Friday, March 29, 2024

मुरादाबाद भी रहा स्वतंत्रता आन्दोलन का गवाह, यहीं से फूटी थी खिलाफत और असहयोग की ज्वाला 

मानव इतिहास में 15 अगस्त, 1947 को ऐसी घटना घटी जिससे न केवल दो देशों के बीच की सरहदें बंट गईं बल्कि दिल भी बंट गए। जिसने भी विभाजन विभीषिका का दंश झेला उसके दिल में विभाजन के प्रति नफरत बढ़ती ही गई। यह ऐसा विभाजन था जिसमें अपने पीछे छूट गए थे। विभाजन की घोषणा होने के बाद चारों तरफ मारामारी, कत्लेआम और ना जाने क्या-क्या देखना और सहना पड़ा।

मशहूर पाकिस्तानी-अमेरिकी इतिहासकार आयशा जलाल ने विभाजन विभीषिका के बारे में कभी कहा था कि “बीसवीं सदी के दक्षिण एशिया की केन्द्रीय ऐतिहासिक घटना थी”  एक ऐसा ऐतिहासिक क्षण था जिसने आने वाले अनेक दशकों को परिभाषित कर डाला।”

विभाजन विभीषिका का रास्ता छोटे-छोटे नौनिहालों के खून से सने लिथड़ों से होकर गुजरा। देश की आज़ादी में छोटे शहरों, कस्बों और गांवों के बलिदान को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बसा मुरादाबाद भी स्वतंत्रता आन्दोलन का जीता जागता उदाहरण रहा है। विभीषिका का दंश यहां के लोगों ने भी बराबर झेला। स्वतंत्रता संग्राम में होने वाले बड़े-बड़े आन्दोलनों की राह मुरादाबाद शहर से होकर भी गुजरी थी।

मुरादाबाद से शुरू हुआ था खिलाफत और असहयोग आंदोलन

स्वतंत्रता संग्राम में मुरादाबाद अग्रणी रहा है। यही वो जगह थी जहां पर खिलाफत और असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई। साल 1920 में महात्मा गांधी के साथ-साथ आजादी की लड़ाई के कई लोग जुटे थे। कहा जाता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति होने तक महात्मा गांधी यहां तीन बार आए थे। वर्ष 1920 में डॉ. भगवान दास की अध्यक्षता में यहां सम्मेलन हुआ। तब यह सम्मेलन महाराजा थियेटर में आयोजित हुआ था। जिसमें असहयोग आन्दोलन की भूमिका तैयार हुई। महात्मा गांधी के साथ पं.मदन मोहन मालवीय, पं.मोती लाल नेहरू, पं.जवाहर लाल नेहरू ,शौकत अली, हकीम अजमत खां, मौलाना मोहम्मद अली,डॉ.अन्सारी के उसमें शामिल होने की बातें सेनानियों के घर वाले करते हैं। अखिल भारतीय स्वतंत्रता सेनानी उत्तराधिकारी संगठन के महामंत्री धवल दीक्षित मीडिया से बताते हैं कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जाकर असहयोग की बात मुरादाबाद से ही शुरू हुई थी लेकिन बाद में कोलकाता अधिवेशन में इस प्रस्ताव को पारित किया गया।

मुरादाबाद में गिरफ्तार होने वाले पहले व्यक्ति बनवारी लाल रहबर थे इसके बाद में जफर हुसैन बास्ती, अशफाक हुसैन मुख्तार की गिरफ्तारी हुई। वहीं सम्भल से मौलवी मुहम्मद इस्माइल, लाला चंदूलाल (सिरसी) चौधरी रियासत अली खां, मास्टर रूपकिशोर, अमरोहा से नाथूराम वैद्य, बाबूलाल सर्राफ, डॉ.नरोत्तमशरण, छिद्दाउल्ला, अशफाक अहमद और मुमताज अली पकड़े गए। रजबपुर से लाला मुन्नीलाल, शेख मुहम्मद अफजल, चंदौसी से लाला लक्ष्मीचंद्र, लच्छू भगत, मुंशी लाल तथा सादिक की गिरफ्तारी हुई। 

महात्मा को मुरादाबाद से था विशेष लगाव

महात्मा गांधी को मुरादाबाद से विशेष लगाव था। 11 अक्टूबर, 1921 को अमरोहा गेट पर ब्रजरत्न पुस्तकालय की स्थापना करने का श्रेय महात्मा गांधी को ही जाता है। गांधी ने मुरादाबाद को स्वतंत्रता आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र बनाया था। स्वतंत्रता सेनानी पं. हरिप्रसाद वैद्य के पुत्र डॉ. पीके शर्मा वैद्य मीडिया से बात करते हुए बताते हैं कि “पुस्तकालय की ऊपरी मंजिल पर विनोबा भावे ने सर्वोदय भवन की स्थापना की थी। लंबे समय तक पिताजी यहीं पर रहे थे। आजादी के लिए नियमित रूप से बैठकें होती थीं।”

 मुरादाबाद में स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूत बने थे नेहरू

9 अक्टूबर साल 1920 का दिन था जब मुरादाबाद पहली बार पंडित जवाहरलाल नेहरू के आगमन का गवाह बना। पंडित नेहरू का मुरादाबाद से खास लगाव रहा। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वह सक्रिय रहे और बराबर लोगों में देशभक्ति की अलख जगाते रहे। कहा जाता है कि साल 1920 में बुध बाजार स्थित महाराजा थिएटर में कांग्रेस का तीन दिवसीय संयुक्त प्रांतीय सम्मेलन आयोजित हुआ था। यही वह आयोजन था जिसमें महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को अंतिम रूप प्रदान किया गया था। 

आयोजन में जहां महात्मा गांधी, पंडित मदन मोहन मालवीय, एनी बेसेंट ने भागीदारी निभाई वहीं नेहरू भी अपने पिता मोतीलाल नेहरू के साथ आयोजन स्थल पर पहुंचे थे। करीब 22 साल बाद सन् 1942 में पंडित नेहरू फिर मुरादाबाद आए। उस दौरान महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन चरम पर था। जनपद मुरादाबाद की ही तहसील ठाकुरद्वारा में सनातन धर्म इंटर कॉलेज के प्रबंधक साहू सीताराम और शिव सुंदरी मॉटेंसरी स्कूल के संस्थापक साहू रमेश कुमार ने जनसभा का आयोजन किया था। बता दें कि इस सभा को सम्बोधित करने वाले पंडित नेहरू ही थे। मीडिया से बात करते हुए साहू रमेश कुमार के बेटे सुशील साहू बताते हैं कि ब्रिटिश सरकार को जनसभा की भनक लगी तुरंत पुलिस ने छापा मारना शुरू कर दिया लेकिन पंडित नेहरू अपने पिता संग पुलिस को धोखा देने में सक्षम रहे।

हालांकि उनकी मुरादाबाद स्थित कोठी कुमार कुंज को सीज कर दिया। साहू बताते हैं कि “पंडित नेहरू की प्रेरणा से ही उनके पिता बाल शिक्षा की ओर उन्मुख हुए और अपनी पहली पत्‍‌नी सुंदरी की स्मृति में स्कूल की स्थापना की। जब पंडित नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने तो शिवसुंदरी स्कूल के बच्चों का एक दल उनसे मिलने त्रिमूर्ति भवन गया था। दल के साथ उनके पिता भी सपरिवार गए थे।”

सन् 1946 में एक बार फिर नेहरू मुरादाबाद आए। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी दाऊ दयाल खन्ना के नेतृत्व में मंडी चौक से शानदार जुलूस निकाला गया। नेहरू बग्घी पर सवार थे और उधर जनसमूह उन पर धड़ाधड़ पुष्पवर्षा कर रहा था इसी के साथ-साथ ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ नारा भी खूब गूंजा। ब्रिटिश सरकार के प्रति लोगों में रोष की भावना चरम पर थी। इसमें उन्होंने घोषणा की कि “आजादी मिलने पर उन सरकारी अफसरों को फांसी पर लटकाया जाएगा जिन्होंने आंदोलन के समय जनता पर गोलियां बरसाई थीं।” 

पंडित नेहरू स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी आए मुरादाबाद 

पंडित नेहरू स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी मुरादाबाद आए।

दरअसल सन् 1952 में जब विधानसभा चुनाव हुए दांतों मुरादाबाद सीट से केदारनाथ बैरिस्टर को कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में टिकट मिलने पर उनके विरोध में प्रदर्शन शुरू हो गया था। उस दौरान विरोध प्रदर्शन को शांत करने के लिए नेहरू को मजबूरन यहां आना पड़ा। नेहरू ने टाउन हॉल के मैदान में केदारनाथ के समर्थन में चुनावी जनसभा को संबोधित किया था। उन्होंने अपने भाषण में मुरादाबाद के लोगों से कैंडिडेट पर भरोसा जताने का वादा किया था।

लाल बहादुर शास्त्री के गुरु को कन्धे पर बैठाकर आजादी की नैय्या पार कराने वाले मुनिदेव त्यागी

स्वतंत्रता सेनानी मुनिदेव त्यागी मुरादाबाद के गंगेश्वरी थाना आदमपुर (अब अमरोहा जिला) में रहते थे। गंगेश्वरी ब्लॉक गंगा किनारे होने पर जल में डूबा रहता था।  साल 1942 की बात है जब अगस्त महीने में गंगेश्वरी में बाढ़ आई थी। उस दौरान प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के गुरु  प्रोफेसर रामशरण गंगेश्वरी आए थे। बाढ़ प्रभावित क्षेत्र होने के कारण रामशरण के पैरों में जख्म हो गए थे, जिससे वह चल नहीं पा रहे थे। स्वतंत्रता संग्राम चरम पर था और शाम तक उनका बस्तौरा गांव पहुंचना जरूरी था। स्वतंत्रता आन्दोलन में कोई बाधा ना पड़े इसके लिए मुनिदेव त्यागी ने अपने कंधों पर उन्हें बैठाकर कई मील पार करके बस्तौरा गांव पहुंचाया। तब से ही त्यागी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। जिसके कारण ब्रिटिश सरकार ने 2 जून 1941 को छह माह की कैद और 250 रुपये का अर्थदंड दिया। मुरादाबाद स्टेशन पर एक बार त्यागी को एक पुलिसकर्मी ने साल 1942 में कुछ पोस्टर व स्वतंत्रता संग्राम संबंधी सामग्री होने के कारण एक वर्ष की कठोर कैद व 50 रुपये जुर्माना की सज़ा सुनाई गई। 

सरदार भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह के करीबी थे अम्बा प्रसाद

सूफी अंबा प्रसाद ‘भारत माता सोसाइटी’ के प्रमुख सदस्य थे, जिनमें सरदार अजीत सिंह, लालचंद फलक, ईश्वरी प्रसाद और अमर नाथ पाराशर जैसे लोग भी शामिल थे।इतिहासकारों की मानें तो भारत माता सोसाइटी बनाने वाले सरदार भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह सूफी जी के करीबियों में से एक थे।आगे चलकर भगत सिंह ने सूफी जी पर एक लेख भी लिखा, जिसमें उन्होंने उनकी वीरता और साहस के बारे में गोरी सरकार को बताया था। सन् 1897 में सूफी जी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक ओजस्वी लेख लिखा तो उन्हें जेल में डाल दिया गया। इसके बाद तो अम्बा प्रसाद का जेल में आना-जाना लगा रहा। आजादी के इस महासमर में जब ब्रिटिश सरकार ने अपने निरंकुश शासन से सूफी जी को परेशान कर दिया तो वह सरकार के जुल्मों-सितम से बचने के लिए अजीत सिंह के साथ नेपाल चले गए लेकिन वहां भी उन पर ज़ुल्म ढाए गए। ब्रिटिश सरकार सूफी जी को नेपाल से पंजाब ले आयी और फिर से प्रताड़ना देनी शुरू कर दी।

ईरान में बनी है हिंदुस्तानी देश भक्त आका सूफी की समाधि

स्वतंत्रता सेनानी लाला हरदयाल से बातचीत करने के बाद

सूफी अंबा प्रसाद ब्रिटिश शासन के खिलाफ बड़ा मोर्चा खोलने के उद्देश्य से ईरान चले गए और यहां से ‘आब हयात’ नाम से अखबार निकालने लगे। सूफी अंबा प्रसाद की लोकप्रियता बढ़ती ही गई लेकिन गोरों ने उनको यहां पर भी नहीं छोड़ा। अम्बा प्रसाद दुपट्टा चोरी से यहां रहने लगे परन्तु 1915 में ईरान पर ब्रिटिश सरकार का प्रभुत्व स्थापित होने पर सूफी अंबा प्रसाद का ब्रिटिश सरकार से बचना नामुमकिन था। ब्रिटिश सरकार ने उनका कोर्ट मार्शल करना चाहती थी लेकिन अम्बा प्रसाद ने स्वयं ही समाधि लगाकर अपने प्राण त्याग दिए। जब सूफी अंबा प्रसाद की अंतिम यात्रा निकाली गई तो ईरान के लोग उनकी शव यात्रा में रो-रो कर शामिल हुए थे। ईरान में जहां सूफी अंबा प्रसाद की समाधि बनी वहां पर लिखा है -“हिंदुस्तानी देश भक्त आका सूफी”। देशभक्तों की चिताओं पर बनी समाधि पर ईरान में आज भी मेले लगते हैं और उर्स भी मनाया जाता है।

(लेखक राजनीतिक, साहित्यिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखते हैं)

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