कुचले हुए देवता और जीवन का विरोधाभास

आज सुबह जब मैं सैर कर रहा था, तब मैंने देखा कि एक आदमी गुलेलनुमा अस्त्र से आम के बाग से बंदरों को खदेड़ रहा था। उस आदमी ने अपना नाम रामपाल बताया। इस काम के लिए उन्हें सहारनपुर से देहरादून लाया गया था। उन्होंने बताया कि इस काम को करने के लिए उन्हें 14000 रुपये महीने मिलता हैI उन्हें 24 घंटे घर से बाहर रहना होता है। उनके रहने और खाने की व्यवस्था ठेकेदार ने कर रखी है।

उन्हें बंदरों को भगाते देख मेरे जेहन में एक ख्याल उभरा। ख्याल यह कि, हिंदू समुदाय के लोग बंदर को हनुमान का रूप मानते हैं। लेकिन वही लोग एक अस्त्र की सहायता से बंदरों पर हमला करके उन्हें भगा रहे हैं। अगर बंदर हनुमान का रूप है तो इसका अर्थ यह हुआ कि हिंदू, हनुमान के रूप पर अस्त्र से हमला कर रहे हैं।

यह जीवन का विरोधाभास हैं। अगर भगवान हनुमान के स्वरूप और भोजन तथा कमाई में से किसी एक को चुनना हो तो अधिकतर लोग भोजन और कमाई को चुन लेंगे और हनुमान के स्वरूप को डराकर भगा देंगे। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि किसी भी सांस्कृतिक मान्यता से ज्यादा प्यारी जीवन की ज़रूरतें और जीवन होता है। बंदरों के द्वारा फसल बर्बाद हो जाने से किसान की ज़रूरतें पूरी नहीं हो पाएंगी।

इस केस में हनुमान का स्वरूप जीवन की जरूरतों को हासिल करने के रास्ते में बाधक बन रहा है, इसलिए उसे खदेड़ा जा रहा है। और खदेड़ कौन रहा है, रामपाल। राम भक्त हनुमान के स्वरूप को खदेड़ने के लिए के काम पर रामपाल को लगाया हुआ है। इस प्रसंग से भी, हमें यह मान लेना चाहिए कि जीवन की सच्चाइयां बहुत ज्यादा हैं और हमारी जानकारियाँ बहुत कम।

रामपाल से मिलने के बाद हम कुछ आगे बढ़े तो सड़क पर किसी गाड़ी से दबकर मारे गये एक चूहे की कुचली हुई लाश पड़ी थी। चूहा जिसे गणेश जी की सवारी माना जाता है। तो मेरे सामने गणेश जी की सवारी की, गाड़ी के पहिए से कुचली हुई लाश पड़ी हुई थी।

सड़क पर पड़ी गणेश जी की सवारी की लाश भी सांस्कृतिक मान्यताओं और जीवन की जरूरतों के बीच पाए जाने वाले विरोधाभासों का एक और उदाहरण है। लोग अपनी गाड़ियों से आ-जा रहे हैं, गणेश जी की सवारी सड़क पार कर रही है और किसी गाड़ी के पहिए के नीचे आकर वह मारी जाती है। हो सकता है कि जिसकी गाड़ी से गणेश जी की सवारी मारी गयी, उस गाड़ी में हिंदू लोग सवार हों।

हो सकता है कि वे गणेश और गणेश की सवारी दोनों के प्रति श्रद्धा रखते हों। लेकिन जीवन की जरूरत को पूरा करने के क्रम में उन्हें ख्याल तक नहीं आया कि वे जिस जंगली रास्ते से गुजर रहे हैं, वहां गणेश जी की सवारियां भी रहती हैं। क्योंकि उन्हें कहीं पहुंचना है, इसलिए वे अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं को कारपेट के नीचे दबाकर, गणेश जी की सवारी को कुचलकर आगे बढ़ जाते हैं। उस वक्त उन्हें संस्कृति को बचाना कतई महत्वपूर्ण नहीं लगा होगा। उस वक्त तो उन्हें जीवन की जरूरतों को पूरा करना महत्वपूर्ण लगा होगा।

अनेक लोग हैं जो सुबह-सुबह पॉलिथीन में कुछ आटा भरकर चीटियों को खिलाते हैं। लेकिन जिस समय वे कुछ चीटियों को आटा डाल रहे होते हैं, ठीक उसी समय उनके जूते के नीचे कितनी ही चीटियां कुचल कर मर रही होती हैं। यानि वे चीटियों के प्रति संवेदनशील दिखना चाहते हैं, लेकिन ठीक उसी समय उनसे चीटियों की हत्या भी हो रही होती है। मुझे नहीं मालूम कि संस्कृति और जीवन के बीच विकसित होने वाले विरोधाभासों को कैसे समझा जाए। लेकिन हम सभी जीते इस तरह के विरोधाभासों के साथ ही हैं।

उस सड़क पर अनेक चीटियां कुचली गई थीं। उनमें से कई मेरे चलने से भी जरुर कुचली गयी होंगी। ऐसा नहीं है कि मेरे मन में दया या करुणा नहीं है। लेकिन जीवन की जरूरतों को पूरा करने की प्रक्रिया में, ज्यादातर समय और ज्यादातर मौकों पर जीवन की जरूरतें पूरी करने का मकसद, करुणा और दया के भाव पर हावी रहता है।

जब हम सैर करके वापस लौट रहे थे तो हमें रोड एक्सीडेंट में मारे गये एक सांप की लाश दिखाई दी। सांप जिसे नाग पंचमी के दिन दूध पिलाने का चलन है। वास्तव में यह चलन एक अभिनय है। अभिनय इसलिए, क्योंकि सांप दूध नहीं पीते। उनके शरीर में दूध को पचाने के लिए आवश्यक एंजाइम्स नहीं होते।

तो सांप, जिसकी पूजा होती है। जिसे भगवान शिव के गले की शोभा कहा जाता है। वह सांप, रोड एक्सीडेंट में मरा पड़ा है। हो सकता है कि जिस व्यक्ति की गाड़ी से कुचलकर वह सांप मारा गया हो, वह व्यक्ति रोज शिवलिंग की पूजा करता हो। लेकिन किसी काम पर पहुंचने की धुन में उस व्यक्ति को एक पल के लिए भी ख्याल न आया हो, कि उसकी गाड़ी के नीचे सांप आ सकता है। ऐसा इसलिए हुआ होगा, क्योंकि जीवन की जरूरत को पूरा करने का मकसद, धार्मिक बने रहने या धार्मिक दिखने के मकसद से विस्तृत और प्राथमिक है।

उस दिन सैर के दौरान, मेरे मन में इस तरह के विचार हिलोर मार रहे थे। उन विचारों को समझने की असफल कोशिश करता हुआ मैं घर को लौट रहा था कि मुझे वरुण देवता के अवतार की लाश दिखाई दी। वरुण देवता का अवतार, यानि मेंढक। वो मेंढक, किसी की गाड़ी से बुरी तरह से कुचला गया था।

मेंढक, सांप, चूहा, और चींटी। इन सब की हत्याएं इनविजिबल हैं। उनकी हत्याएं खबर तो छोड़िए, नोटिस में भी नहीं आती। बैल, गाय, हाथी, कुत्ता, ऊंट, बाघ, आदि की हत्याएं कुछ हद तक तो विजिबल हो जाती हैं I कई बार इनकी हत्याएं खबर बनती हैं। कई बार उन खबरों का नोटिस भी लिया जाता है।

कुछ जीवों की हत्याओं को विजिबल तथा कुछ जीवों की हत्याओं को इनविजिबल उस देश में भी रखा जाता है, जिसका बहुसंख्यक समुदाय विश्वास करता है कि हर जीव में भगवान होता है। लेकिन जब वह समुदाय एक जीव की मौत और दूसरे जीव की मौत के बीच फर्क करता है, तो उनकी सांस्कृतिक मान्यताओं और जीवन जीने के तरीकों में विरोधाभास साफ-साफ उभर कर सामने आ जाता है।

ऐसा नहीं है कि मेरा जीवन किसी भी तरह के विरोधाभासों से मुक्त है। मैं अनेक तरह के विरोधाभासों में जीता हूं।इस बात को मैं एक उदाहरण के जरिए समझाता हूं। मेरे पास तीन बिल्लियां हैं। मैं, मेरी पत्नी, और मेरे बच्चे उनसे बहुत प्यार करते हैं। लेकिन अपने विरोधाभासों को पहचान पाने के कारण मैं अपने आप को एनिमल लवर कहलाने से बचता हूं।

एनिमल लवर तो छोड़िए, मैं अपने आप को कैट लवर भी नहीं मानता। मैं केवल इतना भर का सकता हूं, कि मैं अपनी तीन बिल्लियों का लवर हूं। क्योंकि कई बार मैं भी अपने घर पर आने वाली अन्य बिल्लियों को पानी डालकर भगाता हूं। बिल्लियां पालने भर से, मैं न तो एनिमल लवर हो जाता हूं और न ही केट लवर।

उस दिन सैर करते हुए मैं एक और विरोधाभास को चिन्हित कर पाया। उस जगह पर ऊपर या सीधा देखने पर आपको घना जंगल, लंबी-चौड़ी जगह पर प्लांटेशन दिखाई देगा। इस मौसम में आपको दिखाई देगी हरियाली। आपको उस जगह महानगरों के मुकाबले हवा में कुछ ज्यादा ताजगी भी मिलेगी। मजा देने वाली अनेक विशेषताएं आपको उस जगह पर दिखाई दे सकती हैं। लेकिन जैसे ही आप नीचे देखेंगे, आपको सैकड़ो जीवों की लाशें दिखाई देंगी। उन लाशों की नींव पर भी पहाड़ में पर्यटन का विकास हो रहा है।

वैसे भी सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, और आध्यात्मिक विकास करने के लिए सीधा या ऊपर देखना ही ठीक है माना जाता है। क्योंकि सामाजिक- सांस्कृतिक हैरार्की की व्यवस्थाओं में नीचे देखते पर दबे-कुचले लोग दिखेंगे। दिखेंगे दलित, आदिवासी, महिलाएं, और अल्पसंख्यक। नीचे देखने पर हमें दिखेंगे हेट्रोसेक्सुअल रिलेशंस को जीने वालों से भिन्न सेक्सुअल-रिलेशंस को जीने वाले लोग।

उत्पीड़क दिखने से बच निकलने का जो नजरिया और ट्रेडिंग हमें सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, और आध्यात्मिक दुनिया में दी गई है, उस नजरिए और ट्रेनिंग के सहारे ही हम पहाड़ की रंगीनियों का मजा लूटते हैं और लाशों से अनभिज्ञ रहते हैं।

इसलिए बेहतर इन्सान होने के लिए नीचे देखना जरुरी है I सड़क पर भी और समाज में भी।

(बीरेंद्र सिंह रावत शिक्षा विभाग दिल्ली-विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हैं)

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