Friday, April 19, 2024

जयंती पर विशेष : व्यवस्था के खिलाफ मुक्तिबोध में दबा बम धूमिल में फट पड़ा!

‘क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है, जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई मतलब होता है?’ हिन्दी कविता के एंग्रीयंगमैन सुदामा पांडे ‘धूमिल’ने अब से कई दशक पहले यह जलता व चुभता हुआ सवाल पूछा और नये-पुराने सामंतों, थैलीशाहों व धर्मांधों द्वारा प्रायोजित लोकतंत्र में आम आदमी की विवशता के वायस उच्च मध्यवर्गों के आपराधिक चरित्रों को पहचाना तो हिन्दी साहित्य के आकाश में एकबारगी उनके नाम की धूम-सी मच गयी थी। भले ही उनके जीवित रहते उनका सिर्फ एक कविता संग्रह प्रकाशित हो पाया था-‘संसद से सड़क तक’। ‘कल सुनना मुझे’उनके निधन के कई बरसों बाद छपा और उस पर 1979 का साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें मरणोपरांत दिया गया। बाद में उनके बेटे रत्नशंकर की कोशिशों से उनका एक और संग्रह छपा-सुदामा पांडे का प्रजातंत्र।

धूमिल का जन्म 9 नवम्बर, 1936 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के खेवली गांव में माता रसवंती देवी के गर्भ से हुआ था। अभी वे ठीक से होश भी नहीं संभाल पाये थे कि उनके सिर से पिता शिवनायक पांडेय का साया उठ गया और उनकी इंटर की पढ़ाई छूट गयी। जब तक वे तेरह साल के होते, उनकी शादी कर दी गयी और वे जिम्मेदारियां निभाने के लिए एक लकड़ी व्यापारी के यहां नौकरी करने को मजबूर हो गये। अलबत्ता, बाद में औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्र से बिजली सम्बन्धी कामों का डिप्लोमा किया और उसी में अनुदेशक नियुक्त हो गये। नौकरी मिली तो उसके चक्कर में उन्हें सीतापुर, बलिया और सहारनपुर आदि की हिजरत भी करनी पड़ी, लेकिन उनका मन बनारस में रमता था या फिर अपने गांव में।

उनकी साधारणता इतनी असाधारण थी कि ब्रेन ट्यूमर के शिकार होकर 10 फरवरी, 1975 को वे अचानक मौत से हारे तो उनके परिजनों तक ने रेडियो पर उनके निधन की खबर सुनने के बाद ही जाना कि वे कितने बड़े कवि थे। कहते हैं कि बनारस के मणिकर्णिका घाट पर उनकी अन्त्येष्टि के समय साहित्यकारों में सिर्फ कुंवरनारायण और श्रीलाल शुक्ल पहुंचे थे। अपने आत्मकथ्यों में वे अपनी जिस मृत्यु को अनिश्चित लेकिन दिन में सैकड़ों बार संभव बताते थे, वह उस दिन आयी ही कुछ ऐसे दबे पांव थी!

वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह के अनुसार औपचारिक उच्च शिक्षा से महरूम धूमिल बाद में कविता सीखने व समझने की बेचैनी से ऐसे ‘पीड़ित’हुए कि जीवन भर विद्यार्थी बने रहे। उन्होंने अपने पड़ोसी नागानंद और शब्दकोशों की मदद से अंग्रेजी भी सीखी, ताकि उसकी कविताएं भी पढ़ व समझ सकें। अलबत्ता, विधिवत अध्ययन की कमी को उन्होंने इस रूप में जीवन भर झेला कि न स्त्रियों को लेकर मर्दवादी सोच से मुक्त हो पाये और न गांवों व शहरों के बीच पक्षधरता के चुनाव में सम्यक वर्गीय दृष्टि अपना पाये। अशोक वाजपेयी का संग्रह ‘शहर अब भी संभावना है’ आया तो उन्होंने यह कहकर उसकी आलोचना की कि शहर तो एक फ्रंट है, वह संभावना कैसे हो सकता है?

लेकिन इसका एक लाभ भी हुआ। ‘अनौपचारिक जानकारियों’ने उनका बनी-बनायी वाम धारणाओं की कैद से निकलना आसान किये रखा और वे सच्चे अर्थों में किसान जीवन के दुःखों व संघर्षों के प्रवक्ता और सामंती संस्कारों से लड़ने वाले लोकतंत्र के योद्धा कवि बनकर निखर सके। खाये-पिये और अघाये लोगों की ‘क्रांतिकारी’ बौद्धिक जुगालियों में गहरा अविश्वास व्यक्त करने में उन्होंने ‘सामान्यीकरण’और ‘दिशाहीन अंधे गुस्से की पैरोकारी’जैसे गम्भीर आरोप भी झेले, लेकिन पूछते रहे कि ‘मुश्किलों व संघर्षों से असंग’लोग क्रांतिकारी कैसे हो सकते हैं? उनका विश्वास था कि ‘चंद टुच्ची सुविधाओं के लालची/अपराधियों के संयुक्त परिवार’के लोग एक दिन खत्म हो जायेंगे और इसी विश्वास के बल से उन्होंने ‘अराजक’ होना कुबूल करके भी ‘निष्ठा’ का तुक ‘विष्ठा’ से नहीं भिड़ाया।

कविताओं में वर्जित प्रदेशों की खोज करने और छलिया व्यवस्था द्वारा पोषित हर परम्परा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता की ऐसी-तैसी करने को आक्रामक धूमिल ने अपना छायावादी अर्थध्वनि वाला उपनाम क्यों रखा, इसकी भी एक दिलचस्प अंतर्कथा है। बनारस में उनके समकालीन एक और कवि थे-सुदामा तिवारी। धूमिल नहीं चाहते थे कि नाम की समानता के कारण दोनों की पहचान में कन्फ्यूजन हो। इसलिए उन्होंने अपने लिए उपनाम की तलाश शुरू की और चूंकि कविता के संस्कार उन्हें छायावाद के आधारस्तंभों में से एक जयशंकर ‘प्रसाद’ के घराने से मिले थे, जिससे उनके पुश्तैनी रिश्ते थे, अतएव तलाश ‘धूमिल’ पर ही खत्म हुई।

धूमिल ने अपनी छोटी-सी उम्र में ही हिन्दी आलोचना का परम्परा से कहानियों की ओर चला आ रहा मुंह घुमाकर कविताओं की ओर कर लेने में सफलता पा ली थी। यह और बात है कि उनकी पहली प्रकाशित रचना एक कहानी ही थी, जो अपने समय की बहुचर्चित पत्रिका ‘कल्पना’ में छपी थी। वे बनारस में साहित्यकारों के स्वाभिमान के प्रतीक माने जाते थे और जिसमें भी ओछापन देखते उसके खिलाफ हो जाते। कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि वे नामवर सिंह के लठैत की तरह काम करते थे। इसमें कम से कम इतना सही है कि वे नामवर के खिलाफ कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते थे। लेकिन उनके स्वभाव के मद्देनजर इससे भी ज्यादा सच्ची बात यह है कि जिस भी पल उन्हें लगता कि नामवर उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं, वे उन्हें छोड़ देते।

उनकी एक बेहद लोकप्रिय कविता है-एक आदमी रोटी बेलता है/एक आदमी रोटी खाता है/ एक तीसरा आदमी भी है/जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/वह सिर्फ रोटी से खेलता है/मैं पूछता हूं/यह तीसरा आदमी कौन है/और मेरे देश की संसद मौन है। तो जब संसद का वह मौन कई और दशक लम्बा हो गया है, यह तथ्य और साफ हो गया है कि भारत की विकल्प और विपक्ष दोनों से विरहित जनविरोधी राजनीति का असली प्रतिपक्ष धूमिल की कविताओं में ही बसता है। आलोचक प्रियदर्शन ठीक ही कहते हैं कि मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के बाद धूमिल हमारे जटिल समय के ताले खोलने वाली तीसरी बड़ी आवाज हैं। ‘जो बम मुक्तिबोध के भीतर कहीं दबा पड़ा है और रघुवीर सहाय के यहां टिकटिक करता नजर आता है, धूमिल की कविता तक आते-आते जैसे फट पड़ता है। कुछ इस तरह कि उसकी किरचें हमारी आत्माओं तक पर पड़ती हैं’।

यकीनन, धूमिल को एक बार फिर नये सिरे से समझे जाने की जरूरत है। यह याद रखते हुए कि कुछ शक्तियों को उनके कवि व कविता दोनों से बहुत असुविधा है।

(कृष्ण प्रताप सिंह दैनिक अखबार जनमोर्चा के संपादक हैं।)

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