एक खामोश जनता शायद वफादार लगे, लेकिन एक सवाल पूछने वाली जनता ही देश को न्यायपूर्ण, आज़ाद और ज़िंदा रखती है।
ये वाक्य लोकतंत्र की एक अहम सच्चाई को ही उजागर करते है। सरकार की आलोचना करना और देश विरोधी होना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। इसे समझने के लिए हमें सरकार, राष्ट्र, देशभक्ति और असहमति जैसे मूलभूत विचारों को साफ़ तौर पर समझना होगा।
राष्ट्र और सरकार में फर्क
राष्ट्र का मतलब होता है- उस देश के लोग, उनकी संस्कृति, जमीन, साझा मूल्य और पहचान।
सरकार एक अस्थायी प्रशासनिक व्यवस्था होती है, जिसे जनता चुनती है ताकि वह देश का संचालन करे।
इसलिए, जब कोई सरकार से सवाल करता है, तो वह देश से विरोध नहीं कर रहा होता, बल्कि यह एक जिम्मेदार नागरिक का अधिकार और कर्तव्य होता है।
लोकतंत्र में जवाबदेही ज़रूरी होती है
लोकतंत्र में नागरिकों को यह हक़ होता है कि वे सरकार से सवाल करें, नीतियों पर चर्चा करें और गलतियों की ओर इशारा करें। यह व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है।
उदाहरण के लिए, अगर बाढ़ जैसी आपदा में सरकार राहत पहुंचाने में देरी करे, तो उसकी आलोचना करना देशद्रोह नहीं है, बल्कि जनता के हक़ के लिए सवाल उठाना है।
अगर कोई व्यक्ति प्रेस की आज़ादी में गिरावट पर चिंता जताता है, तो वह देश की गरिमा बचा रहा है, न कि उसका अपमान कर रहा है।
इतिहास से उदाहरण
महात्मा गांधी और ब्रिटिश सरकार की आलोचना
गांधी जी ने ब्रिटिश हुकूमत का विरोध किया, अन्यायपूर्ण कानूनों के खिलाफ असहयोग आंदोलन चलाया। क्या इसका मतलब था कि वे ब्रिटेन या भारत-विरोधी थे? नहीं। वे न्याय के पक्ष में थे और भारत के हित के लिए खड़े थे।
मार्टिन लूथर किंग जूनियर
उन्होंने अमेरिका में नस्लभेद के खिलाफ आवाज़ उठाई। उन्होंने कहा:
“मैं अमेरिका की आलोचना इसलिए करता हूं क्योंकि मैं उससे प्रेम करता हूं।” इससे यह बात साफ़ हो जाती है कि आलोचना देशद्रोह नहीं, बल्कि बदलाव की चाह होती है।
भारत के हालिया उदाहरण
अगर कोई व्यक्ति नई शिक्षा नीति या कृषि कानूनों की आलोचना करता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह भारत विरोधी है।
वह एक लोकतांत्रिक चर्चा का हिस्सा है।
जैसे, 2020-21 के किसान आंदोलन में लाखों किसानों, छात्रों और बुद्धिजीवियों ने सवाल उठाए। उनका मकसद देश को बांटना नहीं, बल्कि नीतियों को न्यायसंगत बनाना था।
असहमति देशभक्ति है, देशद्रोह नहीं
जब कोई सरकार को ही राष्ट्र मान लेता है और उसकी हर बात को चुपचाप मानने को देशभक्ति समझता है, तो वह
लोकतंत्र को कमजोर करता है।
इससे अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला होता है।
इससे नागरिक अधिकार दबाए जाते हैं।
ईमानदार शासन कमजोर होता है।
सच्चा देशभक्त वही होता है, जो गलत होने पर सवाल उठाता है।
जैसे अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति थियोडोर रूज़वेल्ट ने कहा था:
“अगर यह कहा जाए कि राष्ट्रपति की कोई आलोचना नहीं होनी चाहिए, तो यह देश के साथ नैतिक गद्दारी है।”
यह बात हर देश पर लागू होती है।
“देशद्रोही” शब्द का गलत इस्तेमाल
आजकल कई बार सरकार से असहमत लोगों को “देशद्रोही” कह दिया जाता है, जिससे:
डर का माहौल बनता है,
लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर होती हैं।
सजग जनता को ऐसे गलत प्रयोगों का विरोध करना चाहिए और सवाल पूछने के अधिकार की रक्षा करनी चाहिए।
रचनात्मक आलोचना देश को मजबूत करती है
जब नागरिक सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार पर, कानून के गलत या भेदभावपूर्ण इस्तेमाल पर, मीडिया के सेंसरशिप पर, पर्यावरण की अनदेखी पर सवाल करते हैं, तो वे देश को नुकसान नहीं पहुंचा रहे होते, बल्कि उसकी आत्मा को बचा रहे होते हैं।
सरकार से सवाल करना देशद्रोह नहीं, बल्कि सच्ची देशभक्ति है।
सरकार देश की सेवा करती है, वह स्वयं देश नहीं होती।
अगर हम नेताओं को जवाबदेह ठहराते हैं, तो देश बेहतर होता है।
अगर हम सवाल करना बंद कर दें, तो लोकतंत्र की नींव हिल जाती है।
अपने देश से प्रेम करना सिर्फ नारे लगाने से नहीं होता, बल्कि उसके हित के लिए नेतृत्व से सवाल पूछने की हिम्मत रखने से होता है।
एक ख़ामोश जनता शायद वफादार लगे, लेकिन एक सवाल पूछने वाली जनता ही देश को न्यायपूर्ण, आज़ाद और ज़िंदा रखती है।
(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)