Friday, March 29, 2024

बचाने से ज्यादा पर्यावरण को उजाड़ने का काम करती हैं सरकारें

अक्सर हमारे देश में पर्यावरण बचाने और प्रदूषण से मुक्ति के लिए वृहद वृक्षारोपण का नाटक करने में,नदियों को प्रदूषणमुक्त करने में अरबों-खरबों रुपयों का वारा-न्यारा कर दिया जाता है। जबकि वास्तविकता यह है कि उसमें होता कुछ नहीं है, वृक्षारोपण में लगाए गये पौधों में से 98 प्रतिशत तक शिशु पौधे पानी और सुरक्षा के अभाव में तथा कुछ पालतू पशुओं के द्वारा नष्ट कर दिए जाने की वजह से बेमौत मार दिए जाते हैं। इसी प्रकार भारत की नदियों की अतिदयनीय हालत इसलिए है, क्योंकि एक तरफ हम भारतीय लोग नदियों को ‘मां तुल्य’ मानने का पाखंड करते हैं, दूसरी तरफ उन्हीं में अपने लाखों गाँवो,कस्बों, नगरों और महानगरों तक के और अपने लाखों फैक्ट्रियों के जहर मिले रासायनिक अतिप्रदूषित करोड़ों क्यूसेक लीटर पानी को भी धड़ल्ले से अपनी कथित मां तुल्य नदियों में प्रतिदिन छोड़ते रहते हैं। दूसरी तरफ खरबों रुपये उन्हीं नदियों को साफ करने के लिए लगा देने का ‘छद्म नाटक’ करते रहते हैं।

यह भी बिल्कुल सत्य है कि उक्त दोनों कार्यों में खर्च हुए अरबों-खरबों से भारत भूमि पर न कहीं सघन वृक्ष दिखाई देते हैं,न नदियों का एक बूँद तक साफ होता है ! इतना जरूर होता है कि सम्बन्धित विभागों के ठेकेदार, अफसर और मंत्री प्रति वर्ष उत्तरोत्तर अति धनाढ्य,अमीर और विलासी जरूर होते जाते हैं।

आज के कुछ समाचार पत्रों की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले महीने छत्तीसगढ़ के अतिघने जंगलों में,जो हाथियों के प्राकृतिक आवास हैं, उन्हीं जंगलों के भूगर्भ में लाखों हेक्टेयर क्षेत्रफल में कोयला ब्लॉक्स होने और उसको निकालने के लिए सरकार के कर्णधारों द्वारा अपने चहेते बड़े कार्पोरेट घरानों को निकालने के ठेके दिए जाने और उस कोयले को निकालने की प्रक्रिया में उन अतिसघन जंगलों और उनमें रहने वाले विविध जीव-जंतुओं-पक्षियों-सरिसृपों-स्तनपाई जानवरों यथा हिरन,चीतल,तेंदुआ, गौर, हाथी आदि सभी जीव,मानवीय व औद्योगिक गतिविधियों के चलते आतंकित और डरकर उन जंगलों के आस-पास के गांवों, खेत-खलिहानों में बाहर आने को, भागने को, कहीं शरण लेने को बाध्य हो रहे हैं, चूंकि अन्य जानवर अपने छोटे आकार के कारण मनुष्य के लिए उतने खतरनाक व हानिकारक नहीं हैं, परन्तु उसमें रहने वाले हाथी जैसे विशालकाय जीवों के झुंड वहां के निकटवर्ती गांवों में आकर बहुत उपद्रव मचा रहे हैं, वहां के रहने वाले अत्यंत गरीब लोगों की झोपड़ियों को, उनकी खड़ी फसलों को उजाड़ रहे हैं, कुचल रहे हैं, हत्या कर रहे हैं, अब तक पिछले सालों में हाथियों और मानव मुठभेड़ में लगभग 300 आदमियों और 14 हाथियों की दुःखद मौत भी हो चुकी है, पिछले दस दिनों में ही इतनी ज्यादे मुठभेड़ें हुईं हैं कि आधा दर्जन हाथियों को गांव वालों ने मौत के घाट उतार दिया है। एक अत्यंत दुःखद और कारुणिक घटना में एक नन्हा हाथी का बच्चा अपनी मां को गांव वालों द्वारा मारे जाने पर उसके शव के पास पूरे 28 घंटे रोता रहा।

ओड़िशा और छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती इलाके में बहुत घने जंगल हैं, जो हजारों-लाखों सालों से हाथियों के प्राकृतिक आवाज रहे हैं। ऐतिहासिक तथ्य है कि प्राचीनकाल से ही भारतीय राजा-रजवाड़े और मुगलकाल में मुगल सम्राट भी अपनी सेना के लिए और अपनी शाही सवारी के लिए इन्हीं जंगलों से हाथियों को पकड़कर ले जाते थे और उन्हें उचित प्रशिक्षण देकर अपने उपयोग में लाते थे, परन्तु अब लग रहा है कि वर्तमान सरकारें लाखों-करोड़ों साल में बना यह जंगल, इसका विविध वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं से परिपूर्ण ईकोसिस्टम, यहां रहने वाले वनवासियों, यहां के जीव-जन्तुओं समेत सभी को अपने लाडले कुछ पूंजीपतियों के लिए,अरबों-खरबों रुपयों के कोयले के अकथ्य लोभ-लालच और हवश के लिए यहां का सब कुछ ‘बर्बाद, तबाह और सर्वनाश करने पर उतारू हैं। दरअसल छत्तीसगढ़ राज्य बनने के साथ ही वहां के लाखों लोगों द्वारा, जिनके आवास उसी जंगल परिक्षेत्र में हैं, ने यह जोरदार मांग उठानी शुरू कर दी थी कि मानव और हाथियों के मुठभेड़ को रोकने और अपनी हिफाज़त के लिए इन जंगलों में कम से कम 2 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल का एक संरक्षित इलाका हाथियों के लिए ‘हाथी अभयारण्य ‘ के रूप में संरक्षित कर दिया जाए।

इसमें हाथियों के लिए मनपसंद खाने योग्य पेड़ जैसे केला, अमरूद, कटहल, शहतूत व अन्य उनके पसंदीदा जंगली वृक्षों का वृक्षारोपण कर दिया जाए, इसके अतिरिक्त उसी जंगल क्षेत्र में एक ऐसा प्राकृतिक जलस्रोत भी विकसित किया जाए, जो प्रदूषण रहित हो व सालभर सतत प्रवाहित होता रहे, ताकि भयंकर गर्मियों में भी हाथी उसी प्राकृतिक जलस्रोत से अपनी प्यास बुझाते रहें और उनका मानव बस्तियों में आना-जाना न के बराबर हो, तकि मानव के साथ-साथ हाथी जैसा दुर्लभ प्राणी भी सुरक्षित रहें। यह योजना 2007 तक क्रियान्वित भी हो रही थी, हाथियों के संरक्षण के लिए लेमरू,अंबिकापुर ,तमोलपिंगला,जशपुर में बादल खोल वाइल्ड लाइफ सेंचुरी को ‘सरगुजा-जशपुर हाथी रिजर्व ‘ में बदल दिया गया था,परन्तु अचानक सन् 2010 में ‘जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (जीएसआई )’ और ‘सेंट्रल माइन्स प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट (सीएमपीडीआई )’ने यह रहस्योद्घाटित कर दिया कि ‘इन अति घने जंगलों व वन्य जीवों से समृद्ध इस भूमि के नीचे तीन बड़े-बड़े अकूत कोयले के भंडार वाले कोल ब्लॉक्स हैं जिनका नाम नटिया, श्यांग और फतेहपुर है। इनका कुल क्षेत्रफल लगभग एक लाख चौदह हजार तीन सौ चौंतीस हेक्टेयर क्षेत्रफल के बराबर में फैला है।’

बस यही उक्त रिपोर्ट इस जगह के वन्य के अकूत संपदा से सम्पन्न जंगल और हाथियों के लिए जान लेवा व आत्मघाती साबित होकर रह गया। सरकारों द्वारा इसी रिपोर्ट के बाद हाथी अभयारण्य प्रोजेक्ट को तुरन्त ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। राज्य सरकार से लेकर केन्द्र सरकार के कर्णधार अब इस अरबों-खरबों रुपये के कोयले के लालच और हवस के चलते अपने प्रिय पूँजीपति यारों को आनन-फानन में इन तीनों भूमिगत कोल ब्लॉकों को आवंटित करके उनके खनन को हरी झंडी दिखा दिए। देखते ही देखते इन लाखों जीव-जन्तुओं से सम्पन्न हरे-भरे जंगलों का भारी-भारी जेसीबी मशीनों से उजड़ना और भूमिगत ताकतवर डाइनामाइट विष्फोटकों से विस्फोट करके कोयला निकालने की प्रक्रिया जोर-शोर से शुरू हो गई।

अब हाथियों के संरक्षण की जगह उन्हें तबाह करने की अत्यंत घातक व विनाशकारी कुकृत्य की शुरूआत हो गई। छत्तीसगढ़ के ही एक सुप्रसिद्ध वाइल्ड लाइफ एक्टिविस्ट का कहना है कि ‘यह इलाका इकोलोजिकली व बायोडायवर्सिटी में बहुत सम्पन्न और घने जंगल से आच्छादित है। इस इलाके को सरकारों को संरक्षित करना चाहिए। परन्तु वर्तमान सरकारों के कर्णधार माइनिंग लॉबी के प्रेसर में अपने यार चहेते कार्पोरेट्स को अधिकाधिक फायदा पहुंचाने के लिए पर्यावरण व विलुप्तीकरण के कग़ार पर खड़े हाथियों जैसे जानवरों के अमूल्य जीवनरूपी धरोहर को नजरंदाज करते हुए सर्वनाश करने पर तुले हुए हैं।

आम जनता में व्यर्थ की पर्यावरण बचाने और नदी बचाओ का नारा देने वाले इन सरकारों के कर्णधारों का असली चेहरा बहुत ही विद्रूप, कुरूप, क्रूर और छद्म है। लाखों सालों से संरक्षित व अत्यंत जटिल प्राकृतिक व जैविक प्रक्रियाओं से निर्मित वन हम मानव बना ही नहीं सकते। सबसे बड़ी चीज लाखों सालों से उनमें उपस्थित करोड़ों तरह की झाड़ियों, लताओं, दरख्तों और उसमें रहने वाले भृंगों, तितलियों, जुगनुओं, भौंरों, केचुओं, मधुमक्खियों, ततैयों, वीर-बहूटियों, सरीसृपों, परिंदों, गिलहरियों, खरहों, लोमड़ियों, हिरनों, तेंदुओं, गौरों और अतिविशिष्ट भारतीय समाज में गणेश जी के प्रतिमूर्ति कहे जाने वाले गजराजों को विलुप्त होने के बाद इस धरती पर पुनः ला ही नहीं सकते।

इन सत्ता के मूर्ख कर्णधारों को यह समझा पाना बहुत मुश्किल है कि कोयले के विकल्प सौर ऊर्जा,पवन उर्जा, जल ऊर्जा, एटॉमिक ऊर्जा आदि बहुत से विकल्प तो हैं, परन्तु इस धरती से प्रकृति द्वारा अपने लाखों-करोड़ों सालों के सतत प्रयासों द्वारा बनाए गये इकोसिस्टम और किसी जीव के विनष्ट हो जाने पर उसको पुनः पुनर्जीवित करने का कोई विकल्प मानव प्रजाति के पास फिलहाल तो नहीं ही है, इस लिए कृपा करके सत्ता के नासमझ कर्णधारों मात्र कोयले पाने की हवस में छत्तीसगढ़ के उन जीवंत जंगलों के साथ उनमें रहने वाला गजराज के साथ हजारों-लाखों जीवों के आवास को मत उजाड़ो, मत विनष्ट करो।

(निर्मल कुमार शर्मा पर्यावरणविद हैं और आजकल गाजियाबाद में रहते हैं।)

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