एक पुरानी कहावत है कि जिनके मकान शीशे के होते हैं, वे दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकते। गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल के चेयरपर्सन हैं। हाल ही में अमित शाह ने कहा कि जो लोग अंग्रेजी बोलते हैं, उन्हें एक दिन शर्मिंदगी महसूस होगी। क्या अपने पिता की बात सुनकर जय शाह ने उनसे कहा होगा, “पिताजी, यह आपने क्या कह दिया? क्योंकि मैं भी तो अंग्रेजी बोलता हूँ।”
क्या अरुण जेटली, निर्मला सीतारमण, जयशंकर आदि भी अंग्रेजी बोलने पर शर्मिंदगी महसूस करेंगे? क्या बीजेपी के उन नेताओं के बच्चे, जो विदेशों में अंग्रेजी में पढ़ते हैं, शर्मिंदगी महसूस करेंगे? क्या अमित शाह अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर दबाव डालेंगे कि वे अपने बच्चों को केवल भारतीय भाषाओं में पढ़ाने वाले स्कूलों और उच्च शिक्षा संस्थानों में भेजें? क्या वे उन नेताओं और कार्यकर्ताओं पर दबाव डालेंगे, जिनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं, कि वे उन्हें तुरंत वापस बुलाएँ और उनका दाखिला भारतीय भाषाओं में पढ़ाने वाले संस्थानों में कराएँ?
वास्तविकता की जाँच
हम जानते हैं कि ऐसा कुछ होने वाला नहीं है! क्या अमित शाह गृह मंत्रालय में ऐसा सचिव नियुक्त करेंगे, जिसे अंग्रेजी न आती हो? कुछ समय पहले केंद्र सरकार ने 20 विश्वविद्यालयों को एक-एक हजार करोड़ रुपये देने का वादा किया था। क्या सरकार उन विश्वविद्यालयों पर यह शर्त लगाएगी कि उनमें अंग्रेजी का उपयोग नहीं होगा? क्या बीजेपी अपनी पार्टी से उन नेताओं को निकालेगी, जो अंग्रेजी बोलते हैं? बीजेपी में उत्तर-पूर्व और दक्षिण भारत से आने वाले नेता भी हैं। क्या इन नेताओं को शर्मिंदगी महसूस करनी चाहिए? क्या अमित शाह की बातें सुनकर सावरकर या अरुण जेटली स्वर्ग में शर्मिंदगी महसूस कर रहे होंगे?
2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की जनसंख्या का 10% से अधिक हिस्सा अंग्रेजी बोलता है, यानी करीब 13 करोड़ लोग। अमित शाह के अनुसार, क्या इन 13 करोड़ लोगों को शर्मिंदगी महसूस करनी चाहिए? अगर राज्यों और शहरों पर नजर डालें, तो चंडीगढ़ में 42%, दिल्ली में 32%, उत्तराखंड में 8.5% लोग अंग्रेजी बोलते हैं। क्या इन सभी को शर्मिंदगी महसूस करनी चाहिए? गोवा में 42%, नागालैंड में 33%, मणिपुर में 32%, और पंजाब में 30% लोग अंग्रेजी बोलते हैं। क्या इन सभी को शर्म से डूब मरना चाहिए?
नकारात्मक राजनीति का सवाल
क्या काठ की हांडी बार-बार आग पर चढ़ सकती है? कभी 18 करोड़ लोगों को धर्म के नाम पर अपमानित करो, कभी उर्दू के नाम पर, और अब 13 करोड़ लोगों को अंग्रेजी के नाम पर। यह नकारात्मक राजनीति कब तक चलेगी?
अमित शाह ने यह नहीं कहा कि एक दिन उन लोगों को शर्मिंदगी महसूस होगी, जो धर्म और जाति के नाम पर मॉब लिंचिंग करते हैं। उन्होंने यह नहीं कहा कि उन लोगों को शर्मिंदगी महसूस होगी, जो किसी नागरिक के अपने पार्टनर चुनने के अधिकार को बाधित करते हैं। उन्होंने यह नहीं कहा कि उन लोगों को शर्मिंदगी महसूस होगी, जो कानून बनाकर देश में पानी जैसे मूलभूत संसाधनों का असमान वितरण करते हैं।
उन्होंने यह नहीं कहा कि उन लोगों को शर्मिंदगी महसूस होगी, जो समान काम के लिए समान वेतन नहीं देते। उन्होंने यह नहीं कहा कि उन लोगों को शर्मिंदगी महसूस होगी, जो घरेलू हिंसा करते हैं। उन्होंने यह नहीं कहा कि उन लोगों को शर्मिंदगी महसूस होगी, जो बच्चों की खेलने की सार्वजनिक जगहों का व्यवसायीकरण करते हैं। उन्होंने यह नहीं कहा कि उन लोगों को शर्मिंदगी महसूस होगी, जो स्कूली शिक्षा का संप्रदायीकरण या स्वास्थ्य सेवाओं का व्यवसायीकरण करते हैं।
अंग्रेजी का संवैधानिक स्थान
अमित शाह भारत के गृह मंत्री हैं। उन्हें निश्चित रूप से पता होगा कि अंग्रेजी भारत की सह-राजभाषा है। उन्हें यह भी पता होगा कि अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, त्रिपुरा, सिक्किम, ओडिशा, हिमाचल प्रदेश, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, चंडीगढ़, दिल्ली, लद्दाख, पुदुचेरी आदि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अंग्रेजी एक राजभाषा है। गृह मंत्री, जिन्हें देश की एकता और अखंडता को गंभीरता से लेना चाहिए, क्या वे इन राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के लोगों को शर्मिंदगी महसूस करने के लिए कह रहे हैं? क्या उनकी अंग्रेजी बोलने वालों के प्रति सोच राष्ट्रीय एकता के लिए नुकसानदेह हो सकती है? इतिहास में हम देख चुके हैं कि उर्दू थोपने के कारण बांग्लादेश एक अलग देश बन गया।
अंग्रेजी: अवसरों की कुंजी
मैं ऐसे लोगों को जानता हूँ, जिनके परिवार के सदस्य अंग्रेजी के कारण बेहतर सुविधाओं वाली जिंदगी जी रहे हैं। उन्हें अपने अंग्रेजी बोलने वाले परिवारजनों पर गर्व है। वे अंग्रेजी के आधार पर अपने और दूसरों के बच्चों में अंतर भी करते हैं। लेकिन फिर भी वे कहते हैं कि उन्हें अंग्रेजी से नफरत है। ऐसे लोग अमित शाह की तरह ही सोचते हैं। वे चाहते हैं कि उनका बेटा इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल तक पहुँचे, लेकिन दूसरों के बच्चे वहाँ न पहुँचें।
2010-11 से 2015-16 तक सरकारी स्कूलों में 1.3 करोड़ विद्यार्थियों का नामांकन कम हुआ, जबकि निजी स्कूलों में 1.75 करोड़ विद्यार्थियों का नामांकन बढ़ा। राइट टू एजुकेशन एक्ट लागू होने के बाद के पाँच सालों में 1.3 करोड़ विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल छोड़ दिए। इस दौरान सरकारी स्कूलों में नामांकन 12.62 करोड़ से घटकर 11.3 करोड़ हो गया, जबकि निजी स्कूलों में यह 4.43 करोड़ से बढ़कर 6.18 करोड़ हो गया। सरकारी स्कूल छोड़ने का एक प्रमुख कारण अंग्रेजी भाषा के प्रति आकर्षण है। यह आकर्षण अतार्किक नहीं है। लोग देख रहे हैं कि अंग्रेजी सीखना आगे बढ़ने की कुंजी है। वे देख रहे हैं कि अंग्रेजी के कारण उनके बच्चे दूसरों से आगे निकल सकते हैं। ऐसे में अभिभावक एक तार्किक निर्णय ले रहे हैं।
ऐतिहासिक संदर्भ
हाल ही में मुझे उत्तराखंड के लोगों की एक इच्छा के बारे में रोचक जानकारी मिली। 1886 में एटकिन्सन द्वारा तैयार हिमालयन गजेटियर के तीसरे खंड के दूसरे भाग के पेज 543 पर लिखा है कि 1850 में कुमाऊँ और गढ़वाल में हिंदी और संस्कृत के 121 स्कूल थे। ये स्कूल निजी घरों में चलते थे और इनमें 522 विद्यार्थी पढ़ते थे, जिनमें 338 ब्राह्मण थे।
पेज 544 पर लिखा है कि अभिभावकों की ओर से प्रशासन को नए स्कूल खोलने के लिए ढेर सारी चिट्ठियाँ मिल रही थीं। अभिभावक अनुरोध कर रहे थे कि उनके बच्चों की पढ़ाई हिंदी और अंग्रेजी में हो। उस समय कुमाऊँ और गढ़वाल में बहुत कम लोग हिंदी जानते थे, और अंग्रेजी तो इक्का-दुक्का लोग ही जानते थे।
फिर भी, अभिभावकों के लिए “लैंग्वेज ऑफ एस्पिरेशन” हिंदी और अंग्रेजी थी, न कि कुमाऊँनी या गढ़वाली। क्योंकि वे जानते थे कि कुमाऊँनी या गढ़वाली सीखने से उनके बच्चों के लिए रोजगार के अवसर सीमित रहेंगे, जबकि हिंदी और अंग्रेजी सीखकर वे बड़े क्षेत्रों में विभिन्न रोजगारों के लिए दावेदार बन सकते थे। उनकी यह सोच तार्किक थी। क्या इस तार्किकता के लिए कुमाऊँ और गढ़वाल के उन अभिभावकों को स्वर्ग में शर्मिंदगी महसूस करनी चाहिए, जैसा कि अमित शाह कह रहे हैं?
भाषा और आकांक्षाएँ
तथ्य यह है कि लोग वही भाषा चुनेंगे, जो उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने में मददगार हो। यदि भारतीय भाषाओं में आकांक्षाएँ पैदा की जाएँ, तो लोग उन्हें शिक्षा का माध्यम बनाएँगे। किसी भाषा को अपमानित करने से कोई लाभ नहीं होगा। इसके बजाय, भारतीय भाषाओं को “लैंग्वेज ऑफ एस्पिरेशन” बनाना चाहिए। लेकिन यह कैसे होगा?
देश में निजी स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही है। भारत सरकार की 2023-24 की स्कूली शिक्षा रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल 14.72 लाख स्कूल हैं, जिनमें 10.17 लाख सरकारी स्कूल और 4.55 लाख गैर-सरकारी स्कूल हैं। यानी 31% स्कूल गैर-सरकारी हैं।
कई सरकारी स्कूलों, जैसे केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, मॉडल स्कूल, सैनिक स्कूल आदि में भी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। एक अनुमान के अनुसार, देश के 50% से अधिक स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। खासकर उत्तर-पूर्व और दक्षिण भारत के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अधिकांश सरकारी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी है। ऐसे में अंग्रेजी की जगह किस भारतीय भाषा को इन स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की “लैंग्वेज ऑफ एस्पिरेशन” बनाया जाएगा?
निष्कर्ष
ऐसा नहीं होना चाहिए कि कुछ लोगों के लिए अंग्रेजी सीखने के दरवाजे खुले हों और दूसरों के लिए बंद कर दिए जाएँ। लोग समझ चुके हैं कि अंग्रेजी “लैंग्वेज ऑफ एस्पिरेशन” है। वे यह भी समझ रहे हैं कि भारतीय भाषाओं के नाम पर उनके साथ भावनात्मक खेल खेला जा रहा है, जबकि कुछ लोग भावनाओं के बोझ से मुक्त हैं। लोग जानते हैं कि जो अंग्रेजी सीखेगा, वही संसाधनों पर नियंत्रण करेगा। लोकतंत्र में सभी को संसाधनों में हिस्सेदारी चाहिए।
सवाल यह है कि अमित शाह लोगों को अपनी हिस्सेदारी छोड़ने के लिए कैसे मनाएँगे? और उन्हें ऐसा क्यों करना चाहिए? देश में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही है, जो अकाल को सोहर की तरह नहीं गाना चाहते। वे अकाल और सोहर में फर्क समझते हैं।
(बीरेंद्र सिंह रावत, शिक्षा विभाग, दिल्ली-विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं।)
- https://www.youtube.com/shorts/kN43Td2OWqg
- UDISE – 2014-15
- UDISE – 2015-16
- 2012 to 2017. In 5 Years, Private Schools Gain
17 Mn Students, Govt Schools Lose 13 Mn - UDISE – 2023-24
- Education System : Nothing to Cheer About
https://frontierweekly.com/articles/vol-48/48-14-
17/48-14-17-Education%20System.html - Atkinson, 1886, Vol. III, Part-2. See page 543.