भाषण के बाद अनेक जानकार यह अनुमान लगा रहे हैं कि यदि संयुक्त राष्ट्र में भविष्य में रूस पर कड़े प्रतिबंध लगाने विषयक कोई प्रस्ताव आता है तो उसे भारत का समर्थन मिल सकता है।

प्रधानमंत्री का यह कहना कि आज का युग युद्ध का नहीं है, एकदम सच है किंतु जिस अवसर पर जिस प्रकार से उन्होंने यह बात कही है उससे यह संकेत जाता है कि युद्ध के लिए केवल रूस जिम्मेदार है। जबकि रूस को घेरने के लिए नाटो लगभग पच्चीस वर्षों से अपनी रणनीतियां बनाता रहा है और अपने प्रसार में लगा हुआ है। अंत में जब वह रूस के एकदम निकट जा पहुंचा तब रूस के पास शायद कोई और विकल्प नहीं था। पश्चिमी शक्तियों ने गोर्बाचेव से यह वादा किया था कि नाटो पूर्व की ओर अपना विस्तार नहीं करेगा किंतु मूल रूप से 12 सदस्य देशों वाले नाटो से आज 30 देश जुड़ चुके हैं और सच्चाई यह है कि रूस को छोड़कर वारसा संधि के सभी साथी देश नाटो के सदस्य हैं। नाटो पर अमेरिका के सामरिक हितों की सिद्धि और उसके अंतरराष्ट्रीय दबदबे में बढ़ोत्तरी के लिए कार्य करने के आरोप लगते रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति का सामान्य ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी यह मानता है कि इन आरोपों में काफी हद तक सच्चाई है।

प्रधानमंत्री के उद्घाटन भाषण की एक व्याख्या यह भी है कि रूस और चीन जैसे देशों की मौजूदगी में संभवतः शंघाई सहयोग संगठन के देश एक ऐसे समूह की छवि प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे थे जो अमेरिकी आधिपत्य को चुनौती देने में सक्षम है। प्रधानमंत्री नहीं चाहते थे कि वे ऐसी किसी तस्वीर का हिस्सा बनें। शायद चीन के साथ हमारे संबंधों की कटुता एवं तनाव और रूस के आक्रामक तेवरों से हमारी असहमति इसके मुख्य कारण थे।

अमेरिका और पश्चिमी जगत शीत युद्ध के इतने वर्षों बाद भी भारत को उसी तरह संदेह से देखते हैं जैसे उस काल में देखा करते थे। तब उन्हें न तो हमारी गुट निरपेक्षता रास आई थी न रूस से हमारी गाढ़ी दोस्ती। प्रधानमंत्री को अमेरिका और पश्चिम के संशय और दुविधा का निवारण करने में सफलता मिले न मिले, इनका विश्वास हासिल करने की उनकी कोशिशें पुराने विश्वसनीय मित्रों को हमसे छीन सकती हैं और गुट निरपेक्ष आंदोलन के अगुआ के रूप में अब तक के हमारे हासिल पर पानी फेर सकती हैं।

एक ध्रुवीय विश्व युद्ध और हिंसा से मुक्त होगा यह मानना अपरिपक्वता होगी। एक ध्रुवीय विश्व अविकसित और विकासशील देशों के शोषण, दमन और इन पर नव उपनिवेशवाद के कसते शिकंजे का पर्याय बन गया है। बहुध्रुवीय विश्व सैन्य टकराव की आशंका तो पैदा करता है किंतु शक्ति के अनेक केंद्रों की उपस्थिति इन पिछड़े और गरीब देशों के लिए नए विकल्प और अपनी हितसिद्धि के नए अवसर भी उत्पन्न करेगी।

युद्ध और हिंसा आज ही क्यों, किसी भी काल में स्वीकार्य नहीं हो सकते। लेकिन यह भी सच है कि कोई भी समय इनसे मुक्त न रह पाया और शायद न आगे रह पाएगा। संवाद और चर्चा ही अंतरराष्ट्रीय तनाव मिटाने और देशों के मध्य आपसी विश्वास कायम करने का एकमात्र उपाय है। लेकिन यह भी सच है कि संवादहीनता की स्थिति बारंबार बन जाती है। इसी समरकंद सम्मेलन के दौरान भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान के राष्ट्र प्रमुखों के बीच द्विपक्षीय संवाद की आशा बहुत से प्रेक्षकों ने लगाई थी, किंतु स्वयं प्रधानमंत्री इनके प्रति अनिच्छुक नजर आए। चीन से सीमा विवाद और कश्मीर के मसले पर मोदी को वही भाषा बोलनी पड़ती है जो पुतिन यूक्रेन के विषय में बोल रहे हैं।

समरकंद घोषणा पत्र में भारत के अनेक सुझावों को स्थान मिला। जलवायु परिवर्तन पर सदस्य देशों की पहल, स्टार्टअप और नवाचार के लिए एक वर्किंग ग्रुप का निर्माण, पारंपरिक औषधियों के लिए विशेषज्ञ कार्य समूह बनाने पर सहमति- कुछ ऐसे विषय थे जो भारत की पहल पर घोषणापत्र में शामिल किए गए। यह भी तय किया गया कि एससीओ आतंकवादी, अलगाववादी और चरमपंथी संगठनों की एक साझा सूची बनाएगा जिससे सभी सदस्य देशों में इनकी गतिविधियां प्रतिबंधित की जा सकें। हमने इस बात में भी कामयाबी हासिल की कि चीन अपनी विवादास्पद वन रोड वन बेल्ट योजना को एससीओ के एजेंडे में शामिल न करा सके।

भारत की इस उपलब्धि का श्रेय केवल वर्तमान सरकार को ही नहीं है। स्वतंत्रता बाद से चली आ रही शांतिपूर्ण सह अस्तित्व और पारस्परिक सहयोग पर आधारित विदेश नीति के कारण निर्मित भारत की सकारात्मक छवि के प्रति विश्व समुदाय के सम्मान के कारण ऐसी उपलब्धियां हमें सहज मिलती हैं।  शायद हमने सैद्धांतिक और आदर्शवादी होने की कीमत चुकाई हो, लेकिन हमने जो हासिल किया है वह भी इनके बलबूते पर ही किया है। यदि प्रधानमंत्री विश्व नेता बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं तो उन्हें भारत की इस तटस्थ, शांतिप्रिय और उदार छवि को मजबूत करना होगा और ऐसा हमारी अब तक चली आ रही विदेश नीति की निरंतरता और सुदृढ़ता द्वारा ही संभव है, इसे खारिज करने से काम नहीं बनने वाला।

(डॉ. राजू पाण्डेय गांधीवादी चिंतक और लेखक हैं।)

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