सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से बिहार वोटर वेरिफिकेशन पर कहा- आधार, राशन, वोटर आईडी पहचान में करें शामिल

नई दिल्ली। सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार (10 जुलाई) को भारत के निर्वाचन आयोग से कहा कि वह बिहार में मतदाता सूची के ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ के लिए आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को भी स्वीकार्य दस्तावेज माने, अर्थात् आधार कार्ड, राशन कार्ड और मतदाता पहचान पत्र को भी पहचान के प्रमाण के रूप में मान्यता दी जाए।

न्यायालय ने भारत निर्वाचन आयोग की यह दलील भी दर्ज की कि 24 जून के आदेश में नागरिकता दर्शाने के लिए स्वीकार्य दस्तावेजों के रूप में निर्दिष्ट ग्यारह दस्तावेजों की सूची संपूर्ण नहीं थी, बल्कि केवल उदाहरणस्वरूप थी। न्यायालय ने अपने आदेश में कहा, “अतः हमारी प्रथम दृष्टि में राय है कि चूँकि यह सूची संपूर्ण नहीं है, इसलिए न्याय के हित में उचित होगा कि निर्वाचन आयोग आधार कार्ड, चुनाव आयोग द्वारा जारी मतदाता फोटो पहचान पत्र और राशन कार्ड पर भी विचार करे।” न्यायालय ने स्पष्ट किया कि निर्वाचन आयोग केवल इन दस्तावेजों के आधार पर किसी का नाम मतदाता सूची में शामिल करने के लिए बाध्य नहीं है और उसे इन्हें स्वीकार या अस्वीकार करने का विवेकाधिकार है।

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की आंशिक कार्यदिवस पीठ ने ईसीआई के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं के समूह को 28 जुलाई, 2025 को आगे की सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया। ईसीआई को 21 जुलाई तक जवाबी हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दिया गया है।

बिहार मतदाता सूची पुनरीक्षण मामले पर कोर्ट ने कहा कि इस न्यायालय के समक्ष दायर याचिकाओं में एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है, जो हमारे देश जैसे गणतंत्र की कार्यप्रणाली के मूल में जाता है। प्रश्न है — मतदान का अधिकार। याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि 24 जून 2025 के आदेश में भारत निर्वाचन आयोग द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया, जो जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा 21(3) के अंतर्गत मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण है, न केवल संविधान के अनुच्छेद 14, 21, 324, 325 और 326 के तहत मतदाताओं के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है, बल्कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 के प्रावधानों और इसके लिए बनाए गए नियमों, विशेष रूप से मतदाताओं के पंजीकरण नियम, 1960 की वैधता का भी उल्लंघन करती है।

कोर्ट ने बताया कि ईसी के वकील द्विवेदी ने कहा कि 11 दस्तावेजों की सूची संपूर्ण नहीं है, जैसा कि जून के आदेश में संकेत दिया गया है, इसलिए हमारा विचार है कि चुनाव आयोग निम्नलिखित दस्तावेजों पर भी विचार करेगा — आधार कार्ड, चुनाव आयोग द्वारा जारी मतदाता पहचान पत्र (ईपीआईसी) और राशन कार्ड। याचिकाकर्ता इस स्तर पर अंतरिम रोक के लिए दबाव नहीं डाल रहे हैं, क्योंकि किसी भी स्थिति में मतदाता सूची का मसौदा 1 अगस्त, 2025 को ही प्रकाशित किया जाना है और मामला उससे पहले 28 जुलाई, 2025 को अदालत के समक्ष सूचीबद्ध है।

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को बिहार में मतदाता सूची के ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ को लेकर चुनाव आयोग से कड़े सवाल पूछे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग की प्रक्रिया पर रोक नहीं लगाई क्योंकि याचिकाकर्ताओं ने इसकी मांग नहीं की। सुप्रीम कोर्ट ने पूछा — विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले ही क्यों? अदालत ने इस प्रक्रिया की वैधता को स्वीकार किया, लेकिन चुनाव आयोग से पूछा कि उसने चुनाव से ठीक पहले यह प्रक्रिया क्यों शुरू की। अदालत ने चुनाव आयोग से कहा, “समस्या आपकी प्रक्रिया नहीं, बल्कि समय का सवाल है…”

पीठ ने आदेश में कहा, “हमारी प्रथम दृष्टि में राय है कि इसमें तीन प्रश्न शामिल हैं — पहला, चुनाव आयोग की यह शक्ति; दूसरा, शक्ति के प्रयोग की प्रक्रिया और तरीका; और तीसरा, समय और समय-सीमा, जो इस तथ्य को देखते हुए बहुत कम है कि बिहार में चुनाव नवंबर, 2025 में होने हैं।”

एडीआर की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायण ने पीठ को मामले की पृष्ठभूमि बताई। उन्होंने कहा कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में ‘गहन पुनरीक्षण’ और ‘संक्षिप्त पुनरीक्षण’ का प्रावधान है। गहन पुनरीक्षण में मतदाता सूची का नया पुनरीक्षण होता है, जिसमें मौजूदा मतदाता सूची को हटा दिया जाता है, जबकि संक्षिप्त पुनरीक्षण केवल मौजूदा मतदाता सूची का अद्यतन होता है। उन्होंने कहा कि भारत के इतिहास में यह पहली बार है कि भारत का निर्वाचन आयोग किसी राज्य की मतदाता सूची का ‘विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर)’ करने का प्रयास कर रहा है, जबकि अधिनियम या नियमों में एसआईआर को मान्यता प्राप्त नहीं है। चुनाव आयोग के 24 जून के आदेश के अनुसार वे 2003 के बाद नामांकित व्यक्तियों का एसआईआर कर रहे हैं। उन्होंने एक विशिष्ट समयसीमा तय की है और 11 ऐसे दस्तावेजों का उल्लेख किया है जो केवल नागरिकता दर्शाने के लिए स्वीकार्य हैं। उन्होंने आगे कहा, “हैरानी की बात यह है कि इन दस्तावेजों में आधार या मतदाता पहचान पत्र शामिल नहीं हैं।”

उन्होंने कहा कि बिहार में जनवरी 2025 तक नियमित रूप से मतदाता सूचियों का संक्षिप्त पुनरीक्षण होता रहा है, इसलिए वर्तमान एसआईआर का कोई औचित्य नहीं है। उन्होंने उन फैसलों का हवाला दिया जिनमें कहा गया कि एक बार मतदाता सूची में नामांकित हो जाने के बाद, नागरिकता की धारणा स्थापित हो जाती है।

इस पर न्यायमूर्ति धूलिया ने टिप्पणी की कि निर्वाचन आयोग वही कर रहा है जो संविधान में प्रावधानित है। “वे वही कर रहे हैं जो संविधान में लिखा है, है ना? तो आप यह नहीं कह सकते कि वे कुछ अवैध कर रहे हैं।”

असहमति जताते हुए शंकरनारायण ने दलील दी कि अधिनियम के अनुसार गहन संशोधन के लिए हर घर जाना होगा, पर एसआईआर के लिए उन्होंने “मनमाना कट-ऑफ 2003” तय कर लिया है। उन्होंने कहा, “उन्होंने एक कृत्रिम भेद पैदा कर दिया है जिसकी अधिनियम अनुमति नहीं देता।”

न्यायमूर्ति धूलिया ने 2003 की कट-ऑफ के बारे में कहा, “लेकिन इसमें व्यावहारिकता भी शामिल है। उन्होंने तारीख इसलिए तय की है क्योंकि कम्प्यूटरीकरण के बाद यह पहली बार था। उनके फैसले के पीछे तर्क है। आप उस तर्क को खारिज कर सकते हैं, लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि कोई तर्क ही नहीं है।”

न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा, “धारा 21 (जनप्रतिनिधित्व अधिनियम) के अनुसार निर्वाचन आयोग को ऐसा करने का अधिकार है। आप आयोग के अधिकार को चुनौती नहीं दे रहे हैं, बल्कि अधिकार के प्रयोग के तरीके को चुनौती दे रहे हैं।” शंकरनारायण ने सहमति जताते हुए कहा कि याचिकाकर्ता अधिकार के प्रयोग के तरीके पर ही सवाल उठा रहे हैं।

इस बिंदु पर न्यायमूर्ति बागची ने धारा 21(3) का हवाला देते हुए कहा कि यह चुनाव आयोग को विशेष संशोधन का अधिकार देती है। न्यायमूर्ति बागची ने स्पष्ट किया कि धारा 21(3) यह अनिवार्य नहीं करती कि आयोग “निर्धारित तरीके” से संशोधन करे, बल्कि यह उसे “उचित तरीके” से संशोधन का विवेकाधिकार देती है।

वकील ने दलील दी कि विवेकाधिकार का प्रयोग मनमाने ढंग से किया जा रहा है। उन्होंने सवाल उठाया कि जब जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में आधार कार्ड को मान्यता दी गई है, तब इसे स्वीकार्य दस्तावेज़ क्यों नहीं माना गया।

न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा, “हम उनसे पूछेंगे कि आधार को क्यों स्वीकार नहीं किया गया।”

न्यायमूर्ति बागची ने निर्वाचन आयोग से कहा, “श्री शंकरनारायण का कहना है कि मूल अधिनियम के तहत आधार एक प्रासंगिक दस्तावेज़ है और इसे पहचान के दस्तावेज़ के रूप में हटाना अधिनियम की योजना के विपरीत है।” इसके उत्तर में न्यायमूर्ति धूलिया ने बताया कि चुनाव आयोग द्वारा निर्दिष्ट 11 दस्तावेजों में से कुछ आधार कार्ड पर आधारित हैं।

शंकरनारायण ने कहा कि आधार, मनरेगा कार्ड, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की पासबुक आदि जैसे दस्तावेज़, जिन्हें नियमों के अनुसार मान्यता प्राप्त है, 24 जून के आदेश से बाहर कर दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि यहां तक कि आयोग द्वारा जारी मतदाता पहचान पत्र भी स्वीकार नहीं किया जा रहा है।

न्यायमूर्ति बागची ने कहा, “आपके तर्क का सार यह है कि स्वीकार्य दस्तावेज़ों में आधार और चुनाव फोटो पहचान पत्र को शामिल नहीं किया गया है।”

इसके बाद शंकरनारायण ने भेदभाव का मुद्दा उठाया और कहा कि आयोग न्यायपालिका, सरकारी सेवाओं, खेल, कला आदि के विशिष्ट लोगों के साथ अलग व्यवहार कर रहा है, जो अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है। हालांकि पीठ इस तर्क से प्रभावित नहीं हुई और कहा कि यह भेदभाव व्यावहारिकता पर आधारित है क्योंकि न्यायाधीश जैसे लोग पहले से सत्यापित होते हैं। न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा, “बाईलाइन पर मत जाइए, मुख्य बिंदु पर रहिए।”

आधार को नागरिकता प्रमाण पत्र से बाहर रखने के संबंध में आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा, “आधार को नागरिकता के प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।”

न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा, “लेकिन नागरिकता का निर्धारण भारत निर्वाचन आयोग नहीं, बल्कि गृह मंत्रालय करता है।”

आयोग के वकील ने जवाब दिया, “हमारे पास अनुच्छेद 326 के तहत शक्तियाँ हैं।” पीठ ने पलटवार करते हुए कहा कि यह काम चुनाव आयोग को काफी पहले शुरू कर देना चाहिए था।

न्यायमूर्ति बागची ने कहा, “अगर आप प्रस्तावित चुनाव से कुछ महीने पहले यह निर्णय लेते हैं, तो पहले से सूची में शामिल व्यक्ति को आप अपील और प्रक्रिया के चक्कर में डाल देंगे, जिससे वह आगामी चुनाव में मतदान से वंचित हो सकता है।” उन्होंने कहा कि मतदाता सूची को शुद्ध करना गलत नहीं है, परंतु यह कार्य उचित समय पर करना चाहिए था।

वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल (राजद सांसद मनोज झा की ओर से) ने कहा कि यह साबित करने की जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग की है कि सूची में शामिल व्यक्ति नागरिक नहीं है। उन्होंने कहा कि आयोग द्वारा निर्दिष्ट दस्तावेज़ बिहार के अधिकांश लोगों के पास नहीं हैं। उदाहरण के लिए पासपोर्ट केवल 2.5% लोगों के पास है, मैट्रिकुलेशन प्रमाण पत्र 14.71% लोगों के पास, वन अधिकार प्रमाण पत्र नगण्य है, निवास प्रमाण पत्र और ओबीसी प्रमाण पत्र भी बहुत कम लोगों के पास हैं। जन्म प्रमाण पत्र, आधार कार्ड और मनरेगा कार्ड को इससे बाहर रखा गया है।

सिब्बल ने तर्क दिया कि नागरिकता अधिनियम के तहत केवल भारत सरकार ही नागरिकता को चुनौती दे सकती है और “चुनाव आयोग का एक छोटा अधिकारी” ऐसी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता।

वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि “एक भी योग्य मतदाता को मताधिकार से वंचित करना समान अवसर को प्रभावित करता है और लोकतंत्र तथा उसकी बुनियाद पर आघात पहुँचाता है।” पीठ ने इस पर सहमति जताई।

वरिष्ठ अधिवक्ता शादान फरासत, वृंदा ग्रोवर और निज़ाम पाशा ने भी याचिकाकर्ताओं की ओर से दलीलें दीं। ग्रोवर ने कहा कि यह प्रक्रिया गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों को असमान रूप से प्रभावित कर रही है और यह “समावेशी” होने के बजाय “बहिष्कृत” कर रही है।

सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद पीठ ने निर्वाचन आयोग से कहा कि उसे तीन बिंदुओं पर जवाब देना होगा — आयोग की शक्ति, शक्ति के प्रयोग की प्रक्रिया और शक्ति प्रयोग का समय।

वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि मतदाता सूचियों में संशोधन करने की शक्ति आयोग के पास निहित है। न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा, “वे कह रहे हैं कि आप जो कर रहे हैं, वह न तो संक्षिप्त पुनरीक्षण है और न ही गहन पुनरीक्षण, बल्कि एक नया ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ है, जिसका प्रावधान नियमों में नहीं है। और अब आप नागरिकता के प्रश्न पर भी सवाल उठा रहे हैं।” द्विवेदी ने जोर देकर कहा कि निर्वाचन आयोग का किसी भी वास्तविक मतदाता को बाहर करने का कोई इरादा नहीं है।

“क्या आप इस आपत्ति को लेकर गंभीर हैं?” न्यायमूर्ति धूलिया ने पूछा। द्विवेदी ने हां में जवाब दिया, तो न्यायमूर्ति बागची ने कहा, “यह आपकी सबसे अच्छी बात नहीं हो सकती। शायद यह एक मुद्दा हो। चलिए आगे बढ़ते हैं।”

पीठ ने समय पर भी सवाल उठाया। न्यायमूर्ति बागची ने पूछा, “सवाल यह है कि अगर यह प्रक्रिया पूरे देश के चुनावों से स्वतंत्र हो सकती है, तो आप इस प्रक्रिया को नवंबर में होने वाले चुनाव से क्यों जोड़ रहे हैं?” न्यायाधीश ने यह भी पूछा कि क्या चुनाव से पहले यह प्रक्रिया पूरी करना संभव है। द्विवेदी ने न्यायालय से आग्रह किया कि कम से कम इस प्रक्रिया को फिलहाल जारी रहने दिया जाए और कहा कि अगर यह पाया जाता है कि प्रक्रिया असंतोषजनक है, तो न्यायालय बाद में हस्तक्षेप कर सकता है।

पीठ ने चुनाव आयोग द्वारा दी गई सख्त समय सीमा पर भी सवाल उठाया।

न्यायमूर्ति धूलिया ने कहा, “हमें इस बात पर गंभीर संदेह है कि क्या यह समय-सीमा यथार्थवादी है। यह व्यावहारिकता का प्रश्न है।” उन्होंने आगे कहा, “अगर आप ये दस्तावेज़ तुरंत मांगेंगे, तो मैं भी अभी इन्हें पेश नहीं कर पाऊँगा, व्यावहारिकता देखिए, समय-सीमा देखिए।”

पीठ ने यह भी बताया कि चुनाव आयोग द्वारा निर्दिष्ट कई दस्तावेज़ स्वयं आधार पर आधारित हैं और सवाल किया कि इसे क्यों शामिल नहीं किया गया। चुनाव आयोग द्वारा निर्दिष्ट सभी दस्तावेज़ पहचान से संबंधित हैं, नागरिकता से नहीं। इसलिए, आधार को इसमें शामिल क्यों नहीं किया जा सकता, अदालत ने पूछा।

द्विवेदी ने स्पष्ट किया कि चुनाव आयोग द्वारा निर्दिष्ट दस्तावेजों की सूची संपूर्ण नहीं है। उन्होंने सुझाव दिया कि न्यायालय सुनवाई अगस्त तक स्थगित कर दे और इस बीच अंतिम सूची प्रकाशित न करने पर सहमत हो गया। पीठ ने कहा कि मसौदा सूची भी प्रकाशित नहीं की जानी चाहिए।

हालांकि, पीठ ने याचिकाकर्ताओं की प्रक्रिया पर रोक लगाने की याचिका को यह कहते हुए स्वीकार करने से इनकार कर दिया कि वह किसी संवैधानिक संस्था को उसके कार्यों से नहीं रोक सकती। सिंघवी ने तर्क दिया कि चुनाव आयोग को आगे बढ़ने की अनुमति देने से उन्हें एक अपरिवर्तनीय स्थिति पेश करने का मौका मिल जाएगा और वे यह दावा कर सकेंगे कि “तले हुए अंडे को खोलना” मुश्किल है।

बिहार में मतदाता सूची के “विशेष गहन पुनरीक्षण” (एसआईआर) के लिए भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) के आदेश को चुनौती देने वाली याचिकाओं के समूह को सोमवार को न्यायालय के समक्ष तत्काल उल्लेख किए जाने के बाद सूचीबद्ध किया गया था।

याचिकाकर्ताओं में विपक्षी नेता केसी वेणुगोपाल (कांग्रेस), सुप्रिया सुले (एनसीपी-शरद पवार), डी राजा (सीपीआई), डीएमके के प्रतिनिधि, हरिंदर मलिक (समाजवादी पार्टी), अरविंद सावंत (शिवसेना यूबीटी), सरफराज अहमद (जेएमएम) और दीपांकर भट्टाचार्य (सीपीआई-एमएल) शामिल हैं।राजद सांसद मनोज झा , कार्यकर्ता योगेंद्र यादव , लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स , पीयूसीएल जैसे संगठनों ने भी अदालत का दरवाजा खटखटाया था।

(जेपी सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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