आखिर असलियत एक बार फिर सामने आ ही गयी। आरएसएस के शीर्ष नेताओं में शामिल दत्तात्रेय होसबोले ने एक बार फिर संविधान में परिवर्तन की बात कह दी है। उन्होंने इस बार इसके लिए संविधान में शामिल सेकुलरिज्म और समाजवाद शब्दों को हथियार बनाया है। वैसे तो वह इमरजेंसी के विरोध में आयोजित एक कार्यक्रम में बोल रहे थे। लेकिन मौजूदा दौर में जारी अघोषित इमरजेंसी को और मजबूत करने वाले उन तत्वों की तरफ वह इशारा कर रहे थे जिससे बीजेपी-आरएसएस की तानाशाही को और बल मिल सके। दरअसल अभी भी सेकुलरिज्म इनके गले की फांस बना हुआ है। इनके लिए सेकुलरिज्म के हटने का मतलब है संविधान में हिंदुत्व के दरवाजे का खुलना। जमीन पर तो उन्होंने वैसे भी हिंदू राष्ट्र की पूरी बिसात बिछा दी है।
और उस पर उनके फूटशोल्जर दौड़ रहे हैं। जहां बीजेपी की सरकारें हैं वहां तो मानो हिंदू राज ही है। मुसलमानों के घरों से लेकर इबादतगाहों तक पर बुल्डोजरों का कब्जा है। हर तरफ भगवा ही भगवा है। कोर्ट तक को अपने आदेशों के अपमान का भय सता रहा है। लिहाजा सब कुछ देखते हुए भी अदालतें खामोश हैं। कई जगहों पर तो मामले अदालत में हैं बावजूद इसके प्रशासन को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। यह केवल मुसलमानों तक ही सीमित नहीं है। कारपोरेट को जमीनें कैसे दिलायी जाएं उसके लिए गरीबों से लेकर दलितों तक की झुग्गी-झोपड़ियों और बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है। इसका सबसे नायाब उदाहरण दिल्ली है। राजधानी का शायद ही कोई इलाका बचा हो जहां बुल्डोजर ने दस्तक न दी हो। कहीं पूरी बस्ती ढहा दी गयी तो कहीं ढहाए जाने का इंतजार कर रही है।
इस कड़ी में करोलबाग की रिफ्यूजी कालोनी तक को नहीं बख्शा गया है। जिन्हें सरकार ने खुद बसाया था। 80 साल बाद अब उन्हीं को उजाड़ रही है। कानून भी कहता है किसी एक स्थान पर अगर कोई 25-30 साल से ज्यादा रह ले तो वह मकान और जमीन उसकी हो जाती है। लेकिन यहां 50-50, 100-100 साल पहले बसे लोगों को अवैध घोषित कर उनकी जमीनें छीन ली जा रही हैं। और यह सब कुछ नौकरशाह की एक कलम से हो रहा है। चुनाव से पहले बीजेपी ने ‘जहां झुग्गी वहीं मकान’ का नारा दिया था। लेकिन चुनाव जीतने के बाद मकान देने की बात तो दूर रहे सहे उनके मकानों को भी बुल्डोजर चला कर जमींदोज कर दिया गया। यह सब कुछ उस प्रधानमंत्री की नाक के नीचे हो रहा है जो खुद को गरीबी के बीच से निकला बताता है।
यह कुछ डायवर्जन हो गया। आते हैं असली मुद्दे पर 1925 में आरएसएस ने अपनी स्थापना के समय भारत के लिए जो (विध्वंसक) सपना देखा था वह उससे रत्ती भर विचलित नहीं हुआ है। अगर किसी को उसको लेकर भ्रम है तो यह उसकी अपनी परेशानी है। आरएसएस के बीएस मुंजे साहब इटली जाकर मुसोलिनी के फासिस्ट कैंपों में कैडरों को दी जाने वाली ट्रेनिंग और उनके पीछे काम कर रहे सिद्धातों का बहुत गहराई से अध्ययन किया था। फिर वहां से लौटकर उधार के इन सिद्धांतों और समझ को लेकर उन्होंने डॉ. हेडगेवार के साथ मिलकर आरएसएस के हिंदुत्व की नींव रखी। जिसके कोर में यह बात शामिल थी कि किसी भी फासिस्ट ताकत को सत्ता का रास्ता तय करने के लिए समाज के किसी एक हिस्से को दुश्मन के तौर पर चिन्हित करना होगा।
हिटलर ने इसके लिए यहूदियों को चुना तो आरएसएस को भारत में मुसलमान मिल गए। और फिर हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लक्ष्य के साथ उन्होंने संगठन की शुरुआत कर दी। यह लक्ष्य अभी भी उनकी नजरों से ओझल नहीं हुआ है। बल्कि सत्ता में आने के साथ ही उसको हासिल करने की गति और तेज कर दी गयी है। लिहाजा पूरी मशीनरी को उसी दिशा में लगा दिया गया है। हालांकि संविधान परिवर्तन जैसे तमाम संवेदनशील मसलों पर आरएसएस-बीजेपी के नेता बहुत एहतियात बरतते हैं। लेकिन जब भी कोई अहम मौका आता है तो ये अपने मंसूबों को जाहिर करने से खुद को रोक नहीं पाते हैं। आजादी के बाद संविधान बनने लगा तो इन्होंने उसका विरोध किया था। और देश में मनुस्मृति को लागू करने की वकालत की थी। देश में झंडे के रंग और आकार को लेकर भी इनको आपत्ति थी। झंडे के तौर पर तिरंगे को फाइनल किया गया तो उसमें भी इनको खोट दिखी। तीन रंग को देश के लिए अपशकुन बताया। और भगवा को अपनाने की वकालत की।
दरअसल ये केवल झंडे के रंग और संविधान के विरोधी नहीं हैं बल्कि ये मूलत: लोकतंत्र के विरोधी हैं। ये चाहते ही नहीं कि देश में कोई ऐसी व्यवस्था हो जिसमें लोग एक दूसरे के बराबर समझे जाएं। इसीलिए धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ ये समाजवाद के भी धुर विरोधी हैं। संविधान में शामिल इन दोनों शब्दों को ये किसी भी कीमत पर हटाना चाहते हैं। बल्कि और साफ तरीके से कहा जाए तो चुनाव में ही इनका विश्वास नहीं है। इनका आदर्श हिंदू धर्म की भारतीय वर्ण व्यवस्था है। जिसमें विभिन्न वर्णों और जातियों के बीच श्रेणीबद्ध तरीके से ऊंच-नीच के खाने बने हुए हैं। और समाज के अलग-अलग हिस्सों को उन्हीं खानों तक ये सीमित रखना चाहते हैं। जो न केवल बराबरी के सिद्धांत को खारिज करता है बल्कि जाति के आधार पर भेदभाव को खुली मान्यता देता है। ऐसे में राजा और रंक के बीच बराबरी के लोकतंत्र के सिद्धांत को ये भला कहां हजम कर सकते हैं? इनको लोकतंत्र का नाम सुनकर कब्जियत होने लगती है। यह इनके लिए मजबूरी की व्यवस्था है।
दरअसल लोकतंत्र को ही हथियार बनाकर वह उसकी हत्या करना चाहते हैं। इसीलिए उसके मातहत काम कर रहे हैं। इस कड़ी में आरएसएस ने तमाम हाइड्रा संगठनों को खड़ा किया है। और उसमें राजनीतिक फ्रंट के तौर पर बीजेपी को लगाया गया है। अनायास नहीं सत्ता में आने के साथ ही बीजेपी सरकार बारी-बारी से लोकतांत्रिक संस्थाओं की हत्या कर रही है। एक दिन ऐसा आएगा जब ये संस्थाएं न केवल अपना वजूद खो देंगी बल्कि उनको किसी के लिए पहचान पाना ही मुश्किल हो जाएगा। और उस दिन के आने के साथ ही इनका कार्यभार पूरा हो जाएगा। संविधान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद शब्द निकालने की मांग उसी कड़ी का हिस्सा है। इस पूरे संविधान को अंदर से इस तरह से खोखला कर दिया जाएगा कि उसको लागू करने या फिर न करने का कोई मतलब ही नहीं रह जाएगा। बीजेपी-आरएसएस कुछ उसी दिशा में आगे बढ़ना चाहते हैं।
होसबोले जी आप जिस चीज का विरोध कर रहे हैं दरअसल वह संविधान की आत्मा है। संविधान निर्माताओं ने उसे इसलिए अलग से संविधान में नहीं डाला क्योंकि उनका मानना था कि यह तो उसके भीतर अंतरनिहित है। कोई भी आधुनिक लोकतांत्रिक संविधान बगैर धर्मनिरपेक्षता के संभव ही नहीं है। इसलिए उसको अलग से लिखे जाने की जरूरत नहीं है। ऐसा उन्होंने सोचा था। लेकिन आप जैसे लोग जब धर्मनिरपेक्षता को बहुत सीमित दायरे में लाकर खड़ा कर देते हैं और उसको हिंदू-बनाम मुसलमान से आगे नहीं ले जा पाते तब इंदिरा गांधी को लगा कि उन्हें संविधान में अलग से डाल देना चाहिए। जिस दूसरे शब्द समाजवाद से आपको आपत्ति है। उसकी भी कहानी कुछ ऐसी ही है।
संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर संविधान सभा के अपने समापन भाषण में जब यह कहते हैं कि संविधान में ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ के जरिये हमने जनता को राजनीतिक बराबरी तो दे दी। लेकिन अगर आर्थिक और सामाजिक स्तर पर समाज में बराबरी नहीं हुई तो यह संविधान कितने साल तक टिक पाएगा किसी के लिए कुछ बता पाना मुश्किल है। अपने इस कथन में उसी समाजवाद शब्द की तरफ वह इशारा कर रहे थे। जिसको देश में लाए बगैर नागरिकों को न तो राजनीतिक बराबरी का दर्जा मिल सकता था और न ही उनके लिए आर्थिक बराबरी सुनिश्चित की जा सकती है। भारत जैसे बहुधर्मी-बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश के लिए धर्मनिरपेक्षता किसी प्राणवायु से कम नहीं है। इस आक्सीजन के बगैर भारत जैसे राष्ट्र का एक मिनट भी जिंदा रह पाना मुश्किल है।
(महेंद्र मिश्र जनचौक के संपादक हैं।)