इतिहास पुनर्लेखन या इतिहास का पुनर्मिथकीकरण- भाग 1

वर्गों में समाज-विभाजन से अस्तित्व में आये ‘सभ्यता’ के इतिहास के हर युग में ‘ज्ञान’ सामाजिक वर्चस्व का एक प्रमुख उपकरण रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि ज्ञान क्या है? दार्शनिक अर्थों में तो ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है। शासक वर्ग समाज पर वर्चस्व के लिए ज्ञान को अपने हित में अपने ढंग से परिभाषित करता है और शिक्षा इसका प्रमुख उपकरण है। 2014 में केंद्रीय सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही भारतीय शासक वर्गों के हिंदुत्ववादी धड़े की प्राथमिकता सूची में शिक्षा व्यवस्था का अनुकलन सर्वोपरि रहा है।

सत्ता संभालने के बाद आरएसएस के प्रश्रय की हिंदुत्ववादी सरकार ने नई शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार करने के लिए एक कमेटी बनाई जिसकी संस्तुति के आधार पर शिक्षा के कॉरपोरेटीकरण की विश्व बैंक की नीति को साकार करने के लिए नई शिक्षा नीति बनी, जिसे 2020 में मंत्रिपरिषद की मंजूरी मिली, जिसकी विस्तृत चर्चा की यहां गुंजाइश नहीं है और जो अलग चर्चा का विषय है। शिक्षा का एक अहम पहलू है इतिहास का पठन-पाठन और शासन की निरंतरता की दृष्टि से उसका राजनैतिक अनुकूलन। सत्ता संभालने के बाद सरकार ने भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) के अनुकूलन के साथ इतिहास पुनर्लेखन की एक कमेटी बनाई, जिसका घोषित उद्देश्य भारत के प्राचीन गौरव का ‘अन्वेषण’ करना तथा सभी प्राचीन महानताओं को हिंदू विरासत साबित करना है। 

इतिहास अतीत का संस्मरण है, जिस पर संस्मरणकर्ता का प्रभाव स्वाभाविक है। बहादुर शाह जफर के औपचारिक नेतृत्व में 1857 के विद्रोह ने औपनिवेशिक शासन की चूलें हिला दी थी। जिसकी 50वीं सालगिरह पर वीडी सावरकर ने 1907 में ‘भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम‘ शीर्षक से किताब लिखी थी। भविष्य में जिसकी पुनरावृति की आशंका से भयभीत औपनिवेशिक शासकों ने बांटो-राज करो की नीति अपनाया और औपनिवेशिक लेखन में भारतीय इतिहास का प्राचीन और मध्यकाल क्रमशः हिंदू काल और मुस्लिम काल बन गया, लेकिन औपनिवेशिक काल आधुनिक काल ही बना रहा।

हिंदुस्तानी की पहचान हिंदू नस्ल और मुस्लिम नस्ल में बंट गयी। 1990-91 में छपी, जाने-माने इतिहासकार ज्ञानेंद्र पांडेय की पुस्तक, ‘औपनिवेशिक उत्तर भारत में सांप्रदायिकता का निर्माण (Construction of Communalism in Colonial North India)’ औपनिवेशिक इतिहास लेखन के दस्तावेजी विश्लेषण से सांप्रदायिकता की औपनिवेशिक उत्पत्ति उजागर करती है। औपनिवेशिक शासन ने उपनिवेश विरोधी आंदोलन की विचारधारा के रूप में उभर रहे भारतीय राष्ट्रवाद को खंडित करने के लिए धर्म आधारित राष्ट्रवाद को हवा दी और उसे भारत के दोनों प्रमुख समुदायों से इस हवा के वाहक मिल गए, जिसकी परिणति अंततः अभूतपर्व रक्तपात के साथ देश के विभाजन में हुई जिसके घाव अभी तक नासूर बन रिस रहे हैं।

औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद औपनिवेशिक इतिहासोध की विरासत सांप्रदायिक इतिहासपबोध में समाहित हो गयी। मौजूदा समय में भारत में समाज के धर्म आधारित सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की औपनिवेशिक नीति को हिंदुत्ववादी ताकतें आगे बढ़ा रही हैं। इतिहास मे व्याख्यायित अतीतगाथा वर्तमान की राजनीति को प्रभावित कर भविष्य की दिशा निर्धारित करती है। भारत में  50 साल पहले बाबरकालीन इतिहास की सांप्रदायिक व्याख्या से बाबरी मस्जिद विवाद से शुरू हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राजनीति आज औरंगजेब की कब्र तक पहुंच गयी। औरंगजेब के 49 साल लंबे शासन अत्याचारों की व्याख्या करते समय हिंदुत्ववादी बुद्धिजीवी यह नहीं बताते कि शासक अपनी नीतियों को अंजाम राज्य मशीनरी से देता है तथा औरंगजेब की राज्य मशीनरी के एक तिहाई अधिकारी मराठे और राजपूत थे।          

ब्राह्मणवादी इतिहासबोध कालक्रम आधारित तथ्यात्मक की बजाय मिथकीय (पौराणिक) है, जिसकी युगचेतना अग्रगामी की बजाय अधोगामी है। यह, शीर्ष, सतयुग से शुरू होकर रसातल, कलियुग तक अधोगामी यात्रा करता है। स्वर्णयुग, सतयुग भी ऐसा कि जिसमें इंसानों की खरीद-फरोख्त का खुला बाजार हो! गौरतलब है कि सतयुग में पौराणिक राजा हरिश्चंद्र खुद और अपने पत्नी-पुत्र को बेच दिए थे, किसी चीज की खरीद फरोख्त तभी होती है जब उसका बाजार हो। यह भी गौरतलब है कि बौद्ध संस्कति के विरुद्ध ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति के बौद्धिक औचित्य के लिए पुराण लिखे गए।

हिंदुत्ववादी ताकतें सत्ता हासिल करने के बाद पौराणिक अतीत को इतिहास के रूप में परिलक्षित कर, उसमें महानता तलाशने की भविष्य के खिलाफ  साजिश कर रही हैं। किसी समाज को वैचारिक गुलाम बनाने के लिए उसके इतिहास को विकृत करना ऐतिहासिक रूप से आजमाया तरीका है। यह तकनीक, लगता है, हिंदुत्ववाद ने अपने औपनिवेशिक पुरखों से सीखा है। गौरतलब है कि कोलंबस के राजनैतिक वंशजों ने अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया के मूल निवासियों तथा गुलाम बना लिए गए अफ्रीकी लोगों के इतिहास के साथ यही किया था।  

मोदी सरकार ने अपने प्रथम कार्यकाल में दादरी में अखलाक़ की सांप्रदायिक हत्या को दुर्घटना बताने वाले, तत्कालीन संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने इतिहास पुनर्लेखन कमेटी के औचित्य में बयान दिया था कि यदि कुरान तथा बाइबिल ऐतिहासिक हो सकते हैं तो हिंदू ग्रंथ क्यों नहीं? तत्कालीन संस्कृति मंत्री का सांस्कृतिक अज्ञान समझा जा सकता है, लेकिन कमेटी के सदस्य तो इतिहास में कम-से-कम एमए होंगे ही, उन्हें तो ज्ञात होना चाहिए कि जिन अनाम ग्रंथों की बात मंत्री महोदय कर रहे थे उनके लिखे जाने के समय हिंदू शब्द का अस्तित्व ही नहीं था। हिंदू शब्द आठवीं शताब्दी के आस-पास, अरबों ने सिंधु के इर्द-गर्द की जगहों के बासिंदों की भौगोलिक पहचान के लिए ईजाद किया, जो कालांतर में ऐतिहासिक कारणों से धार्मिक पहचान बन गयी।

इतिहास के पुनर्लेखन के नाम पर इसके पुनर्मिथकीकरण के “राष्ट्रवादी” मंसूबों की भनक तभी मिल गई थी जब मौजूदा सरकार द्वारा नियुक्त भारतीय ऐतिहासिक शोध परिषद(आईसीएचआर) के अध्यक्ष, ने पद संभालते ही, इतिहास के पुनर्लेखन की जरूरत पर जोर देते हुए कहा था, “रामायण और महाभारत को सिर्फ इसलिए नहीं अनैतिहासिक कहा जा सकता है क्योंकि उसके ठोस पुरातात्विक साक्ष्य नहीं हैं”। इस काम को अंजाम देने के लिए सरकार ने गुपचुप एक इतिहास पुनर्लेखन कमेटी बना डाली, जिसका रॉयटर्स ने खुलासा किया था। समिति के अध्यक्ष के.एन दीक्षित ने रायटर्स को बताया था, “मुझे एक रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है जो सरकार को प्राचीन इतिहास के कुछ पहलुओं को फिर से लिखने में मदद करे।”

यानि इतिहास लिखना अब इतिहासकारों का नहीं, सरकार का काम है। संस्कृति मंत्री ने कहा, “मैं रामायण की पूजा करता हूं और मुझे लगता है कि यह एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। जो लोग सोचते हैं कि यह कल्पना है, वे लोग बिल्कुल गलत हैं।” चलिए तत्कालीन संस्कृति मंत्री जी तो मेडिकल के विद्यार्थी रहे हैं उनके भक्तिभाव आधारित इतिहासबोध की दरिद्रता समझ में आती है, लेकिन 12 सदस्यीय समिति के एक सदस्य, जेएनयू के प्रोफेसर संतोष कुमार शुक्ला ने रायटर्स को बताया कि “भारत की हिंदू संस्कृति लाखों साल पुरानी है”, यानि पाषाण युग से भी पहले की। फिर तो सिंधु घाटी सभ्यता के लोग भी लाखों साल पुरानी संस्कृति के ही अंश होंगे। गौरतलब है कि सिंधु घाटी सभ्यता विकसित नागरीय सभ्यता थी जबकि वैदिक आर्यों की पशुपालक कुटुंबों की।  

7 मार्च, 2017 को पीटीआई के हवाले से फाइनेंशियल एक्सप्रेस में छपी खबर के अनुसार, नवंबर, 2016 में गठित इस कमेटी ने नवंबर, 2017 में अपनी रिपोर्ट संस्कृति मंत्री को सौंप दिया। रिपोर्ट में कहा गया है कि इतिहास के इस पुनर्लेखन परियोजना का मकसद “यह प्रमाणित करना है कि आज के हिंदुओं के पूर्वज ही हजारों साल पहले से ही इस भूमि के मूल निवासी हैं, और यह कि पौराणिक हिंदू ग्रंथों की गाथाएं ऐतिहासिक हैं, मिथक नहीं”। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि सरकार धार्मिक पहचान के आधार पर राष्ट्रीय पहचान का निर्माण करना चाहती है जिससे साबित किया जा सके कि “भारत हिंदुओं का तथा हिंदुओं के लिए है”। 

आरएसएस के विचार पुरुष, गुरुजी के नाम से जाने जाने वाले माधवराव सदाशिव गोलवल्कर आर्यों के मूलनिवासी होने के सिद्धांत के प्रवर्तक हैं। बालगंगाधर तिलक ने वेदों तथा अवेस्ता श्रोतों के हवाले से लिखी अपनी पुस्तक, ‘वेदों में आर्कटिक वतन (The Arctic Home in Vedas)’ में साबित किया है कि आर्यों का मूल स्थान उत्तरी ध्रुव के इर्द-गिर्द आर्कटिक क्षेत्र था। लगभग 8000 ईशा पूर्व हिमसैलाब के बाद वे यूरोप और एशिया में नए ठिकानों की तलाश में विभिन्न दिशाओं में निकल पड़े। उनमें से एक शाखा वोल्गा होते हुए सिंधु घाटी पहुंची और ऋगवेद में वर्णित सप्तसैंधव (सात नदियों – सिंध, पंजाब की पांच नदियां और सरस्वती – की भूमि) में जनों (कबीलों) में बस गई।

यह सिद्धांत हिंदुत्व के मूलनिवासी सूत्र को नजरअंदाज कर, वैदिक आर्यों को मुगलों के साथ एक ही पायदान पर खड़ा कर देता है। इतिहास के दिवंगत नायकों को अपना नायक बनाना आरएसएस की पुरानी आदत है। बाल विवाह जैसे प्रतिगामी परंपराओं के समर्थन तथा लोगों की लामबंदी के लिए गणेषोत्सव का उद्घाटन आदि के चलते वह तिलक को हिंदुत्व के नायक के रूप में पेश करता है। इस विरोधाभास के समाधान में, जीवविज्ञान में एमएससी, गोलवल्कर ने एक मौलिक भूगर्भशास्त्रीय सिद्धांत का अन्वेषण कर डाला। “अति प्राचीन काल में यह (उत्तरी ध्रुव) दुनिया के उस हिस्से में था….. (जिसे) आज बिहार और उड़ीसा कहा जाता है”।

आप समझ सकते हैं कि इतिहास का पुनर्लेखन का यह फासीवादी मन्सूबा तथ्य-तर्कों को दर किनार कर इसी तरह की अनर्गल कल्पनाओं पर आधारित होगा, उसी तरह जैसे ब्राह्मणवाद ने सामाजिक यथार्थ की विसंगतियों पर पर्दा डालने के लिए इतिहास के बजाय पुराण लिखा। इतिहास के पुनर्लेखन की यह कशरत, कुछ और नहीं, इतिहास के पुनर्मिथकीकरण का कुत्सित प्रयास है, जो धड़ल्ले से रफ्तार पकड़ रहा है। क़ॉलेज-विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में बौद्धिक विमर्श की जगह पर रामचरित मानस के सुंदरकांड का पाठ और भागवत पुराण पर प्रवचन आयोजित हो रहे हैं। लगता है उच्च शिक्षा का उद्देश्य वैज्ञानिक सोच के श्रृजन की जगह भक्तिभाव का निर्माण हो गया है।  

  [रामायण और महा भारत जैसे पौराणिक ग्रंथों के इतिहासीकरण के निहितार्थ की चर्चा अगले भाग में]

(ईश मिश्र, रिटायर्ड प्रोफेसर हैं। वह दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र पढ़ाते थे। 

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