Tuesday, April 23, 2024

अब हिंदू-मुस्लिम के आधार पर होता अदालती न्याय

अहमदाबाद : 26 जुलाई 2008 को 70 मिनट में 21 जगह सीरियल बॉम्ब ब्लास्ट से अहमदाबाद ही नहीं पूरा देश दहल गया था। 13 साल 6 महीने के बाद अहमदाबाद सेशन कोर्ट के जज अंबालाल आर. पटेल ने 38 आरोपियों को मृत्यु दण्ड और 11 को अपराधी मानते हुए आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई है। देश के इतिहास में पहली बार इतने लोगों को एक साथ फांसी की सज़ा दी गई है। न्यायालय ने तमाम दोषियों को यूएपीए ( UAPA) की धारा 10, 16(1) (A)(B) और आईपीसी की धारा 302 के तहत फांसी और आजीवन कारावास की सजा सुनाई है।

न्यायिक प्रक्रिया में सरकार ने धर्म आधारित भेदभाव किया है ?

न्यायालय ने सभी आरोपियों को सज़ा सुनाने से पहले सुना, सभी ने कुछ न कुछ कहा। किसी ने ब्लास्ट में अपनी भूमिका से इंकार किया तो किसी ने सज़ा कम करने की मांग की, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने कुछ भी कहने से इंकार कर दिया।

मोहम्मद सैफ़ शेख ने कहा कि उन्हें न्याय की उम्मीद है। वहीं मोहम्मद अकबर चौधरी ने कहा कि “हिन्दुस्तान में हमारे लिए इन्साफ नहीं है। आपसे हमें कोई उम्मीद नहीं है।”

अकबर चौधरी का यह बयान हो सकता है कि हताशा में दिया गया बयान हो। लेकिन भारत की न्याय व्यवस्था पर कोई व्यक्ति न्यायाधीश के सामने ऐसा सवाल उठाए तो ऐसे आरोप को सभ्य समाज द्वारा गंभीरता से लिया जाना चाहिए। 2002 गोधराकांड से 2008 अहमदाबाद बम ब्लास्ट पर आए निचली अदालतों के फैसले और सरकारी एजेंसियों द्वारा न्याय की कोशिश में अंतर दिखता है। जहां आरोपी मुसलमान हैं वहां पर सरकार द्वारा पूरी गंभीरता से फांसी की सज़ा दिलवाने के लिए न्यायालय में एड़ी-छोटी का जोर लगाया गया, वहीँ दूसरी तरफ जहां आरोपी हिन्दू थे वहां सरकार ने आरोपियों के साथ खुलकर हमदर्दी दिखाई।

नरोड़ा पाटिया हत्याकांड में सरकार ने अपराधियों को उच्च न्यायालय में बचाने का प्रयत्न किया

2002 नारोड़ा पाटिया हत्याकांड में 97 मुस्लिम मारे गए थे। जिसमें 36 महिलाएं और 35 बच्चे शामिल थे। इस केस में गुजरात सरकार में मंत्री रही माया कोडनानी , जयदीप पटेल , बाबू बजरंगी सहित वीएचपी , बीजेपी , बजरंग दल के 61 लोगों पर नरोड़ा पाटिया हत्या कांड का मुकदमा चलाया गया था। 29 अभियुक्तों को शक के बिना  पर निर्दोष छोड़ दिया गया था, जबकि 32 को कोर्ट ने दोषी माना था। विशेष अदालत की जज ज्योत्स्ना याग्निक ने माया कोडनानी को 28 वर्ष और बाबू बजरंगी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। 22 को कम से कम 14 वर्ष और 7 को 21 वर्ष की सज़ा सुनाई गई थी। नरोड़ा पाटिया केस में गुजरात सरकार ने रिहा कर दिए गए आरोपियों के खिलाफ हाई कोर्ट में गई थी। लेकिन निचली अदालत में दोषी ठहराए गए किसी भी अपराधी के लिए फांसी की सज़ा की अपील नहीं की गई थी। हाई कोर्ट ने निचली अदालत में दोषी ठहराए गए 32 आरोपियों में से 18 को निर्दोष बरी कर दिया था। निर्दोष बरी होने वालों में माया कोडनानी भी शामिल हैं। बाबू बजरंगी के कारावास को हाई कोर्ट ने जारी रखा। हाई कोर्ट ने 3 की सजा कम करके 10 वर्ष कर दी थी। 9 को 21 वर्ष तक की सज़ा दी थी।

निचली अदालत में नरोड़ा पाटिया केस में पीड़ितों की पैरवी करने वाले वकील गोविंद परमार ने जनचौक को बताया, “विशेष अदालत की जज ज्योत्स्ना याग्निक ने नरोड़ा पाटिया नरसंहार को “Rare of Rarest” माना था। फैसले में याग्निक ने लिखा था कि 130 से अधिक देश फांसी की सज़ा का विरोध करते हैं। मैं भी फांसी की सजा के खिलाफ हूं। निचली अदालत के फैसले से पीड़ित पक्ष संतुष्ट भी था। लेकिन हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को ही बदल दिया। अब नरोड़ा पाटिया केस सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है।”

गुलबर्गा सोसाइटी हत्याकांड में आए निचली अदालत के फैसले से पीड़ितों को निराशा हुई थी

इसी प्रकार गुलबर्गा सोसायटी हत्याकांड में 24 आरोपियों को अलग-अलग सजा गई थी। 11 को आजीवन कारावास, 1 को 10 वर्ष कारावास और 12 को 7 वर्ष कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। लेकिन निचली अदालत ने किसी को फांसी की सज़ा नहीं सुनाई गई। गुलबर्गा सोसायटी हत्याकांड में कांग्रेस के सांसद रहे एहसान जाफरी सहित 35 लोगों को ज़िंदा जला दिया गया था। इस हत्याकांड में 69 लोग मारे गए थे। हत्याकांड के बाद 31 लोग नहीं मिले थे। जिन्हें गुम घोषित कर दिया गया। इसमें एक बच्चे के गुमशुदा होने पर मशहूर फिल्म “परजानिया” भी देश ही नहीं सारी दुनिया में बेहद चर्चित रही थी। निचली अदालत से किसी को फांसी न मिलने से पीड़ितों को निराशा हुई थी।

नरोड़ा गाम के फैसले के इंतजार में नरोड़ा के मुसलमान

2002 नरोड़ा गाम हत्याकांड में निचली अदालत का फैसला आना अभी भी बाकी है।

2002 दंगे में नरोड़ा गांव में हुए नरसंहार को अपनी आंखों से देखने वाले मोहम्मद शरीफ मलेक 2008 बम धमाके के फैसले के बाद लिखते हैं।

“छह साल बाद 2008 में अहमदाबाद में हुए सीरियल बम ब्लास्ट केस मे कोर्ट ने 38 दोषियों को फांसी की सजा सुनाई है। 2002 में नरोड़ पाटिया हत्याकांड में दोषियों को इसलिए कोर्ट ने फांसी की सजा नही सुनाई की 130 देश फाँसी की सजा के पक्ष में नही हैं। 2002 के नरोडा गांव के केस मे आज 20 साल बाद भी कोई फैसला नही आया है। केस कोर्ट में पेंडिंग चल रहा है, और पीड़ित परिवार आज भी न्याय की उम्मीद लगाए बेठे है। न्याय सबके लिए समान होना चाहिए, न्याय के दोहरे चेहरे मौलिक अधिकारों के लिए खतरा हैं।”

साबरमती ट्रेन हत्याकांड और अक्षरधाम केस में निचली अदालत से फांसी की सज़ा दी गई थी

2002 में साबरमती ट्रेन को गोधरा स्टेशन पर जलाए जाने की घटना में विशेष अदालत ने फरवरी 2011 में फैसला सुनाया था। गोधरा कांड में निचली अदालत ने 11 को फांसी  और 20 आजीवन कैद की सज़ा सुनाई थी। लेकिन अक्टूबर 2017 में गुजरात हाई कोर्ट ने 11 की फांसी को बदलते हुए सभी को आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया था।

अक्षरधाम हमले के सभी आरोपी मुस्लिम थे। अक्षरधाम केस में भी निचली अदालत और हाई कोर्ट ने आरोपियों को  फांसी की सज़ा दी थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने निर्दोष ठहराते  हुए फांसी के आरोपी को बरी कर दिया था।

मालेगांव की मुख्य आरोपी सांसद बन गईं

मालेगांव बम धमाके की आरोपी को बीजेपी ने संसद पहुंचा दिया। 2008 में महाराष्ट्र के मालेगांव और गुजरात के मोडासा में एक ही दिन ब्लास्ट हुए थे। इन दोनों धमाकों में हिन्दू समूह की भूमिका सामने आई थी। मोडासा में हिन्दू ग्रुप का नाम आने से पुलिस ने सरकारी दबाव के चलते जांच मे अधिक गंभीरता नहीं दिखाई। उस समय शंकर सिंह वाघेला ने कहा था “गुजरात सरकार असली आरोपी को बचाने का प्रयत्न कर रही है।” सरकार द्वारा मालेगांव ब्लास्ट मामले में न्याय हो ऐसी रुचि नहीं दिखती है। आतंकवाद जैसे गंभीर मामलों में भी सरकारें हिन्दू-मुस्लिम कर देश को कमज़ोर कर रही है

सुप्रीम कोर्ट के वकील जेड के फैजान कहते हैं। “अहमदाबाद बम ब्लास्ट केस में 38 लोगों को फांसी की सजा देना एक आक्रामक फैसला है। मेरे अनुसार यह केस ‘Rarest of Rare’ की कैटेगरी में नहीं आता है। निश्चित ही यह फैसला उच्च न्यायालय में पलटा जा सकता है।”

न्यायालय का काम केवल न्याय देना है। इस प्रक्रिया में पुलिस और सरकार की बड़ी भूमिका होती है। सरकारों को चाहिए कि वे न्याय की लड़ाई में जाति और धर्म को देखे बगैर न्याय की कोशिश करे। जाति-धर्म की राजनीति से देश को नुक़सान होता है। हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति को न्यायालय से दूर रखा जाना चाहिए।

(अहमदाबाद से जनचौक संवाददाता कलीम सिद्दीक़ी की रिपोर्ट।)

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