कांग्रेस नेता राहुल गांधी पिछले कुछ सालों से समता, सेकुलरिज्म और सामाजिक न्याय जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक मूल्यों पर लगातार बोलते और कुछ न कुछ करते रहे हैं। लेकिन कांग्रेस के अतीत, खासकर शासन में रहने के दौरान उसके कामकाज की शैली, समता और सामाजिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्यों के प्रति उसकी आधी-अधूरी और दिखावटी प्रतिबद्धता के चलते निजी तौर पर मैं बहुत उत्साहित नहीं रहा।
निकट अतीत में यूपीए-1 के दौरान कांग्रेस ने अपने गठबंधन के साथ शासकीय स्तर पर कुछ बेहतर काम किया था। लेकिन यूपीए-2 का दौर बहुत बुरा रहा। वामपंथी गठबंधन से बाहर थे और समता व सामाजिक न्याय समर्थक क्षेत्रीय दलों के बीच से शासन तंत्र में समझदार और सुसंगत नेतृत्व बिल्कुल नहीं था।
ऐसे में शासन तंत्र पर प्रणब मुखर्जी और पी चिदम्बरम जैसे लोगों का वर्चस्व कायम रहा। उस वक्त अगर राहुल गांधी का आज जैसा ‘नव-जागृत राजनीतिक व्यक्तित्व’ उभरकर आया होता तो 2014 के चुनाव में कांग्रेस और यूपीए का इतना बुरा हाल नहीं होता कि भाजपा नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सरकार बना लेती! 2010 से 2013 के बीच कांग्रेस और यूपीए ने एक से बढ़कर एक ब्लंडर किये और अपने राजनीतिक पतन का रास्ता तैयार किया। उस पतन के लिए तत्कालीन प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह को जिम्मेदार ठहराया उनके साथ अन्याय होगा। क्योंकि बुनियादी तौर पर वह राजनीतिक व्यक्तित्व नहीं थे।
यूपीए-2 में शासन तंत्र का दिशा निर्देश करने वालों में सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों के अलावा प्रणव मुखर्जी, पी चिदम्बरम, ए के एंटोनी, गुलाम नबी आजाद, सलमान खुर्शीद, कमलनाथ, मुरलीधर देवड़ा, मनीष तिवारी, एस एम कृष्णा, अजय माकन, मुकुल वासनिक आदि प्रमुख थे। पर्दे के पीछे अहमद पटेल यूपीए के सबसे प्रमुख महाबली थे जबकि 2012 में राष्ट्रपति बनने से पहले प्रणव मुखर्जी सबसे ज्यादा प्रभावी मंत्री थे।
यूपीए-1 में ओबीसी के लिए शिक्षा क्षेत्र में आरक्षण का विधेयक लाकर समाज के बड़े हिस्से में कांग्रेस के लिए अपार गुडविल बनाने वाले वरिष्ठ मंत्री अर्जुन सिंह को 2009 में ही मनमोहन कैबिनेट से बाहर किया जा चुका था। अगर राहुल गांधी उसी दौरान अपने ‘मौजूदा राजनीतिक अवतार’ में कांग्रेस की बागडोर संभालने आ गये होते तो भारतीय राजनीति आज के दुखद स्तर तक नहीं पहुंचती! पर अज्ञात कारणों से राहुल गांधी तब जितिन प्रसाद, अजय माकन, आरपीएन सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे कांग्रेसी नेताओं के साथ संसद और पार्टी की बैठकों में समय-समय पर दिखते रहते थे। इन नेताओं में माकन को छोड़कर अब सभी भाजपा में जा चुके हैं।
तब से अब तक दिल्ली की यमुना में बहुत सारा पानी बह चुका है। कांग्रेस अपनी गलतियों, खासतौर पर दलित और पिछड़े वर्गों की बुरी तरह अनदेखी के चलते भाजपा से राजनीतिक जंग में पिछड़ती गई। वह चाहती तो नयी पीढ़ी से कांग्रेस विचारधारा और संवैधानिक मूल्यों से प्रतिबद्ध और जमीनी असलियत को समझने वाले नेताओं को पार्टी में आगे कर सकती थी। पर उसने ऐसा नहीं किया। नतीजतन, उसके पास नयी पीढ़ी से अर्जुन सिंह, पी शिवशंकर और चंद्रजीत यादव सरीखे नेता नहीं आये, जो कांग्रेस में सामाजिक न्याय की आवाज बनते।
वर्षों बाद स्वयं राहुल गांधी ज्यादा बुलंदी और मुखरता के साथ समता, सेकुलरिज्म और सामाजिक न्याय के नये अग्रदूत बनकर कांग्रेस में उभरे हैं। 2016-17 से ही वह सामाजिक न्याय के मुद्दों पर जोर देने लगे थे। लेकिन रायपुर का कांग्रेस अधिवेशन टर्निंग प्वाइंट बना, जब फरवरी 2023 में राहुल गांधी के दिशा-निर्देश पर पार्टी ने संगठन और समाज में एफर्मेटिव एक्शन के लिए कई महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि समता और सामाजिक न्याय के मामले में कांग्रेस नेतृत्व ने अतीत में अनेक बड़े ब्लंडर, चालबाजियां और बेवकूफियां कीं। पर हाल के कुछ वर्षों में राहुल ने जिस पुरजोर ढंग से समता और सामाजिक न्याय के मूल्यों के प्रति अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता दिखाई है; वह सिर्फ चुनावी कवायद या जुमलेबाजी नहीं लगती; उसमें मुझे जेनुइननेस दिखती है।
शुरू में मुझे कुछ संदेह हो रहा था कि राहुल जो कुछ कह रहे हैं, वह उनका जेनुइन सरोकार बनकर उभरा है या सिर्फ वंचितों को लुभाने के लिए वह ये सब बोल रहे हैं! पर अब मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि सचमुच राहुल के विचारों और सरोकारों में बदलाव आया है। पर उनके पास अभी भी समता और सामाजिक न्याय के मूल्यों से प्रतिबद्ध होकर काम करने वालों की बड़ी टीम नहीं है। कांग्रेस के अंत:पुर में अब भी ‘पुराने कांग्रेसी विचार’ के लोगों का जमघट है। पर ये लोग भी कम्युनल या क्रिमिनल नहीं; अपने-अपने निहित स्वार्थों के साथ काम करने वाले राजनीतिक प्रकृति के लोग ही हैं।
राहुल के सामने संगठन के स्तर पर निश्चय ही संकट है। पुराने लोगों को साथ रखते हुए सबाल्टर्न समूहों से प्रगतिशील सामाजिक-न्यायवादी विचार के समर्थक और जेनुइन लोगों को कांग्रेस के अंदरुनी ताने-बाने में कैसे महत्वपूर्ण बनाया जाए; यह सबसे बड़ी चुनौती है। राहुल इस दिशा में अभी तक कोई बड़ी कामयाबी नहीं हासिल कर सके हैं। पर उनके नये विचारों को लेकर कांग्रेस संगठन में सकारात्मक सोच का उभार जरूर नजर आ रहा है। अभी वह शब्दों में ज्यादा दिख रहा है, जमीन पर कम। लेकिन राहुल प्रयास करते नजर आ रहे हैं।
इस स्थिति और प्रक्रिया का जैसे-जैसे सुदृढ़ीकरण होगा, सत्ता के वास्तविक संचालक संघ-भाजपा और कार्पोरेट गठबंधन की मुश्किलें बढ़ती जाएंगी!
(उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)