Friday, April 26, 2024

निजीकरण: मिथ और हकीकत

निजीकरण का राजनैतिक अर्थशास्स्त्र समझने के लिए किसी राजनैतिक अर्थशास्त्र में विद्वता की जरूरत नहीं है। सहजबोध (कॉमनसेंस) की बात है कि कोई भी व्यापारी कभी घाटे का सौदा नहीं करता, न ही उसका काम जनकल्याण या देश की समृद्धि होती है, उसका मकसद येन-केन-प्रकारेण — लूट-खसोट-चोरी-बेईमानी-धोखाधड़ी से— ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाना होता है। सरकारी खर्च और दलाली से मुनाफा कमाने के पूंजीवाद को क्रोनी पूंजीवाद कहते हैं। इसमें व्यापार किसी उद्यमशीलता या व्यापारिक रिस्क के आधार पर नहीं भ्रष्ट राजनेताओं (सरकार) एवं धूर्त धनपशुओं की मिलीभगत से फूलता-फलता है। जब सारे सरकारी बुद्धिजीवी और धनपशुओं के भोंपू उदारीकरण (सरकारी नियंत्रण में ढील या समाप्ति) और निजीकरण के जादू के रामबाण से देश-दुनिया को स्वर्ग बनाने की बात कर रहे थे तथा भूमंडलीकरण के मानवीय चेहरे की हिमायत कर रहे थे (यानि अमानवीयता भूमंडलीकरण में अंतर्निहित है)।

सार्वजनिक उपक्रम की कार्यकुशलता में गिरावट या घाटे की जिम्मेदारी मजदूरों की अकर्मण्यता नहीं बल्कि पिरामिडाकार सरकारी भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन की है। और अंतिम जिम्मेदारी शीर्ष पर बैठे व्यक्ति यानि विभागीय मंत्री और अंततः प्रधानमंत्री की है, जो किसी उपक्रम को भ्रष्टाचार और कुप्रबंधन से अकुशल और घाटे में चलने वाला बना देते हैं फिर धनपशुओं से दलाली खाकर औने-पौने दामों में बेचकर क्रोनी कैपिटलिज्म को बढ़ावा देते हैं। मैं तो आजीवन प्रकारांतर से शिक्षक रहा (जब नौकरी में नहीं था तब तेवर [टेंपरामेंट] से), कोई खास प्रशासनिक अनुभव नहीं है 3 साल हॉस्टल की वार्डनशिप के अलावा। मैंने मेस और सुरक्षा के निजीकरण का सफल विरोध किया। पूरे विवि में हमारा हॉस्टल मिसाल माना जाता था। मजदूरों की ठेकेदारी में कमीशन (दलाली) भी होता है। लगभग सारे विद्यार्थी अभी भी प्यार से संपर्क में हैं। विवि में कुछ अनियमित कर्मचारियों को नियमित करने की बात पर एक अधिकारी ने कहा कि ‘हॉस्टल में कौन काम करता है?’ मैंने कहा कि आप ही कहती हैं हॉस्टल बहुत अच्छा चल रहा है, तो लोग काम कर रहे हैं क्योंकि वार्डन तो कोई काम करता नहीं, करवाता है। मैं छात्रों की आमसभा (जीबीएम) में एक बात रेखांकित करता था कि यदि आप किसी जिम्मेदारी के पद पर हैं तो अगर आप ईमानदारी से निष्ठापूर्वक जनतांत्रिक और पारदर्शी ढंग से काम करेंगे तो अंततः अवश्यंभावी रूप से सफल होंगे। हॉस्टल के अनुभव विस्तार से फिर कभी।


नवउदारवादी अर्थशास्त्रियों का विश्वबैंक का एक पालतू गिरोह है जो अपने को ‘नया राजनैतिक अर्थशास्त्र’ समूह कहता है, जिसका काम है तीसरी दुनिया के देशों में भूंडलीकरण (ढांचागत समायोजन Structural Adjustment] कार्यक्रम) यानि उदारीकरण और निजीकरण की नीतियां लागू करवाना। इसके बारे में विस्तार से फिर लिखूंगा। इनका मानना है कि इन देशों के राजनेता नकारे और जाहिल होते हैं जो येन-केन-प्रकारेण कुर्सी पाना और उससे चिपके रहना चाहते हैं, बाकी देश जाए भाड़ में। ‘अच्छे लोगों की पीठ से लात हटाने के लिए बुरी सरकारें खरीद लो’। इस पर विस्तार से फिर लिखूंगा, अभी इतना ही कि उदारीकरण और निजीकरण की प्रक्रिया लोगों के लिए कष्टप्रद होगी और प्रतिरोध होगा। इसलिए जनकल्याण वाली नहीं दमनकारी सरकार चाहिए जो निर्ममता से प्रतिरोध का दमन कर सके। जाहिर है सरकार की विश्वसनीयता लोगों में घटेगी। उसे हटाकर दूसरी सरकार सत्तासीन कर दो जो सारी गड़बड़ियों की जिम्मेदारी पिछली सरकार पर डालकर अगले 5 साल भूमंडलीय पूंजीवाद की साम्राज्यवादी नीतियों को अंजाम (पिछले 70 साल) देती रहे। (राव की जगह देवगौड़ा, उनकी जगह अटल, और अटल की जगह मनमोहन, मनमोहन की जगह मोदी ……)। जब अटल प्रधानमंत्री बने तो कांग्रेस कहने लगी कि वे उसी की नीतियां लागू कर रहे हैं और जब मनमोहन बने तो यही बात भाजपा कहने लगी।


कींस के सिद्धांतों के तहत कल्याणकारी राज्य का उद्भव जनकल्याण के लिए नहीं, महामंदी के संकट में पूंजीवाद को ध्वस्त होने से बचाने के लिए हुआ। जनकल्याण उसका तार्किक उपप्रमेय था। 1930 के दशक की महामंदी का संकट, निजी मुनाफे के सिद्धांत पर आधारित एडमस्मिथ के उदारवादी राजनैतिक अर्तशास्त्र का संकट था। निजी पूंजी की अराजक उत्पादन एवं मुनाफे के लिए शोषण-दमन तथा बेरोजगारी के चलते लोगों की क्रयशक्ति घटने का संकट था। आज भी वही हाल है। पूंजीवाद को ध्वस्त होने से बचाने के लिए उदारवादी पूंजीवाद को कल्याणकारी पूंजीवाद से प्रतिस्थापित किया गया। राज्य नियंत्रित अर्थतंत्र के साथ जनता के पैसे से विशालकाय सार्वजनिक उपक्रम स्थापित किए गए। भारत जैसे पूर्व उपनिवेशों में पूंजीवाद था ही नहीं जिसे बचने का उपक्रम होता। ईस्ट इंडिया जब भारत आई तो अंतरराष्ट्रीय व्यापार में पूर्वी एशिया (प्रमुखतः चीन) और भारत प्रमुख खिलाड़ी थे। 200 सालों में औपनिवेशिक लूट ने भारत को कंगाल कर दिया था। 1947 में देश की अर्थव्यवस्था में औद्योगिक योगदान 7 फीसदी से नीचे था। तो यहां पूंजीवाद को बचाने की नहीं बनाने की समस्या थी।

अफीम युद्ध के समय अफीम की तस्करी के आदिम संचय से देशी पूंजीपतियों का उदय तो हो चुका था लेकिन पूंजीवाद के विकास के उस चरण के अनुरूप विशाल उपक्रमों और अधिरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) में निवेश की न तो उनकी मंशा थी न औकात। इसलिए जनता के पैसे से यह उत्तरदायित्व राज्य ने उठाया। 1980 तक जब सार्वजनिक उपक्रमों के शोषण से निजी पूंजी की व्यवस्था में स्थायित्व आ गया तो पूंजीपतियों के भोंपुओं ने सामाजिक सुरक्षा और जनकल्याण प्रतिष्ठानों के विरुद्ध खैरात और भीख की बकवास शुरू की जैसे आज तमाम प्रतिक्रियावादी आरक्षण के बारे में करते हैं। थैचर और रीगन ने सामाजिक सुरक्षा और जनकल्यामकारी प्रतिष्ठानों का विघटन शुरू किया। सोवियत संघ के पतन के बाद भूमंडलीय पूंजी के भोंपुओं ने इतिहास के अंत की घोषणा कर दी और इसके आर्थिक-वित्तीय संस्थानों ने भूमंडलीकरण के नाम पर सभी देशों के सार्वजनिक प्रतिष्ठानों और कल्याणकारी नीतियों पर संगठित हमला बोल दिया। 1995 में विश्वबैंक ने कृषि और शिक्षा को व्यापारिक सेवा के रूप में गैट्स (जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड सर्विसेज) में शामिल कर दिया। मनमोहन सरकार इस पर अंगूठा लगाने में आगे-पीछे करते 2014 में अपदस्थ हो गयी। मोदी सत्ता संभालते ही विश्वबैंक के वफादार सेवक की तरह 2015 में नैरोबी जाकर इस समझौते पर अंगूठा लगा आए।


उदारवादी पूंजी के संकट से निजात पाने के लिए कल्याणकारी पूंजीवाद का समाधान खोजा गया, जिसे संकटग्रस्त कर नए बोतल में पुरानी शराब की कहावत चरितार्थ करते हुए भूमंडलीकरण के नाम पर नवउदारवाद को समाधान के रूप में अपनाया गया। लेकिन मर्ज ही दवा नहीं हो सकती। उदारवादी पूंजीवाद आवर्ती संकटों से होते हुए महामंदी के व्यापक संकट तक पहुंचने में 200 साल से अधिक लगा दिया था। नवउदारवादी पूंजीवाद अपने उद्भव के 20 साल में ही असाध्य रूप से संकटग्रस्त हो गया है। उदारवादी पूंजीवाद और नवउदारवादी पूंजीवाद में प्रमुख अंतर यह है कि उदारवादी राज्य पूंजी की लूट में दखलअंदाजी नहीं करता था। नवउदारवादी राज्य पूंजी की लूट (विकास) में साझीदार है। टाटा अपने आप कलिंगनगर के आदिवासी किसानों को विस्थापित कर उनकी जमीनों पर काबिज नहीं हो सकता था उनके विस्थापन विरोधी आंदोलन के दमन और उनकी हत्या के लिए राज्य मशीनरी की जरूरत थी। अडानी भी झारखंड के आदिवासियों की जमीन निजी गुंडों से नहीं हथिया सकता था, उसे राज्य की मदद चाहिए।

नवउदारवादी पूंजीवाद के संकट का समाधान फिलहाल पूंजीवाद में नहीं दिख रहा है। ‘नया राजनैतिक अर्थशास्त्र’ गिरोह के सिद्धांत संकट को और गहन बनाने वाले हैं। क्रांति तथा आमूल परिवर्तन ही समाधान है। पूंजीवाद आर्थिक संकट के साथ-साथ सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है। पूंजीवाद का विकल्प समाजवाद भी राजनैतिक संकट के साथ सिद्धांत के भी संकट से गुजर रहा है। समाधान भविष्य की पीढ़ियों पर निर्भर भविष्य की कोख में है। इतिहास अंततः आगे ही बढ़ेगा, इसके इंजन में रिवर्स गेयर नहीं होता। वैसे उदारवादी (औपनिवेशिक) साम्राज्यवाद तथा नवउदारवादी (वित्तीय) साम्राज्यवाद में एक फर्क यह भी है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, शेरे सिराजुद्दौला भी मीरजाफर बन गए हैं।

(ईश मिश्र दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में अध्यापन का काम कर चुके हैं।)

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