Thursday, April 25, 2024

इतिहास की बेईमानी का शिकार हो गया अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आदिवासी-दलित नायकों का चुहाड़ विद्रोह

अंग्रेजों के विरुद्ध चुहाड़ विद्रोह के नायक रघुनाथ महतो का जन्म पुराने समय के बंगाल के जंगल महल (छोटानागपुर) अंतर्गत मानभूम जिले के नीमडीह प्रखंड के एक छोटे से गांव घुंटियाडीह में हुआ था। उनकी पैदाइशी की तारीख 21 मार्च 1738 है। अपने गुरिल्ला युद्ध नीति से अंग्रेजों पर हमला करने वाले इस विद्रोह को उस वक्त चुहाड़ विद्रोह का नाम दिया गया था। 

दरअसल चुहाड़ का शाब्दिक अर्थ उत्पाती होता है। जब 1765 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा छोटानागपुर के जंगलमहल जिले में मालगुजारी वसूली शुरू की गयी, तब अंग्रेजों के इस षड्यंत्रकारी तरीके से जल, जंगल, जमीन हड़पने की गतिविधियों का रघुनाथ महतो के नेतृत्व में कुड़मी समाज के लोगों द्वारा सबसे पहले 1769 ई. में  विरोध किया गया। यहीं से ब्रिटिश शासकों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका गया। जब अंग्रेजों ने अपने पिट्ठू जमींदारों, महाजनों से पूछा कि ये लोग कौन हैं? तब उन्होंने बड़े घृणा और अवमानना की दृष्टि से विद्रोहियों को ‘चुहाड़’ बताया जो उस वक्त बंगाली में एक गाली की तरह संबोधित किया जाता था। उसके बाद उस विद्रोह का नाम ‘कुड़मी विद्रोह’ की जगह ‘चुहाड़ विद्रोह’ पड़ गया।

बताना जरूरी होगा कि रघुनाथ महतो की संगठन शक्ति से वर्तमान के मेदनीपुर, पुरूलिया, धनबाद, हजारीबाग, पूर्वी सिंहभूम, सरायकेला, चक्रधरपुर, चाईबासा, सिल्ली व ओडिशा के कुछ हिस्सों में अंग्रेज शासक भयभीत थे।

 1769 में फाल्गुन पूर्णिमा के दिन रघुनाथ महतो ने नीमडीह गांव के एक मैदान में सभा की। जिसे बाद में रघुनाथपुर का नाम दिया गया। रघुनाथ महतो के समर्थक 1773 तक सभी इलाके में फैल चुके थे। चुहाड़ आंदोलन का फैलाव नीमडीह, पातकुम, बड़ाभूम, धालभूम, मेदनीपुर, किंचुग परगना, (वर्तमान सरायकेला खरसांवा) राजनगर व गम्हरिया तक हो गया। इस विद्रोह ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था।

चुहाड़ विद्रोह सर्वप्रथम वर्ष 1760 में मेदनीपुर (बंगाल) अंचल में शुरू हुआ। यह आंदोलन कोई जाति विशेष पर केंद्रित नहीं था। इसमें मांझी, कुड़मी, संथाल, भूमिज, मुंडा, भुंईया आदि सभी समुदाय के लोग शामिल थे। ब्रिटिश हुकूमत क्षेत्र में शासन चलाने के साथ जल, जंगल, जमीन और खनिज संपदा लूटना चाहती थी। उनके द्वारा बनाए जा रहे रेल व सड़क मार्ग सीधे कोलकाता बंदरगाह तक पहुंचते थे। जहां से जहाज द्वारा यहां की संपदा इंग्लैंड ले कर रवाना होते थे। उनके इस मंसूबे को विफल करने के लिए चुहाड़ विद्रोह शुरू हुआ। रघुनाथ महतो के नेतृत्व में 1769 में यह आंदोलन आग की तरह फैल रहा था।

उनके लड़ाकू दस्ते में डोमन भूमिज, शंकर मांझी, झगड़ू मांझी, पुकलू मांझी, हलकू मांझी, बुली महतो आदि सेनापति थे। रघुनाथ महतो की सेना में टांगी, फरसा, तीर-धनुष, तलवार, भाला आदि हथियार से लैस पांच हजार से अधिक आदिवासी शामिल थे। दस साल तक इन विद्रोहियों ने ब्रिटिश सरकार को चैन से सोने नहीं दिया था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने रघुनाथ महतो को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए बड़ा ईनाम रखा था। 

5 अप्रैल 1778 की रात चुहाड़ विद्रोह के नायक रघुनाथ महतो और उनके सहयोगियों के लिए दुर्भाग्य की रात साबित हुई। सिल्ली प्रखंड के लोटा पहाड़ के किनारे अंग्रेजों के रामगढ़ छावनी से शस्त्र लूटने की योजना के लिए बैठक चल रही थी। गुप्त सूचना पर अंग्रेजी फौज ने पहाड़ को घेर लिया और विद्रोहियों पर जमकर गोलीबारी की। रघुनाथ महतो और उनके कई साथी शहीद हो गए।

यहां से सैकड़ों विद्रोहियों को गिरफ्तार कर लिया गया। कई लोग मारे गये। आज भी आंदोलन के कई साक्ष्य रघुनाथपुर, घुटियाडीह, सिल्ली व लोटा गांव में मौजूद हैं।

कहना न होगा कि जब भी झारखंड के नायकों की अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ बगावत की चर्चा होती है, तो इस सूची में आजादी की लड़ाई में 1769 का रघुनाथ महतो के नेतृत्व में ‘चुहाड़ विद्रोह’, 1771 में तिलका मांझी का ‘हूल’, 1820-21 का पोटो हो के नेतृत्व में ‘हो विद्रोह’, 1831-32 में बुधु भगत, जोआ भगत और मदारा महतो के नेतृत्व में ‘कोल विद्रोह’, 1855 में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में ‘संताल विद्रोह’ और 1895 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए ‘उलगुलान’ ने अंग्रजों को ‘नाको चने चबवा’ दिये थे। 

चूंकि 5 अप्रैल को चुहाड़ विद्रोह के नायक रघुनाथ महतो का शहादत दिवस है, ऐसे में उन्हें याद करना प्रासंगिक हो जाता है।

बता दें कि 1764 में बक्सर युद्ध की जीत के बाद अंग्रेजों का मनोबल बढ़ गया था। अंग्रेज कारीगरों के साथ किसानों को भी लूटने लगे। 12 अगस्त, 1765 को शाह आलम द्वितीय से अंग्रेजों को बंगाल, बिहार, उड़ीसा व छोटानागपुर की दीवानी मिल गयी। उसके बाद अंग्रेजों ने किसानों से लगान वसूलना शुरू कर दिया।

1766 में अंग्रेजों ने राजस्व के लिए जमींदारों पर दबाव बनाया, लेकिन कुछ जमींदारों ने उनकी अधीनता स्वीकार नहीं की, तो कुछ अपनी शर्तों पर उनसे जा मिले। नतीजा यह हुआ कि किसान अंग्रेजी जुल्म के शिकार होने लगे। स्थिति अनियंत्रित होने लगी, तब चुहाड़ आंदोलन की स्थिति बनी।

चुहाड़ आंदोलन की आक्रामकता को देखते हुए अंग्रेजों ने छोटानागपुर को पटना से हटा कर बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन कर दिया। 1774 में विद्रोहियों ने किंचुग परगना के मुख्यालय में पुलिस फोर्स को घेर कर मार डाला।

इस घटना के बाद अंग्रेजों ने किंचुग परगना पर अधिकार करने का विचार छोड़ दिया। 10 अप्रैल 1774 को सिडनी स्मिथ ने बंगाल के रेजीमेंट को विद्रोहियों के खिलाफ फौजी कार्रवाई करने का आदेश दे दिया। बता दें कि चुआड़ विद्रोह का प्रथम इतिहास जेसी प्राइस ने “दि चुआड़ रेबेलियन ऑफ़ 1799” के नाम से लिखा। जबकि परवर्ती इतिहासकारों में ए गुहा और उनके हवाले से एडवर्ड सईद का नाम आता है। 

यह बताना लजिमी होगा कि वर्तमान सरायकेला खरसावां जिले का चांडिल इलाके के अंतर्गत नीमडीह प्रखंड का रघुनाथ महतो का गाव घुंटियाडीह आज भी है, लेकिन रघुनाथ महतो के वंशज का कोई पता नहीं है। शायद रघुनाथ महतो पर जितना काम होना चाहिए था, नहीं हो पाया है। मतलब अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आदिवासी-दलित नायकों का चुहाड़ विद्रोह इतिहास की बेईमानी का शिकार रहा है।

(विशद कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और आजकल झारखंड में रहते हैं।)  

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