‘राष्ट्रीय पोषण सप्ताह’ का सरकारी ढोंग बनाम भूख से मरती मुल्क की 19 करोड़ जनता

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भारत में सन् 1982 से 1 सितम्बर से 7 सितम्बर तक एक सप्ताह ‘राष्ट्रीय पोषण सप्ताह’ मनाने की शुरूआत की गई है। सरकारी दावे के अनुसार इस सप्ताह को मनाने का मुख्य उद्देश्य आम जनता में पोषण के बारे में जागरूकता फैलाना, कुपोषण से बचाव के उपायों के बारे में जागरूकता बढ़ाना, आम जनजीवन में स्वस्थ जीवन शैली को बढ़ावा देने आदि कार्यक्रम आयोजित किया जाना है। भारत सरकार द्वारा संपूर्ण देश को कुपोषण जैसी गंभीर समस्या से मुक्त कराने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पोषण अभियान चलाया जाता है, इसीलिए सन् 2018 से सितम्बर माह को पोषण माह के रूप में भी मनाया जाता है, इसके अंतर्गत आम जन को उनकी जीवनशैली और खाद्यशैली को बदलने की सलाह दी जाती है।

इसके लिए सरकार द्वारा एकीकृत बाल विकास सेवा मतलब आईसीडीएस नामक एक संस्था का निर्माण किया गया है, इसके अंतर्गत किए कार्यक्रमों में आम जनता में पूरक पोषण, स्वास्थ्य शिक्षा, टीकाकरण, स्वास्थ्य जाँच, प्री स्कूल शिक्षा, पोषण अभियान के अंतर्गत विशेष रूप से युवतियों व गर्भवती महिलाओं तथा अपना स्तनपान कराने वाली महिलाओं में पोषण की कमी को दूर करने के प्रयास किए जाते हैं।

आज वर्तमान समय में भारत सहित दुनिया भर में कुल 69 करोड़ लोग इतने गरीब हैं जो भूख से बिलबिला रहे हैं, तड़प रहे हैं। ऐसे लोगों में अकेले भारत में 19 करोड़ लोग इस सीमा तक गरीबी के दलदल में धंसे हैं जो रात को भूखे पेट सो जाते हैं, भारत के अलावे दुनिया के इन 50 करोड़ भूखे लोगों में अधिकतर अफ्रीका के सहारा क्षेत्र के देशों जैसे हैती, चाड, तिमोर, मेडागास्कर, मोजांबिक, नाइजीरिया, कांगो, सूडान जैसे देशों के लोग ज्यादे हैं, जहां न ढंग के उद्योग-धंधे हैं, न समुन्नत कृषि है, न वहाँ सिंचाई की समुचित व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त इसी विश्व में 3 अरब ऐसे लोग रहते हैं, जो जैसे-तैसे अपना पेट तो भर  लेते हैं, लेकिन उस खाने में पौष्टिकता नाम की कोई चीज ही नहीं होती।

अफ्रीका जैसे देशों में तो भुखमरी के स्पष्ट कारण हैं, लेकिन भारत जैसे देश में तो यहां के किसान इस देश के प्रति, अपने कृषि के प्रति, अपने कृषि योग्य जमीन के प्रति इतने समर्पित और प्रतिबद्ध हैं कि उनकी फसल की कई दशकों से जायज कीमत न मिलने के कारण साल दर साल कर्ज में डूबकर, निराश होकर, लाखों की संख्या में खुदकुशी करने को मजबूर हो रहे हैं, इसके बावजूद भी अपनी कठोरतम् मेहनत से इस पूरे राष्ट्र राज्य के उपभोग होने लायक अन्न से भी लगभग दो गुना अन्न, फल, सब्जी और अन्याय खाद्य पदार्थ पैदा कर देते हैं, अगर इस सुखद स्थिति में भी भारत में भुखमरी है, तो वह यहां की सरकारों के भ्रष्ट और दिशाहीन तथा बेपरवाह कर्णधारों की गलत नीतियों, दलालों और यहाँ के रिश्वतखोर सरकारी अफसरों और कर्मचारियों के कदाचार और भ्रष्टाचार की वजह से है, भारत में भुखमरी के लिए उक्त तीनों त्रयी पूर्णतः जिम्मेदार हैं।

इन्हीं सभी कारणों से भारत कुपोषण के मामले में वैश्विक भुखमरी इंडेक्स में 107 देशों की सूची में 94 वें पायदान के दयनीय स्थान पर है। अभी हाल ही में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानि यूएनईपी और उसका सहयोगी संगठन डब्ल्यूआरएपी की तरफ से खाद्यान्न बर्बादी सूचकांक जारी हुआ, जिसमें यह दुःखद रिपोर्ट जारी की गई कि सन् 2019 में 93 करोड़ 19 लाख टन भोज्य पदार्थों की बर्बादी हुई। इस बर्बाद हुए भोज्य पदार्थ की मात्रा को हम एक दूसरे तरीके से बताकर इसकी मात्रा का अनुमान सहज ही लगा सकते हैं, उदाहरणार्थ 40 टन क्षमता वाले 2 करोड़ 30 लाख ट्रकों में भरे सामान के बराबर खाद्य पदार्थों की बर्बादी हुई।

जहाँ तक दुनिया में खाद्य पदार्थों की बर्बादी की बात है, वहाँ विकसित, विकासशील आदि सभी देशों में खूब बर्बादी हो रही है,एक आकलन के अनुसार वैश्विक स्तर पर 17 प्रतिशत खाद्यपदार्थों की बर्बादी हो ही जाती है, जिसमें 26 प्रतिशत आवागमन के दौरान,13 प्रतिशत दुकानों में और 61 प्रतिशत बर्बादी घरों में, किचेन में होती है। भोज्य पदार्थों को बर्बाद करने के मामले में औसतन एक भारतीय प्रतिवर्ष 50 किलोग्राम, एक अमेरिकन 59 किलोग्राम और एक चीनी 64 किलोग्राम खाद्यान्न बर्बाद कर देता है। इस हिसाब से केवल अमेरिका में 1 करोड़ 93 लाख 59 हजार 951 टन तो चीन में अमेरिका से करीब 4.73 गुना ज्यादे मतलब लगभग 9 करोड़ टन से भी ज्यादे नुकसान होता है। इस हिसाब से वैश्विक स्तर पर बर्बाद होने वाले खाद्य पदार्थों का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। भारत जैसा देश साल भर में इतना अन्न बर्बाद कर देता है, जितना आस्ट्रेलिया महाद्वीप के लोग एक वर्ष तक खा सकते हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार खाद्यान्न की बर्बादी सीधे विश्व पर्यावरण, ग्रीन हाउस प्रभाव व ग्लोबल वार्मिंग से भी जुड़ा हुआ है, इतने विशाल खाद्यान्नों के बर्बाद होने और उसके सड़ने से 8 से 10 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों के बढ़ोत्तरी में सहायक है, भूमि की उर्वरता कम होती है, प्रदूषण बढ़ता है। इसका सीधा मतलब खाद्यान्न की बर्बादी में होने वाली कमी सीधे तौर पर विश्व पर्यावरण के सुधार में सहायक है, इसके अलावे अगर भोज्य पदार्थों की बर्बादी कम होती है तो उसी अनुपात में प्रकृति का विनाश कम होगा, भोजन की उपलब्धता बढ़ेगी, कोई भूखा सोने को मजबूर नहीं होगा, दुनिया भर में पैसों की बचत होगी, जिनका सदुपयोग आम जनकल्याणकारी कार्यक्रमों यथा शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्यान्य जन कल्याणकारी कार्यों में सदुपयोग होगा। किसी विद्वान ने कहा है कि ‘खाद्य पदार्थों की बर्बादी दुनिया के करोड़ों बच्चों के कुपोषण के लिए जिम्मेदार है,खाद्य पदार्थों की बर्बादी मानव अस्तित्व के लिए सबसे जरूरी चीज भोजन के अधिकार की भी अवमानना और उल्लंघन है, क्योंकि भोजन की बर्बादी विश्व के करोड़ों लोगों की सामाजिक सुरक्षा की उपेक्षा करती है।’

इसलिए आइए हम सभी विश्व के लोग आज से यह संकल्प लेते हैं कि हम अपनी भूख के अनुरूप ही अपनी थाली में भोज्य पदार्थों को लेंगे ताकि हम अपनी थाली में लिए भोजन के अन्तिम अन्न के दाने तक को खा लेंगे। शादी, ब्याह व किसी सार्वजनिक बड़े दावतों में बचे हुए खाने की बर्बादी से रोकने हेतु सामाजिक तौर पर भी और सरकारों की तरफ से यह सुनिश्चित व्यवस्था होनी चाहिए कि बचे हुए भोजन को खराब होने से पूर्व उसे समय से जरूरतमंद लोगों तक पहुँचाने की त्वरित व्यवस्था हो। इस त्वरित सुव्यवस्था के बाद भी अगर कोई अशिष्ट व्यक्ति या व्यक्ति समूह भोज्य पदार्थों की बर्बादी करता है, तो इसके लिए शासन की तरफ से कठोरतम दंड की व्यवस्था होनी ही चाहिए, क्योंकि निश्चित रूप से मानव समेत समस्त जैवमंडल के लिए भोजन की महत्ता भगवान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है।

भारत में भुखमरी की समस्या यहां की सत्तासीन सरकारों के कर्णधारों द्वारा जानबूझकर की गई एक समस्या है। मान लीजिए आप उस बाजार से गुजर रहे हों, जहाँ की दुकानों, मॉलों, होटलों में खाद्य पदार्थ खचाखच भरे हुए हों, लेकिन आपके जेब में इतना पैसा नहीं है कि आप उन सुस्वादिष्ट और पौष्टिक आहार को खरीद कर खा सकें, तो आप निश्चित रूप से कुछ ही दिनों में खाना न मिलने से भयंकर कुपोषण के शिकार होकर मौत के मुंह में चले जाएंगे। भारत जैसे देश की ठीक यही हालत है।

यहां सरकारी गोदामों में प्रचुर मात्रा में गेहूं और चावल ठसाठस भरे पड़े हैं, लेकिन दूसरी तरफ लोग भूख से बिलबिलाकर मर रहे हैं। भारत में कुपोषण और भुखमरी की समस्या आम लोगों में व्याप्त बेरोजगारी से पैदा हुई गरीबी है, खाने की चीजों को खरीदने के लिए लोगों के पास पैसा ही नहीं है, उनके अन्दर क्रय शक्ति ही नहीं है। कोई भी व्यक्ति जानबूझ कर कुपोषित नहीं रहना चाहेगा। सामान्य और नियमित खाना मिलने पर कोई व्यक्ति कुपोषित हो ही नहीं सकता। इसलिए यह सरकारी पोषण सप्ताह और पोषण माह मनाना तथा इसके लिए तमाम गोष्ठियों और सेमिनारों को आयोजित करना एक छद्म,पाखंड और गरीबों के प्रति एक निर्मम सरकारी दिखावा के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

आज सरकार की दुर्नीतियों की वजह से पिछले 44 सालों में इस देश के सर्वाधिक युवा बेरोजगार हैं, यक्ष प्रश्न है बेरोजगारी से त्रस्त कोई युवा पौष्टिक भोजन कैसे खा सकता है, उसी प्रकार इस देश की 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर अवलंबित है, आज किसानों को उनकी फसलों की लागत मूल्य भी नहीं मिल रहा है, उस स्थिति में यहाँ करोड़ों किसान और उसका परिवार पौष्टिक भोजन कैसे खा सकता है? जाहिर है नहीं खा सकते। इसीलिए हर आधे घंटे में एक किसान और बेरोजगारी से त्रस्त एक युवा इस देश में आत्महत्या करने को बाध्य हो रहे हैं। इसलिए उक्त वर्णित सरकारी पोषण सप्ताह मनाने के इस ढोंग की कलई तभी उतर जाती है, जब देश के विभिन्न भागों से बेरोजगारी, तंगहाली से त्रस्त लोगों की भूख से मौत होने की खबरें समाचार पत्रों और दृश्य मीडिया के माध्यम से अक्सर सुनने को मिलती रहतीं हैं, पोषण सप्ताह और पोषण माह मनाने का यह सरकारी कार्यक्रम सिवा एक ढोंग और प्रपंच के कुछ नहीं है।   

(निर्मल कुमार शर्मा पर्यावरणविद और टिप्पणीकार हैं। आप आजकल गाजियाबाद में रहते हैं।)

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