आरएसएस मार्का राष्ट्रवाद की हकीकत

22 अप्रैल को पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवादियों ने पहलगाम के वैसरन घाटी में कायरता पूर्वक 26 पर्यटकों की हत्या कर दी। इस जघन्यतम हत्याकांड ने भारत की अंतरात्मा को हिला दिया। सम्पूर्ण देश शोक और आक्रोश से भर गया। भारत के लिए यह हत्याकांड एक सदमा था। घटना के 24 घंटे बाद प्रधानमंत्री ने मधुबनी की एक सभा में आतंकवादियों को मिट्टी में मिला देने की घोषणा की । ( यहां नोट करने की बात है कि प्रधानमंत्री सऊदी अरब से लौटकर पहलगाम या मारे गए लोगों के परिवारों से मिलने नहीं गए। सीधे एक चुनावी जनसभा में बिहार पहुंचे) उन्होंने हत्याकांड में परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से शामिल सभी शक्तियों को सबक सिखाने का वादा देश के समक्ष किया था। लेकिन आज तक खून की होली खेलने वाले आतंकवादियों का कोई पता नहीं है। वह कहां और किस तरह से सुरक्षित बचे हुए हैं। इस सवाल का ठोस जवाब 140 करोड़ भारतीय आज भी मांग रहे हैं। लेकिन चार दिन तक चले ऑपरेशन सिंदूर और 5 दिन पहले लागू हुए युद्ध विराम के बाद भी इसका उत्तर किसी के पास नहीं है।

युद्ध विराम की अंतर कथा –

1-भारतीय सेना और भारत सरकार दोनों कह रहे हैं कि ऑपरेशन सिंदूर खत्म नहीं हुआ है।

2-भारत सरकार का कहना है कि यह युद्ध नहीं था।

3 -हमारी सेना ने पाकिस्तान में आतंकवादियों के ट्रेनिंग कैंपों पर टारगेटेड हमला किया था जो पीओके से लेकर पंजाब के बहावल पुर तक फैले हुए थे। भारतीय सेवा ने पाकिस्तान में ‌सैन्य ठिकानों या नागरिक स्थलों को निशाना नहीं बनाया।

4-भारत सरकार ने दावा किया है कि हमारी सेना ने सौ से ज्यादा आतंकवादियों का सफाया कर आतंकवाद की कमर तोड़ दी है।

5- पाकिस्तान ने रिटैलिएट किया और मुजफ्फराबाद व‌ पुंछ से लेकर गुजरात तक भारत के एयरबेस और सार्वजनिक जगहों‌ पर हवाई हमले किए। जिसे नाकाम कर दिया गया।

ये सभी घोषणाएं सेना द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस में की गई थी। यानी योजनाबद्ध अनुशासित  और टारगेटेड हमला।

अचानक 10 तारीख की शाम को अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का एक बयान आया।जिसमें उन्होंने भारत-पाकिस्तान के मध्य युद्ध विराम होने की घोषणा की। ट्रंप के अनुसार वह और उनके अधिकारियों ने रात भर दोनों देशों के साथ बात की। कठिन प्रयास के बाद भारत और पाकिस्तान के जिम्मेदार नेताओं व सेना के अधिकारियों ने समझदारी दिखाते हुए युद्ध रोकने पर सहमति जताई। उन्होंने आगे कहा कि 12 मई को किसी न्यूट्रल जगह पर दोनों देशों के बीच में बातचीत होगी। जहां युद्ध और विवाद से संबंधित अन्य पहलुओं पर चर्चा कर ठोस निर्णय लिया जाएगा।

ट्रंप की घोषणा के निहितार्थ 

ट्रंप के युद्ध विराम के‌ ऐलान के बाद भारत में हड़कंप मच गया। 140 करोड़ देशवासी हतप्रभ और भौचक्के थे। 7 तारीख की सुबह खबर आने लगी थी कि भारत ने नौ स्थानों पर आतंकियों के ठिकानों पर मिसाइल हमला कर उनको तबाह कर दिया है। इस खबर के आने के बाद एक-एक भारतीय सरकार और सेना के साथ मजबूती से खड़ा हो गया‌ था। संपूर्ण विपक्ष ने बिना शर्त सरकार को समर्थन दे दिया। 

संघ और भाजपा के विचार और नीतियों‌ से असहमत बुद्धिजीवी, पत्रकार, सामाजिक संगठन, नागरिक संस्थाओं ने खुले दिल से सरकार की कार्रवाई का समर्थन किया।

पिछले 34 वर्षों से भारत पर हो रहे आतंकी हमले से बुरी तरह से नाराज भारतीय समाज इस बार सरकार से उम्मीद लगाए हुए था कि यह ऑपरेशन सिंदूर किसी ठोस  परिणाम तक पहुंचेगा और पाकिस्तान द्वारा भारत में आतंकवाद के निर्यात पर लगाम लगेगी। जिससे धरती के इस खित्ते में अमन चैन कायम होगा। लेकिन युद्ध विराम और अमेरिकी परस्त दस्ता की खबर से देश आवक रह गया। सचेत और दूरदृष्टि और साम्राज्यवादी अमेरिका के हस्तक्षेप से होने वाले परिणाम को देखते हुए देशभक्त नागरिक ‌दो बिल्लियों के बीच रोटी के झगड़े में बंदर के टपकने से आशंकित हो गए है। 

खुलासा: युद्ध विराम के सवाल को लेकर अमेरिका और भारत के बयानों में अंतर स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा है। अमेरिका के सरपंच बनने के बाद संघ के समर्पणवादी राष्ट्रवाद का चेहरा नंगा हो गया है जो साम्राज्यवादियों के सामने घुटने टेकता है और पड़ोसी छोटे मुल्कों पर धौंस धमकी देने का कोई अवसर जाया नहीं करता।

संघी नैरेटिव: आरएसएस बीजेपी और उसके प्रचार तंत्र ने देश में एक मिथ खड़ा कर रखा है कि मोदी सरकार‌ कठोर और दृढ़ निर्णय लेने वाली राष्ट्रवादी सरकार है। जो अपने फैसले को अंजाम तक पहुंचाए बिना पीछे नहीं हटेगी। इसके अलावा संघी‌‌ और गोदी मीडिया (जनता की गाढ़ी कमाई का खरबों डालर खर्च करके) द्वारा एक धारणा निर्मित की गई थी कि भारत मोदी के नेतृत्व में वैश्विक महाशक्ति बन गया है। जिससे कटोरा लेकर भीख मांगने वाला और आंतरिक टकराव में उलझा हुआ पाकिस्तान भारत के समक्ष कहीं भी ठहरने की स्थिति में नहीं है।‌ 

संसद से सड़कों तक प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और भाजपा आरएसएस के प्रचारकों ने देश को संदेश दिया था कि अगर पाक ने कोई नापाक हरकत की तो इस बार भारत पीओके को पाकिस्तान से अलग कर देगा। (इस समय अमित शाह का उत्तेजना और घमंड के साथ संसद में दिया हुआ भाषण सोशल मीडिया पर छाया हुआ है कि हम पीओके लेने के लिए जान तक दे देंगे)।

नैरेटिव का ढहना: संघ व भाजपा का प्रचार रहा है कि पाकिस्तान का निर्माण और  कश्मीर का विभाजन अप्राकृतिक है।(यही सोच कट्टरपंथी आतंकवादियों की भी है।) इसलिए इसे भारत में मिला लेना चाहिए। लेकिन यह पाखंड चार दिन में ही‌‌ वर्तमान विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था के कठोर यथार्थ से टकराकर लहूलुहान हो चुका है।

मोदी मजबूत नेता। वह वह किसी के सामने झुकने वाले नहीं हैं। इसलिए वे  ऑपरेशन सिंदूर द्वारा पाकिस्तान को सबक सिखा कर ही दम लेंगे। खुद मोदी ने ही मिट्टी में मिला देने का ऐलान मधुबनी की जनसभा में किया था। इसलिए जब सेना द्वारा ऑपरेशन सिंदूर शुरू हुआ तो इसके दो अर्थ निकाले गये थे।

एक- भारत, पाकिस्तान को घुटनों पर ला देगा।

दो- पीओके‌ पर इस बार कोई निर्णायक फैसला होगा। 

कम से कम मोदी समर्थक और आम नागरिक के दिमाग में यह दो धारणाएं थीं।  विपक्ष और नागरिक समाज ने एक तरफा समर्थन देकर मोदी के हाथ को खुला छोड़ दिया था। लेकिन ट्रंप द्वारा अचानक युद्ध विराम की घोषणा ने मेहनत से गढ़ी गई  मोदी की मजबूत नेता की छवि के नैरेटिव को ध्वस्त कर दिया है।

अंध भक्तों को सदमा

ऑपरेशन सिंदूर शुरू होने के बाद गोदी मीडिया ने झूठी खबरें परोसकर ऐसा माहौल बनाया था कि कराची, लाहौर, इस्लामाबाद और रावलपिंडी सबको भारतीय सेना ने तबाह कर दिया है। पाकिस्तान सरकार कराह रही है और दया की भीख मांग रही है। शीघ्र ही भारत पाक पर कब्जा कर लेगा और पाकिस्तान बिखर कर टूट जाएगा।

धारणा: गोदी मीडिया द्वारा फैलाए गए प्रोपोगंडा‌‌ से यह धारणा बनी थी कि पाकिस्तान बिखरने लगा है। भारत पीओके पर कब्जा कर लेगा और बलूचिस्तान को आजाद कर एक नया देश बना देगा। जैसा कि 1971 में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने बांग्लादेश बनाया था। मोदी इतिहास दोहराने जा रहे हैं। लेकिन युद्ध विराम की घोषणा होते ही गुब्बारा फूट गया और भक्तों को सदमे के दौरे आने लगे।

इस खबर से देश स्तब्ध था‌ और सवाल उठने लगा कि ऑपरेशन सिंदूर की कवायद से कौन सा लक्ष्य हासिल हुआ है?

मोदी ने सेना को घसीट लिया 

दूसरे दिन रक्षा सचिव और सेना से प्रेस कॉन्फ्रेंस कराई गई और कहलवाया गया कि पाकिस्तान के डीजीएमओ ने 3:45 पर भारत के डीजीएमओ को फोन किया और युद्ध बंदी का प्रस्ताव दिया। इसके बाद आपसी बातचीत में साढ़े पांच बजे से युद्ध विराम पर सहमति बनी। 

झूठ और पाखंड की उम्र छोटी होती है 

जब तक भारत या पाकिस्तान की सरकारों की तरफ से कोई आधिकारिक बयान आए। उसके पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के ट्विटर हैंडल से एक खबर आ गई। जिसमें ट्रंप ने कहा कि हमारी मेहनत और प्रयास से भारत-पाकिस्तान ने युद्ध बंदी पर सहमति जताई है जो 5:30 बजे से लागू हो जाएगी। 

किसकी विश्वसनीयता का अंत हुआ। यह समझने की जरूरत नहीं।

कहावत है कि नादान दोस्त से दानेदार दुश्मन कहीं अच्छा होता है।

खबरों का बाजार गर्म हो गया 

इसके बाद भारत सहित विश्व मीडिया में अनेक तरह की खबरें और अफवाहें फैलने लगीं। विदेशी मीडिया में भारत के बयानों को लेकर भारत की किरकिरी होने लगी। जो खबरें द टेलीग्राफ, सीएनएन और फ्रांस के प्रतिष्ठित अखबार ला मांड सहित अनेक अखबारों और चैनलों से आ रही है। वह युद्ध विराम और चार दिन तक चले संघर्ष की कुछ और ही‌ हकीकत बयां कर रही है। जिसने भारत सरकार द्वारा आतंकवाद के खिलाफ चलाए गए ऑपरेशन सिंदूर की उपलब्धियां की हवा निकल दी है।

8 बजे रात का राष्ट्र को संबोधन‌

जब भी मोदी के 8:00 बजे टेलीविजन पर नमूदार होने की खबरें आती हैं तो देश डरने लगा है। लेकिन मोदी 8 बजे टेलीविजन पर आए और लगभग 23-24 मिनट तक एकालाप करते रहे। वही मारे गए बेकसूर नागरिकों की विधवाओं के सिंदूर की कीमत का भावनात्मक दुरुपयोग।

आतंकवादियों द्वारा मारे गए दिल्ली से सटे हरियाणा के नौसेना में लेफ्टिनेंट विनय नरवाल के घर जाकर उनकी विधवा पत्नी हिमांशी को सांत्वना देने की तो बात छोड़िए। हिमांशी नरवाल ने जब सांप्रदायिक सौहार्द की अपील करते हुए कश्मीरी और मुस्लिम भाइयों के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान की निंदा की तो उन पर हिंदुत्ववादी ट्रोल गुंडों के हमले शुरू हो गए। आश्चर्य है उस समय‌ मोदी और उनके मंत्रिमंडल के किसी भी सदस्य तथा नारियों पर प्रवचन करने वाले संघ के शातिर नेताओं द्वारा सांत्वना के एक शब्द तक नहीं निकले। हिमांशी नरवाल और कानपुर के शुभम की विधवा के ऊपर हो रहे हमलों के खिलाफ एक शब्द तक नहीं बोला गया।  शातिराना चुनी हुई चुप्पी।

वहीं मोदी जी 26 परिवारों के विधवाओं के सिंदूर के उजड़ जाने के दर्द पर प्रसन्नता व्यक्त करते हैं तो घृणा के साथ हंसी भी आती है। वहीं घिसी-पिटी लफ्फाजी और शब्दों की बाजीगरी। चिर-परिचित मोदी शैली का झूठ, तथ्यों की तोड़-मरोड़ और देश के सामने आहत होने का नाटक। लेकिन मोदी के टेलीविजन प्रसारण के पहले ट्रंप ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर मोदी को संकट में डाल दिया। ट्रंप की बातों पर मौन, एक तरफा मौन। टेलीविजन पर रोना धोना इस बार काम नहीं आया। 

ऑपरेशन की सफलता, जनता के कुछ सवाल

प्रधानमंत्री और भारतीय सेना ने ( हालांकि सेना की भाषा में अंतर था) कहा कि पाकिस्तान ने युद्ध बंदी के लिए भारतीय सेना से गुहार लगाई। भारतीय डीजीएमओ को पाकिस्तान के समकक्ष द्वारा फोन और युद्ध विराम का प्रस्ताव आया। जिसे दोनों  समकक्षों ने आपस में विचार-विमर्श करके स्वीकार कर लिया। 

यहां एक गंभीर सवाल है कि क्या युद्ध जैसे कठिन समय में चीजें इतनी सहजता और सरलता से घटित होती हैं। एक बात साफ है कि जब देश निर्णायक उपलब्धियों की उम्मीद लगाए बैठा था। तो मोदी सरकार ने किस मजबूरी और किसके दबाव में पाकिस्तान के युद्ध बंदी के प्रस्ताव को स्वीकार किया।

मोदी जी स्वयं कह रहे हैं कि ऑपरेशन सिंदूर के दबाव में पाकिस्तान ने गुहार लगाई थी तो हम थोड़ा और इंतजार नहीं कर सकते थे।

दूसरा क्या पाकिस्तान ने राज्य प्रायोजित आतंकवाद के खात्मे का कोई ठोस प्रस्ताव दिया है। क्या आने वाले समय में आतंकवादी समस्या का कोई ठोस और विश्वसनीय समाधान निकलेगा। पाकिस्तान की अविश्वसनीय पड़ोसी की छवि भारत में बनी हुई है। क्या उसमें बुनियादी बदलाव आने की उम्मीद है। 

हम शुरू से ही मानते हैं कि युद्ध से समस्याओं का समाधान नहीं होता। युद्ध सिर्फ समस्याओं को हल करने के लिए भौतिक परिस्थितियां निर्मित करता है। इसलिए बातचीत ही आखिरी रास्ता होता है। जिसे भारत-पाकिस्तान जितनी जल्दी समझ लें। उतना ही इस उपमहाद्वीप के हित में अच्छा होगा।

अगर पाकिस्तान और भारत के बीच में शांति और सद्भाव पूर्ण माहौल बन जाए और अच्छे पड़ोसी जैसे संबंध विकसित हो जाएंगे। तब बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का क्या होगा। जो भारत पाकिस्तान नामक दो देशों के धार्मिक महा विभाजन पर ही जिंदा है। इसी महाविभाजन से खाद पानी और प्राणवायु लेते हैं।

ट्रंप के समक्ष समर्पण या कोई मजबूरी

क्या मोदी सरकार ने दोनों देशों के डीजीएमओ के बीच हुए समझौते को मान लिया। या प्रधानमंत्री ने खुद इसमें हस्तक्षेप किया था और युद्ध विराम के लिए हरी झंडी दी थी।

अगर यह सिर्फ़ दो पक्षीय वार्ता थी तो मोदी के मित्र ट्रंप को यह हिम्मत कैसे हुई कि उन्होंने कहा कि हमने मध्यस्थता की है और दोनों देशों को समझाकर मनाया है। यह बात वह सिर्फ एक बार नहीं अब तक अलग-अलग जगह पर सात बार कह चुके हैं। अब तो वह यहां तक कह रहे हैं हमने कहा कि तुम लोग मान जाओ। हम तुम्हारे साथ खूब व्यापार करेंगे। (आज तो अंबानी एंगल भी इसमें जुड़ गया है। युद्ध बंदी के हर विमर्श में अडानी तो दिखाई दे ही जाते हैं।)

खतरनाक संकेत 

भारत अमेरिका के दबाव में फ्री ट्रेड एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर (एफटीए) करने जा रहा है। संयुक्त किसान मोर्चा ने इस पर गहरी चिंता व्यक्त की है। कृषि उत्पाद से ड्राई फ्रूट और कपास‌ के किसानों के दरवाजे पर आर्थिक महाविनाश दस्तक दे रहा है। (ऑपरेशन सिंदूर का सबसे खतरनाक पक्ष।)

ट्रंप अपनी बात पर अड़े हुए हैं और वे 14 तारीख को सऊदी अरब में भी यही घोषणा कर रहे थे। सच क्या है? इसे भारतीय नागरिकों को जानने का पूर्ण अधिकार है। राष्ट्रीय सुरक्षा का बहाना यहां काम नहीं करेगा। क्योंकि जो बात अमेरिका और पाकिस्तान को मालूम है। उसे अपने नागरिकों से छिपाना वस्तुतः एक अपराध की श्रेणी में आना चाहिए।

समझौते से हमने क्या हासिल किया? 

शांति, हर्गिज नहीं। क्योंकि भारत-पाकिस्तान के आपसी मसले में सीधे अमेरिका ने हाथ डाल दिया है। ट्रंप तो यहां तक कह रहे हैं कि वह अब कश्मीर के सवाल को भी हल करेंगे। अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने कश्मीर के सवाल पर मध्यस्थता करने की ख्वाहिश जाहिर की थी। तब भारत सरकार ने इनकार कर दिया था। अब भारत सरकार के समर्पण से ट्रंप को यह सुनहरा अवसर मिल गया है।

कश्मीर के मसले का अंतरराष्ट्रीय कारण

पाकिस्तान तो पहले से ही चाहता था कि कश्मीर के प्रश्न का अंतर्राष्ट्रीयकरण हो। यह सिर्फ दो पक्षों का मामला न होकर वैश्विक चिंता का विषय बने। लेकिन भारत ने हमेशा‌ इसे अपना आंतरिक मामला माना है और हमारी नीति रही है कि पीओके पर पाकिस्तान का अवैध कब्जा है। हमारी संसद का संकल्प है कि संपूर्ण कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इसलिए इस पर द्विपक्षीय वार्ता होनी चाहिए। इसमें  किसी मध्यस्थ की जरूरत नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी भारत का कहना था कि  कश्मीर उसका आंतरिक मामला है। इस पर  किसी और का हस्तक्षेप हमें स्वीकार नहीं है।

ट्रंप ने भारत को फंसा दिया

संभवतः भारत के कमजोर अदूरदर्शी सांप्रदायिक और विभाजित चेतना वाले संघी रेजीम की बुनियादी कमजोरी को ट्रंप जैसा साम्राज्यवादी मुल्क का सरगना‌ बखूबी समझ रहा था। मौका पाते ही कश्मीर के सवाल का अंतरराष्ट्रीय करण कर दिया। ऑपरेशन सिंदूर के मोदी सरकार के फैसले ने ट्रंप को, भारतीय उपमहाद्वीप में सरपंच की भूमिका निभाने का मौका दे दिया है। बांग्लादेश में हुए सत्ता परिवर्तन में अमेरिकी भूमिका के संकेत पहले से ही मिलने लगे थे। इसलिए देशवासियों सावधान हो जाइए।

मोदी की मजबूरी 

भांड़ मीडिया और संघी प्रचार तंत्र ने मोदी के बारे में जिस तरह का औरा खड़ा कर रखा है। उस आंतरिक राजनीति के दबाव ने मोदी को मजबूर किया कि वह पाकिस्तान के खिलाफ कोई न कोई कार्रवाई करें। अगर वह ऐसा न करते तो उन्हें भारी राजनीतिक नुकसान होने जा रहा था। पुलवामा के बाद हुई एयर स्ट्राइक के बाद  मोदी के मजबूत ‌नेतृत्व का महिमा मंडन किया गया था। उसने मोदी को गंभीर संकट में फंसने के लिए मजबूर कर दिया। इसलिए जब छह सात की रात में भारत ने पाकिस्तान में आतंकी अड्डों पर टारगेटेड हमला किया तो 7 तारीख को ट्रंप ने कहा था कि यह पहले से ही उम्मीद थी कि भारत कुछ बड़ा करने वाला है। तभी स्पष्ट हो गया था कि भारत सरकार ने अमेरिका के साथ किसी न किसी स्तर पर संबंध बनाये रखा था।

मोदी मार्का विदेश नीति का संकट 

संघ सहित सभी हिंदुत्ववादी 1949 के बाद से ही इजरायल अमेरिका गठजोड़ के इर्द गिर्द अपना विश्व दृष्टिकोण और विश्व कूटनीति निर्मित कर रहे हैं। इसको उन्होंने कभी छुपाया नहीं। संघ परिवार शुरू से इसराइल को मान्यता देने का समर्थक था।तथा इजरायल की युद्ध आधारित आक्रामक हत्यारी कार्यशैली से अभिभूत रहा है।आतंकवाद के नाम पर इजरायल द्वारा किए जा रहे फिलिस्तीनियों के जनसंहार का कट्टर समर्थक रहा है।

इसलिए जब भी बीजेपी को सत्ता में आने का मौका मिला उसने अमेरिका और इजरायल के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ किया। मोरारजी भाई की सरकार में विदेश मंत्री रहते हुए अटल बिहारी बाजपेई ने इजरायल के मोसाद के चीफ को गुप चुप तरीके से भारत आमंत्रित किया था। जिसको लेकर उस समय भारी बवाल मचा था। 

इधर भारत अमेरिका के साथ रणनीतिक संबंधों को विकसित करता रहा है। इसमें इजरायल महत्वपूर्ण भूमिका में दिखाई देता है। मोदी के 11 साल में भारत इजरायल अमेरिकी गठजोड़ सैन्य सहयोग तक विकसित हो गया है। ऑपरेशन सिंदूर के शुरुआती दो दिनों तक भारत की सफलता को इजरायली ड्रोन मिसाइल सिस्टम और तकनीकी दक्षता के साथ जोड़कर देखा जाने लगा था। इजरायली पेगासस पर तो भारत के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करने तक का आरोप लग रहा है।

वैश्विक मंच पर अकेले पड़ गए 

वर्तमान भारत-पाकिस्तान टकराव में दुनिया का कोई भी देश भारत के पक्ष में खुलकर नहीं आया। हमें इसके कारणों की गंभीर छानबीन करनी होगी। जबकि पाकिस्तान के साथ तुर्की अज़रबैजान और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से चीन खड़ा दिखाई दिया। भारत का पुराना मित्र रूस इस संकट के समय में कहीं भी दिखाई नहीं दिया।

भारत के पड़ोसी देशों में शायद ही कहीं से भारत के पक्ष में कोई आवाज उठी हो।सबकी सहानुभूति पाकिस्तान के साथ दिखाई दे रही थी।

जबकि पहलगाम में हमारे 26 निर्दोष पर्यटकों की हत्या हुई थी। शुरुआत में वैश्विक जन गण की सहानुभूति भारत के साथ थी।

लेकिन ऑपरेशन सिंदूर शुरू होते ही ऐसा लगता है कि स्थिति पलट गई। अरबों-खरबों डॉलर खर्च करके और सैकड़ों देश की यात्राएं करने के बाद भी गले पड़ने वाली मोदी मार्का विदेश नीति औंधे मुंह लुढ़क गई है ।

इजरायल के अलावा शायद ही कोई देश हमारे साथ खड़ा रहा हो। अमेरिका तो शुद्ध व्यापारी ठहरा। उसने इस अवसर को अपने व्यापारिक हितों के लिए आपदा में अवसर देखा और इसकी कीमत भारत से वसूल रहा है। 

अंतिम बात

पहलगाम की घटना के बाद भारत गंभीर राजनीतिक संकट में फंस गया था। इसे हल करने के लिए जिस तरह की कूटनीतिक तैयारी होनी चाहिए थी। उस पर आगे बातें होती रहेंगी। पर्यटकों की हत्या से भारत राजनीतिक क्राइसिस में फंस गया है जो सीमा पर झड़प में बदल गई। चूंकि शुरुआत में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के अंदर 9  आतंकी ठिकानों पर हमला किया था। जिससे वैश्विक स्तर पर भारत को लेकर शंकाएं बढ़ गईं। पाकिस्तान ने भारत के सैनिक और नागरिक ठिकानों पर हमला कर इसको विस्तारित करने की कोशिश की। जिससे भारत-पाकिस्तान पूर्ण युद्ध के दरवाजे पर पहुंच गए थे। ऐसा लगा था कि भयानक विनाश का दौर शुरू हो चुका है।

ऑपरेशन सिंदूर के बाद शुरू हुए दोनों देशों के टकराव में चीनी और अन्य देशों के हस्तक्षेप की ऐसी अंतर कथाएं वैश्विक मीडिया में दिखाई दे रही हैं। जिस पर इस समय चर्चा करना उचित नहीं होगा। जिन कारणों से भारत को ट्रंप के सामने झुकना पड़ा है और हमें अमेरिका की स्क्रिप्ट पर चलते हुए समझौता करना पड़ा। वे कारक  भविष्य में हमसे बड़ी कीमत वसूल करेंगे।

लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में मोदी  2014 के मोदी नहीं रहे। आज वह खंडित तस्वीर लिए असहाय नेता के रूप में दिखाई दे रहे हैं। हालांकि अभी भी उनकी पकड़ भाजपा और सरकार पर बनी हुई है। आरएसएस ने इस संकट के समय में राजनीतिक कमान अपने हाथ में ले ली है।और बीजेपी तिरंगा यात्रा का प्रहसन दोहराने पर मजबूर है।

अच्छा यह हुआ है कि आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र वाद का खोखलापन भारत के जन-गण के समक्ष उजागर हो गया।

कार्ल मार्क्स ने अपनी कालजई रचना “लुई बोना पार्ट की 18वीं ब्रूमेर ” के अंत में लिखा था कि ‘कोई एक घटना इतिहास में नायक के रूप में प्रकट होती है। जब उसे दोहराने की कोशिश की जाती है तो वह प्रहसन में बदल जाने को अभिशप्त है।’ 

शायद वर्तमान भारत इसी दिशा में आगे बढ़ रहा है और एक कट्टर पंथी खलनायक संगठन के रूप में चिन्हित होने लगा।

(जयप्रकाश नारायण वाम राजनीतिक कार्यकर्ता और किसान नेता हैं।)

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