Friday, April 19, 2024

चीन की अमेरिका के 90 के मुकाबले 120 ट्रिलियन डालर हो गयी है संपत्ति

कल जबसे मैकेंजी की रिपोर्ट पढ़ने को मिली है, दिल में अजीब सा खौफ पैदा हो गया है जो प्रदूषण से भी घना है। रिपोर्ट के मुताबिक 2020 में ही चीन की संपदा 120 ट्रिलियन डॉलर की हो चुकी थी, और उसने अमेरिकी अर्थव्यवस्था को पछाड़कर नम्बर 1 हैसियत हासिल कर ली है। थोड़ा मोड़ा नहीं, 30 ट्रिलियन डॉलर का अंतर है।

2000 में चीन के पास संपत्ति 7 ट्रिलियन तो अमेरिका की 45 ट्रिलयन थी। चीन ने 7 से 120 कर ली, लेकिन अमेरिका 90 ही कर पाया।

इसे देखते हुए बड़ा डर यह है कि हमारा पड़ोसी तो अगले 5 साल में कहां से कहां पहुंच जायेगा। यही चलता रहा तो अमेरिका से जल्द ही तीन गुना संपत्तिवान हो जायेगा।

और हम उस हारे हुए जुआरी के पीछे कर्ण की तरह रथ का पहिया ठीक कर रहे होंगे। लेकिन बहुत संभव है कि 75 साल से जिस अमेरिका को बादशाहत करने की लत लग चुकी है, और उसके नागरिक खुद को दुनिया का प्रथम नागरिक समझते हों, उनके लिए इस सदमे को बर्दाश्त करना कतई मंजूर न हो।

ऐसे में भारत, कोरिया, जापान, ऑस्ट्रेलिया जैसे देश उसके चारे के तौर पर क्या केंचुआ बनना पसंद करेंगे?

यह सब इन देशों के शासकों पर निर्भर करता है कि वे चिलम के शौकीन हैं या नहीं। कायदे से तो उन्हें भी चीन से कुछ सीख लेकर अपने देश के विकास के बारे में सोचना चाहिए।

कृषि, उद्योग धंधे, बेहतरीन शिक्षा, स्वास्थ्य, अनुसंधान के क्षेत्र में पूरी ऊर्जा खपानी चाहिए न कि दुनिया की सबसे बड़ी मूर्ति, परमाणु पनडुब्बी या फालतू में संसद पर खर्च करना चाहिए।

लेकिन उससे भी ज्यादा तो यह देश की जनता पर निर्भर करता है कि उसे वाकई में आम खाना है या सिर्फ उसका अहसास लेते रहने में यकीन है? एक समय था जब एशिया में जापान जापान हुआ करता था, लेकिन उसकी चाभी अमेरिका के पास थी। जिसके चलते वह आज बोनसाई बना हुआ है। कोरिया वाले ज्यादा चतुर लगते हैं।

ऑस्ट्रेलिया वाले सिमट रहे हैं, वैसे भी उनकी डोर हमेशा से ब्रिटिश अमेरिका के हाथ रही है। भारत के पास तो सोचने की फुर्सत ही नहीं है। उसे तो 2014 के बाद से हर पल अगले चुनाव का बुखार चढ़ा रहता है।

चुनाव में कैसे जीत मिले, इसके लिए इतने तरह-तरह के करतब चलते रहते हैं जिसमें राज्य, राज्य के सभी पुर्जे, मीडिया, भीड़ की हिंसा, यहां तक कि दुर्गा गणेश होली दीवाली ही नहीं जुमे की नमाज तक पर विशेष निगाह रखी जाती है। इस चक्कर में न आज का आनन्द उठाया जाता है और न भविष्य की ओर कोई समझ।

बाकी 100 करोड़ से अधिक लोगों को तो सरकारी गल्ले की दुकान से ही नाथ दिया गया है, वे अब इस सब पर सोचने के लायक ही नहीं बचे तो रह गए शहरी मध्यवर्ग।

उनमें भी 90% लोग ऐसे हैं, जो अपने ही अनुभव के आधार पर अपने अपने बच्चों का जीवन सफल बनाने की जुगत में अपनी आधी कमाई फूंक रहे हैं, उन्हें फुर्सत ही नहीं देश दुनिया की। उन्हें लगता है मेरा बचवा किसी तरह यहां नहीं तो अमरीका में सेट हो जाये तो समझो गंगा नहा लिए।

लेकिन अमेरिका क्या सोच रहा है, पीछे तो देखो चचा।

(रविंद्र सिंह पटवाल टिप्पणीकार हैं और जनचौक से जुड़े हैं।)

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