Thursday, April 25, 2024

देश की 44.4 प्रतिशत ग्रामीण आबादी ओबीसी: एनएसओ

ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों और उनकी स्थिति के आकलन को लेकर सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO)द्वारा किए गए सर्वेक्षण के जरिए इस महीने की शुरुआत में जारी किए आंकड़ों से पता चलता है कि अनुमानित 17.24 करोड़ ग्रामीण परिवारों में 44.4 फीसद ओबीसी, 21.6% अनुसूचित जाति (एससी), 12.3% अनुसूचित जनजाति (एसटी) और 21.7 फीसदी अन्य समूहों से हैं।

वहीं कुल ग्रामीण परिवारों में से 9.3 करोड़ या 54% कृषि परिवार हैं। देश के 17.24 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से 44.4 प्रतिशत अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से हैं। ये आबादी सात बड़े राज्यों तमिलनाडु, बिहार, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, केरल, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ से हैं।

राज्यवार बात करें तो ग्रामीण क्षेत्र में ओबीसी परिवारों का उच्चतम अनुपात तमिलनाडु (67.7%) में है और सबसे कम नगालैंड (0.2%) में है। तमिलनाडु के अलावा बाकी के छह राज्यों में स्थिति कुछ इस प्रकार है- बिहार (58.1%), तेलंगाना (57.4%), उत्तर प्रदेश (56.3%), केरल (55.2%), कर्नाटक (51.6%), छत्तीसगढ़ (51.4%)। ओबीसी की इस आबादी के साथ इन राज्यों की राजनीतिक भागीदारी भी काफी दमदार है। क्योंकि 543 सदस्यीय लोकसभा में यहां से 235 सदस्य चुने जाते हैं।

इसके अलावा, 44.4% के राष्ट्रीय आंकड़े की तुलना में चार राज्यों –राजस्थान (46.8%), आंध्र प्रदेश (45.8%), गुजरात (45.4%) और सिक्किम (45%) में ग्रामीण ओबीसी परिवारों की हिस्सेदारी अधिक है। कुल मिलाकर, राष्ट्रीय औसत की तुलना में अन्य 17 राज्यों – मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र, मणिपुर, ओडिशा, हरियाणा, असम, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नगालैंड ग्रामीण ओबीसी परिवारों की संख्या कम है।

सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि अनुमानित 9.3 करोड़ कृषि परिवारों में से 45.8% ओबीसी हैं। इसके अलावा 15.9% अनुसूचित जाति, 14.2% अनुसूचित जनजाति और 24.1% अन्य समूहों से हैं।

इसके अलावा सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO)के सर्वेक्षण में प्रति किसान परिवार की औसत मासिक आय का जो डेटा भी जारी किया है। आंकड़ों के मुताबिक कृषि वर्ष 2018-19 के दौरान एक किसान परिवार की औसत मासिक आय 10,218 रुपये थी, जबकि ओबीसी कृषि परिवारों (9,977 रुपये), अनुसूचित जाति परिवारों (8,142 रुपये), एसटी परिवारों (8,979 रुपये) के हिसाब से कम थी। हालांकि, ‘अन्य सामाजिक समूहों’के कृषि परिवारों ने औसत मासिक आय 12,806 रुपये दर्ज़ की। राज्यों के हिसाब से ओबीसी श्रेणी में प्रति कृषि परिवार की औसत मासिक आय कृषि वर्ष 2018-19 के दौरान 5,009 रुपये और 22,384 रुपये के बीच थी।

मोदी सरकार ने कहा- नहीं करायेंगे जातीय जनगणना

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने 23 सितंबर, 2021 को सुप्रीम कोर्ट में एक हलफ़नामे देकर स्पष्ट कर दिया है कि केंद्र सरकार जातीय जनगणना नहीं करवायेगी। महाराष्ट्र राज्य की याचिका का जवाब देते हुए केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि आज़ादी से पहले भी जब जातियों की गिनती हुई तो डेटा की संपूर्णता और सत्यता को लेकर सवाल उठते रहे।
केंद्र ने कहा कि 2011 में सामाजिक-आर्थिक और जातीय जनगणना के डेटा में तमाम तरह की तकनीकी खामियां हैं और ये किसी भी तरह से इस्तेमाल के लिए अनुपयोगी हैं।

सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्रालय ने अदालत में अपने हलफ़नामे में कहा है, ”पहले भी इस मुद्दे को देखा गया था। उस दौरान भी यही लगा कि पिछड़े वर्गों की जातीय गिनती प्रशासनिक रूप से बहुत जटिल और कठिन है। इसके डेटा की संपूर्णता और सत्यता में काफ़ी दिक़्क़तें हैं। 2011 के सोशियो-इकनॉमिक कास्ट सेंसस (एसईसीसी) की नाकामी इसका सबूत है। अपनी खामियों के कारण यह हमारे लिए अनुपयोगी है और हम किसी भी काम में इसका इस्तेमाल नहीं कर सकते। “
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हलफनामा में कहा है कि जातिवार जनगणना की नीति 1951 में छोड़ दी गई थी। तब कहा गया था कि आधिकारिक नीति जातियों को प्रोत्साहित करना नहीं है। 2021 की जनगणना में जातियों के डेटा संग्रह जुटाने पर केंद्र ने कहा कि इसके लिए जनगणना कोई आदर्श ज़रिया नहीं है। जातियों की गिनती से जनगणना की बुनियादी समग्रता भी गंभीर ख़तरे में पड़ सकती है। इससे आबादी की मौलिक गिनती भी प्रभावित होगी।

इससे पहले केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने 20 जुलाई 2021 को लोकसभा में एक प्रश्न के
जवाब में कहा था कि फ़िलहाल केंद्र सरकार ने अनुसूचित जाति और जनजाति के अलावा किसी और जाति की गिनती का कोई आदेश नहीं दिया है। पिछली बार की तरह ही इस बार भी एससी और एसटी को ही जनगणना में शामिल किया गया है।

साल 1941, और 2011 में जातिगत जनगणना हुयी पर प्रकाशित नहीं हुयी

बता दें कि जाति संबंधी सूचना का समावेश ब्रिटिश राज के दौरान हुये साल 1931 की जनगणना में किया गया था। वहीं ब्रिटिश काल में ही साल 1941 की जनगणना में जाति आधारित डेटा जुटाया तो गया था, लेकिन प्रकाशित नहीं किया गया था। इसके बाद साल 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का डेटा दिया गया, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं।

डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-2 ने भी 2011 में जाति जनगणना के आदेश दिए थे, लेकिन कभी भी उसे सार्वजनिक नहीं किया।
सामान्य जनगणना के लिए सोशियो-इकोनॉमिक कास्ट सेंसस 2011 (SECC)किया गया था, लेकिन उसकी सोशियो इकोनॉमिक तारीख 2015 में जारी की गई थी। हालांकि, इस दौरान भी जाति जनगणना को सार्वजनिक नहीं किया गया था। यूपीए और एनडीए दोनों ने अलग-अलग जन कल्याण योजनाओं के तहत लाभार्थियों की पहचान के लिए SECCडेटा का इस्तेमाल किया लेकिन जातियों से जुड़ा डेटा सार्वजनिक करने से बचते रहे।

जाति आधारित जनगणना के लिये सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने मोदी से मुलाकात की

23 अगस्त, 2021 को प्रधानमंत्री मोदी से 11 दलों के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने मुलाकात की थी। जदयू नेता व बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले प्रतिनिधिमंडल में बिहार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव, जद (यू) नेता विजय कुमार चौधरी, जो शिक्षा और संसदीय मामलों के मंत्री भी थे। पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) के अध्यक्ष जीतन राम मांझी, कांग्रेस विधायक दल के नेता अजीत शर्मा और भाजपा नेता और बिहार के मंत्री जनक राम, भाकपा-माले विधायक दल के नेता महबूब आलम, एआईएमआईएम के अख्तरुल इमाम, वीआईपी के मुकेश सहनी, भाकपा के सूर्यकांत पासवान और माकपा के अजय कुमार भी इसमें शामिल हुये थे ।

जातीय जनगणना से भाजपा की नफ़रत विभाजन की राजनीति फेल हो जायेगा

जातीय जनगणना को लेकर भाजपा की सोच यही है कि यदि जाति जनगणना के नतीजे सामने आते हैं तो
आरक्षण और प्रतिनिधित्व की मांग ज़ोर पकड़ेगी। जिससे भाजपा आरएसएस के विभाजनवादी सांप्रदायिक राजनीति को नुकसान होगा। जबकि
10 साल पहले जब भाजपा विपक्ष में थी, तब ख़ुद इसकी माँग करते थी। भाजपा नेता, गोपीनाथ मुंडे ने संसद में 2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में संसद में कहा था, – “अगर इस बार भी जनगणना में हम ओबीसी की जनगणना नहीं करेंगे, तो ओबीसी को सामाजिक न्याय देने के लिए और 10 साल लग जाएँगे। हम उन पर अन्याय करेंगे।”

जबकि जातिगत संख्या का सही अनुमान लगने पर पिछड़ी जातियों के विकास को लेकर सही दिशा में सटीक योजनाएं बन सकेंगी।
(जनचौक के विशेष संवाददाता सुशील मानव की रिपोर्ट।)

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