Saturday, April 20, 2024

स्टेट्समैन से स्टंटमैन का युद्ध: नेहरू संग्रहालय अब प्रधानमंत्री संग्रहालय बना 

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नाम लोक स्मृति से खुरच-खुरच कर मिटाए जाने की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और मौजूदा सरकार की व्यापक परियोजना का एक बड़ा चरण पूरा हो गया। इस परियोजना के तहत नेहरू स्मारक संग्रहालय का नाम बदल कर अब प्रधानमंत्री संग्रहालय हो गया है। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस संग्रहालय का उद्घाटन किया। 

सरकारी प्रचार माध्यमों और कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया ने इस कार्यक्रम की खबर को इस तरह प्रस्तुत किया है मानो यह संग्रहालय मौजूदा सरकार की कोई नई स्थापना है, लेकिन हकीकत यह है कि यह नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय का ही परिवर्तित स्वरूप है। ठीक उसी तरह जैसे कि देश के कई ऐतिहासिक शहरों, रेलवे स्टेशनों, स्टेडियमों, सड़कों और पूर्ववर्ती सरकारों की कई योजनाओं के नाम हाल के वर्षों में बदले गए हैं और आगे भी बदले जा सकते हैं। 

नेहरू संग्रहालय को प्रधानमंत्री संग्रहालय के रूप में तब्दील करने में चार साल लगे हैं और इस पर 271 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं। कहने को तो यह देश के सभी प्रधानमंत्रियों की स्मृति और योगदान को दर्शाने वाला संग्रहालय है, लेकिन हकीकत में यह देश के पहले प्रधानमंत्री और प्रकारांतर से राष्ट्रीय आंदोलन की स्मृतियों को नष्ट-भ्रष्ट करने और एक स्टैट्समैन के मुकाबले एक स्टंटमैन को स्थापित करने की एक व्यापक परियोजना का हिस्सा है। 

सवाल है कि क्या नेहरू का नाम हटा देने या मिटा देने से लोक स्मृति भी स्थायी रूप से बदल जाएगी? सतही तौर पर देखने-सोचने से ऐसा लग सकता है, लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है। किसी भी इतिहास से इसे विस्थापित या बेदखल नहीं किया जा सकता, जैसे किसी को जबरन स्थापित नहीं किया जा सकता। इसे एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। आजादी के बाद कांग्रेस की सरकारों ने इस बात की लगातार कोशिश की कि महात्मा गांधी को दलितों के सबसे बड़े शुभचिंतक के रूप में स्थापित किया जाए और आंबेडकर की छवि महज संविधान निर्माण तक सीमित कर दी जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।

नेहरू स्मारक संग्रहालय एवं पुस्तकालय 1964 में जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद तीन मूर्ति भवन परिसर में स्थापित हुआ था। इससे पहले यह ऐतिहासिक भवन प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू का सरकारी आवास हुआ करता था। नेहरू स्मारकर संग्रहालय यानी एक ऐसे व्यक्ति की स्मृतियों का केंद्र जिसने आजादी के बाद शुरुआती 17 सालों तक भारत का नेतृत्व किया था। नेहरू ने तमाम लोकतांत्रिक संस्थानों की स्थापना की और उन्हें मजबूत किया। उन्होंने आधुनिक शिक्षा से जुड़ी कई संस्थाएं खड़ी कीं जिन्होंने वैज्ञानिक दृष्टि बोध से लैस कई पीढ़ियां तैयार कीं।

मोदी सरकार ने चार साल पहले जब नेहरू स्मारक संग्रहालय को प्रधानमंत्री संग्रहालय में तब्दील करने का फैसला किया था तब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री मोदी को एक पत्र लिख कर उनसे अनुरोध किया था कि तीन मूर्ति भवन परिसर के स्वरूप के साथ किसी तरह की छेड़छाड़ न की जाए। 

उन्होंने अपने पत्र में लिखा था कि पंडित नेहरू को सिर्फ कांग्रेस पार्टी के साथ ही जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि स्वाधीनता संग्राम के एक महत्वपूर्ण नेता, देश के पहले प्रधानमंत्री और आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में उनका नाता पूरे देश के साथ था। लेकिन मोदी ने न तो मनमोहन सिंह के अनुरोध को स्वीकार किया और न ही उनके पत्र का जवाब देने की शालीनता दिखाई।

देश में मोदी से पहले नेहरू सहित 14 प्रधानमंत्री हुए हैं और सभी ने अपने समय की परिस्थिति और अपनी क्षमताओं के मुताबिक आधुनिक भारत के निर्माण में अपना योगदान दिया है। इस सिलसिले में उनसे गलतियां भी हुई हैं, जो कि स्वाभाविक है। चूंकि हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहते हैं, लिहाजा सार्वजनिक जीवन में और खासकर उच्च पदों पर रहा कोई भी व्यक्ति या उसका कामकाज आलोचना से परे नहीं हो सकता। इसलिए पूर्व प्रधानमंत्रियों की भी आलोचना होती रही है और होना भी चाहिए। 

लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भाजपा ने पूर्व प्रधानमंत्रियों की आलोचना के बजाय उनके खिलाफ बेहद खर्चीला अभियान चला कर योजनाबद्ध तरीके से उन्हें अपमानित और लांछित करने की परियोजना शुरू की है। सरकार और पार्टी के स्तर पर इस परियोजना के तहत कुछ अपवादों को छोड़ कर ज्यादातर पूर्व प्रधानमंत्रियों और उनमें भी खासकर जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह आदि के खिलाफ झूठे, काल्पनिक और अश्लील किस्सों के जरिए उनका चरित्र हनन किया जा रहा है। उनके योगदान को नकारा जा रहा है या उसकी खिल्ली उड़ाई जा रही है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस अभियान के अगुवा बने हुए हैं।

पिछले महीने अपनी पार्टी के सांसदों को प्रधानमंत्री संग्रहालय के बारे में जानकारी देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि उनकी सरकार और पार्टी देश के सभी पूर्व प्रधानमंत्रियों के योगदान का सम्मान करती है। लेकिन हकीकत यह है कि देश में हो या देश के बाहर, संसद हो या चुनावी रैली, सरकारी कार्यक्रम हो या पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच संबोधन, लालकिले का प्राचीर हो या कोई धार्मिक कार्यक्रम, प्रधानमंत्री मोदी कर्कश लहजे में अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों को कोसना और देश की हर मौजूदा समस्या के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराना नहीं भूलते। ऐसा करते हुए वे शायद यह भी भूल जाते हैं कि वे एक राजनीतिक दल के नेता के साथ-साथ देश के प्रधानमंत्री भी हैं।

मोदी अपने भाषणों में गलत तथ्यों और मनगढंत आंकड़ों के सहारे अपनी सरकार की उपलब्धियों का उल्लेख करते हुए अक्सर कहते हैं कि जितना काम उनकी सरकार ने महज 7-8 साल में कर दिखाया, उतना काम पिछली सरकारें 70 साल में भी नहीं कर पाईं। वे अपनी सरकार में भ्रष्टाचार खत्म होने का दावा करते हुए पिछली सभी सरकारों को चोर-लुटेरों की सरकार बताने में भी संकोच नहीं करते। 

लेकिन यह सब करते हुए मोदी यह भूल जाते हैं कि उनके प्रधानमंत्री बनने से पहले 67 सालों में छह साल उन्हीं के ‘प्रेरणा पुरुष’ अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली सरकार भी रही है और ढाई साल तक मोरारजी देसाई की अगुवाई में चली जनता पार्टी की सरकार में वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी भी शामिल रहे हैं। यानी खुद को महान बताने के चक्कर में मोदी प्रकारांतर से वाजपेयी और आडवाणी को भी अपमानित और लांछित करने से भी नहीं चूकते। 

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लेकर तो मोदी का हीनताबोध जब-तब जाहिर होता रहता है। अपनी हर गलती और कमजोरी को छुपाने के लिए वे नेहरू का नाम लेते हैं और देश की हर मौजूदा समस्या के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराते हैं। आजादी के बाद देश में लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्कृति को मजबूत करने के लिए नेहरू ने प्रधानमंत्री के रूप में जिन-जिन संस्थानों की स्थापना की थी और उन्हें मजबूत बनाया था, उन्हें मोदी सरकार पिछले आठ वर्षों से किस तरह कमजोर या नष्ट कर रही है, किसी से छुपा नहीं है। 

देश इस वर्ष अपनी आजादी के 75 वर्ष पूरे करने जा रहा है। इस मौके पर मोदी सरकार द्वारा आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए सिर्फ स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास को ही विकृत रूप में नहीं परोसा जा रहा है, बल्कि आजादी के बाद आधुनिक भारत के अब तक के सफर के बारे में सरकारी प्रचार सामग्री में भी ऐसा ही खेल हो रहा है। 

यह मोदी का हीनताबोध और तंगदिली ही है कि अमृत महोत्सव के किसी भी कार्यक्रम में नेहरू और अन्य पूर्व प्रधानमंत्री ही नहीं, बल्कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी पूरी तरह नदारद हैं। वैसे भी केंद्र सरकार की प्रचार सामग्री से नेहरू को तो पहले ही हटा दिया गया था। पिछले साल तो 14 नवंबर को उनकी जयंती पर संसद के केंद्रीय कक्ष में हुए कार्यक्रम में दोनों सदनों के मुखिया यानी राज्यसभा के सभापति और लोकसभा स्पीकर भी नहीं गए और न ही केंद्र सरकार के किसी वरिष्ठ मंत्री या भाजपा नेता ने उसमें शिरकत की। 

अमृत महोत्सव के मौके पर सरकार की ओर से तैयार कराई गई प्रचार सामग्री से भी नेहरू पूरी तरह से गायब हैं। जानकार सूत्रों के मुताबिक हर विभाग को ऊपर से निर्देश दिया गया है कि नेहरू का कहीं जिक्र नहीं आना चाहिए और न ही उनकी तस्वीर कहीं लगनी चाहिए। अमृत महोत्सव पर पूरे साल सरकार का कार्यक्रम चलेगा लेकिन आजादी की लड़ाई में या आजादी के बाद देश के निर्माण में नेहरू की भूमिका के बारे में कुछ भी नहीं बताया जाएगा। 

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को भी सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से एकाध जगह दिखा कर खानापूर्ति की जाएगी। बाकी अमृत महोत्सव में या तो 1885 मे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से पहले खासतौर से 1857 की लड़ाई के स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में बताया जाएगा या फिर 2014 के बाद बनी सरकार की उपलब्धियों की जानकारी दी जाएगी। 

प्रधानमंत्री मोदी अपने सभी पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के प्रति किस कदर हिकारत का भाव रखते हैं, इसकी सबसे बड़ी मिसाल है कोलकाता स्थित विक्टोरिया मेमोरियल हॉल जो कि अब नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेमोरियल हॉल में तब्दील हो चुका है। इस पूरे हॉल में नेताजी के जन्म से लेकर उनकी मृत्यु तक के फोटो, उनके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली सभी चीजें, उस समय के समाचार पत्र, किताबें और देश-विदेश की विभिन्न हस्तियों के साथ हुआ उनका पत्राचार संग्रहीत है। 

इस हॉल में नेताजी की तस्वीरों के अलावा देश के किसी और पूर्व प्रधानमंत्री की तस्वीर नहीं है, यहां तक कि स्वाधीनता संग्राम के दौर में नेताजी के साथ काम कर चुके जवाहरलाल नेहरू की भी नहीं और महात्मा गांधी की भी नहीं, जिन्हें नेताजी ने ही सबसे पहले राष्ट्रपिता कह कर संबोधित किया था। लेकिन वहां नेताजी की तस्वीरों के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक नहीं, कई तस्वीरें हैं।

नेताजी की भाव-भंगिमाओं की नकल करते हुए खिंचवाई गई मोदी की ये तस्वीरें नेताजी की तस्वीरों के साथ घुल-मिल जाएं, इसके लिए इन रंगीन तस्वीरों को ब्लैक एंड व्हाइट कर दिया गया है। ऐसा करना मोदी की आत्म-मुग्धता और हीनताबोध का परिचायक तो है ही, साथ ही नेताजी की स्मृति और उनकी तस्वीरों के साथ फूहड़ मजाक भी है।

इस सबके अलावा भी भाजपा और उसका आईटी सेल द्वारा पिछले आठ-नौ सालों से मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में मनगढंत किस्सों, फर्जी तस्वीरों और फर्जी ऑडियो-वीडियो के जरिए देश के तमाम पूर्व प्रधानमंत्रियों के चरित्र हनन का जो गंदा खेल राजनीतिक विमर्शों में और खासकर साइबर संसार में खेल रहा है, वह किसी से छुपा नहीं है। असहमति या विरोध को चरम घृणा में बदल देना मोदी के न्यू इंडिया की पहचान है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि असहमति और उसके सम्मान का पहला पाठ नेहरू ने ही इस देश को पढ़ाया था। 

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल दिल्ली में रहते हैं।)

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